गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ फरीदाबाद हरयाणा संस्थापक महात्मा मुंशीराम जी
लेखक :- डॉ सत्यकेतु विद्यालंकार
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा
शुरू में गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ गुरुकुल काँगड़ी की अन्यतम शाखा न होकर उसका एक अंग या विभाग था । पर बाद में उसने शाखा गुरुकुल का रूप प्राप्त कर लिया , और उसमें पृथक् व स्वतन्त्र रूप से शिक्षा का प्रारम्भ किया गया , यद्यपि उसमें काँगड़ी गुरुकुल द्वारा निर्धारित पाठविधि का अनुसरण किया जाता रहा । अप्रैल , सन् १९७४ से इस गुरुकुल की स्थिति व स्वरूप में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन प्रारम्भ हुए , और अब इसने एक स्वतन्त्र शिक्षण – संस्था का रूप प्राप्त कर लिया है । यद्यपि वर्तमान समय में इसे गुरुकुल काँगड़ी की शाखा व भाग नहीं कहा जा सकता , पर इसमें गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार ही शिक्षा की व्यवस्था की गई है , जिसके कारण इसका काँगड़ी विश्वविद्यालय के साथ सम्बन्ध बना हुआ है । महात्मा मुंशीराम चाहते थे , कि अधिक से अधिक विद्यार्थी गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का लाभ उठा सकें । इसीलिए उन्होंने भारत की राजधानी के समीप भी एक गुरुकुल स्थापित करने का विचार किया ।
उनके इस विचार को क्रियान्वित होने में कोई कठिनाई नहीं हुई , क्योंकि अनेक दानवीर आर्य सज्जन इस कार्य में उनकी सहायता करने के लिए उद्यत थे । दिल्ली निवासी सेठ रग्घूमल ने दिल्ली के समीप गुरुकुल खोलने के लिए एक लाख रुपये महात्माजी को अर्पित कर दिये । इसके अतिरिक्त डिप्टी निहालचन्द्र ने पच्चीस हजार रुपये गुरुकुल के लिए नकद प्रदान किये और बारह हजार रुपयों की लागत से तुगलकाबाद स्टेशन के समीप एक धर्मशाला भी गुरुकुल के लिए बनवा दी । दिल्ली के क्षेत्र में जो स्थान गुरुकुल के लिए चुना गया था , वह दिल्ली शहर के दक्षिण में अरावली पर्वत पर है । यहाँ ग्राम सराय ख्वाजा की १०७५ बीघे जमीन गुरुकुल के लिए खरीद ली गई । इसका अधिकांश भाग अरावली पहाड़ी पर था , पर ३०० बीचे भूमि ऐसी भी थी जो समतल होने के कारण खेती के योग्य थी । १०७५ बीघे की यह भूमि दिल्ली – मथुरा लाइन पर तुगलकाबाद स्टेशन से दो मील की दूरी पर है । वहाँ जाने वाले लोगों की सुविधा को दृष्टि में रखकर ही डिप्टी निहालचन्द ने तुगलकाबाद स्टेशन के समीप एक धर्मशाला का निर्माण कराया था ।
गुरुकुल के भवनों के निर्माण के लिए अरावली पर्वत के एक ऐसे ऊँचे – नीचे भूमिभाग को चुना गया , जो पर्याप्त ऊँचाई पर है । इसकी ऊँची – नीची शिलाओं को काट काटकर एक समतल मैदान तैयार कर लिया गया , और उसपर गुरुकुल के भवनों का निर्माण किया गया । भवनों के लिए लाला श्रीराम , लाला झम्मन लाल तथा सेठ जुगल किशोर बिड़ला आदि ने भी उदारतापूर्वक दान दिया , और कुछ ही समय में गुरुकुल के लिए उपयुक्त इमारतें बन कर तैयार हो गई । #२४_दिसम्बर , #१९१६ के दिन गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हुई , और वहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल काँगड़ी विद्यालय की पहली चार श्रेणियों के विद्यार्थियों को भेज दिया गया । इन श्रेणियों में विद्यार्थियों की संख्या ११० थी , और इन्हीं से गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ का प्रारम्भ हुआ था । गुरुकुल कांगड़ी के छोटे ब्रह्मचारियों को इन्द्रप्रस्थ भेजने का एक कारण यह था , कि काँगड़ी में स्थान की कमी थी , और यह आशा की जाती थी कि इन्द्रप्रस्थ गुरुकुल की सुविस्तृत भूमि में वे अधिक सुविधापूर्वक रह सकेंगे । पर यह आशा पूरी नहीं हुई , और छोटे बालकों को वहाँ अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । इन्द्रप्रस्थ गुरुकुल जिस भूमि पर स्थित था , उसे चट्टानों को काट – काटकर समतल किया गया था । उसके चारों ओर अब भी चट्टानें थीं , जो गरमी में तप जाती थीं । हरियाली की वहाँ बहुत कमी थी । जल की भी वहाँ समुचित सुविधा नहीं थी । पहाड़ी से नीचे एक बावड़ी थी , जिससे बैलगाड़ियों द्वारा जल ढोया जाता था । इन कठिनाइयों को दृष्टि में रखकर सन् १९२१ में पहली चार श्रेणियों के ब्रह्मचारियों को कांगड़ी वापस भेज दिया गया , और पांचवीं से आठवीं तक की चार श्रेणियों को वहां रखने का निश्चय किया गया । सन् १९२४ में गुरुकुल कांगड़ी की बहुत – सी इमारतें गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण नष्ट हो गई थी , और ब्रह्मचारियों के निवास एवं शिक्षा के लिए स्थान की समस्या विकट रूप में सामने आ गई थी । इस दशा में प्रारम्भ की चार कक्षाओं के विद्यार्थियों को हरिद्वार और कनखल के बीच में स्थित मायापुर वाटिका में ले जाया गया , और नवीं तथा दसवीं श्रेणियों के विद्यार्थियों को इन्द्रप्रस्थ में । इस प्रकार सन् १९२४ में गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ में गुरुकुल कांगड़ी के विद्यालय विभाग की छह कक्षाओं का स्थानान्तरण हो गया ।
श्री गोपालजी इस समय गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ के मुख्याध्यापक तथा मुख्याधिष्ठाता थे । गुरुकुल शिक्षा प्रणाली पर उनकी प्रगाढ़ आस्था थी , और अनेक वर्षों तक गुरुकुल मुलतान के मुख्याध्यापक रह चुकने के कारण उन्हें गुरुकुलों के संचालन का अच्छा अनुभव भी था । उनके निर्देशन में इन्द्रप्रस्थ गुरुकुल की बहुत उन्नति हुई । सन् १९३६ तक गोपालजी इस गुरुकुल के कर्ताधर्ता रहे , और उनके अवकाश ग्रहण कर लेने पर पण्डित धर्मवीर विद्यालंकार उनके उत्तराधिकारी बने । उनके पश्चात् पण्डित हरिशरण विद्यालंकार तथा पण्डित धर्मदेव वेदवाचस्पति ने गुरुकुल की गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ का संचालन किया । पर इस समय तक गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ की स्थिति न स्वतन्त्र गुरुकुल की थी , और न ही शाखा गुरुकुल की । वह गुरुकुल कांगड़ी का एक अंग या भाग मात्र था । शुरू में उसमें गुरुकुल कांगड़ी के विद्यालय विभाग की प्रथम चार श्रेणियाँ स्थानान्तरित की गई थीं , फिर मध्य की चार ( पाँचवीं से आठवीं तक ) श्रेणियाँ और बाद में छह ( पाँचवीं से दसवीं तक की ) श्रेणियाँ । सन् १९३६ में जब बीसवीं सदी का द्वितीय महायुद्ध प्रारम्भ हुआ , तो भारत के स्वाधीनता संघर्ष में तेजी आने लगी । महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रह आन्दोलन का सूत्रपात हुआ , और क्रान्तिकारी समितियों ने विदेशी शासन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष भी प्रारम्भ कर दिया । इन्द्रप्रस्थ गुरुकुल की स्थिति दिल्ली के बहुत समीप थी । अतः देश में चल रहे राजनीतिक आन्दोलनों से पृथक् रह सकना उसके लिए सम्भव नहीं था । सरकार के प्रकोप से बचने के लिए क्रान्तिकारी युवक अरावली पर्वतमाला में स्थित इस शिक्षणालय में सुगमता से प्राश्रय ग्रहण कर सकते थे । यही कारण है , कि स्वाधीनता संघर्ष के अनेक सेनानियों ने गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ को अपनी योजनाओं के लिए प्रयुक्त किया , और यह संस्था सरकार की कोप दृष्टि से बची नहीं रह सकी । अगस्त , १९४२ में जब गांधीजी ने ‘ अंग्रेजो , भारत छोड़ो ‘ का नारा लगाया और सारा देश ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ , तो गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ के अनेक अध्यापक , कर्मचारी और विद्यार्थी भी स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के लिए मैदान में उतर आये । सन् १९४७ में भारत विभाजन के कारण जो परिस्थतियाँ उत्पन्न हुई , और दिल्ली तथा उसके समीपवर्ती प्रदेश में जो अशान्ति तथा अव्यवस्था की दशा प्रादुर्भूत हो गई , गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ पर उसका अत्यन्त घातक प्रभाव पड़ा , और उसे बन्द कर देने का निर्णय करने के लिए विवश होना पड़ा । सन् १९३० में गुरुकुल काँगड़ी कनखल के समीप अपनी नयी भूमि पर स्थानान्तरित हो चुका था । कुछ ही वर्षों में नयी भूमि पर इतनी इमारतें बन गयी थीं , कि विद्यालय विभाग की सब श्रेणियों को भी वहाँ रखा जा सकता था । इस दशा में गुरुकुल कांगड़ी की जो छह श्रेणियाँ इन्द्रप्रस्थ में थीं , उन्हें भी नयी भूमि में ले प्राया गया , और इन्द्रप्रस्थ गुरुकुल में ताले पड़ गये ।
दिल्ली के समीप अरावली पर्वतमाला की सुरम्य स्थली पर स्थित गुरुकुल की इस दुर्दशा के प्रति अनेक प्रार्य जनों का ध्यान आकृष्ट हुआ , और उन्होंने इसके पुनरुद्धार के लिए प्रयत्न करना प्रारम्भ कर दिया । दिल्ली के आर्यसमाजों में नया बाँस आर्यसमाज बहुत सुव्यवस्थित दशा में है । उसका संचालन ऐसे व्यक्तियों के हाथों में रहा है , जिन्हें वैदिक धर्म के प्रति आस्था है और महर्षि दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं को क्रियान्वित करने के लिए जिनमें उत्साह भी है । नया बाँस आर्यसमाज के कतिपय उत्साही कार्यकर्ताओं ने गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ को फिर से प्रारम्भ करने का कार्य अपने हाथों में लिया , और पण्डित मनोहर विद्यालंकार को उसका मुख्याधिष्ठाता नियत किया । इस प्रसंग में यह ध्यान में रखना चाहिये , कि भारत विभाजन ( १९४७ ) के कारण आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब की स्थिति डावाँडोल हो गई थी । सभा का प्रधान कार्यालय लाहौर में था , जिसे पाकिस्तान के अन्तर्गत कर दिया गया था । सभा के सब रिकार्ड आदि लाहोर में ही रह गये थे । यह स्वाभाविक था , कि भारत में सभा का नया कार्यालय खोलने , उसके संगठन को लग जाए । यही कारण है , जो आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब सन् १९४७-४८ ओर उसके सुव्यवस्थित करने और अपनी अधीनता में विद्यमान संस्थाओं को संभालने में कुछ समय बाद भी कुछ समय तक गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ की ओर ध्यान नहीं दे सकी । इस दशा में बांस आर्यसमाज ने इस आर्य शिक्षण संस्था को संभालकर अत्यन्त उपयोगी कार्य किया , और पण्डित मनोहर विद्यालंकार सदर्श कर्मठ व आस्थावान् व्यक्ति को उसका मुख्याधिष्ठाता नियुक्त कर गुरुकुल को पुनः सुव्यवस्थित रूप से चलाने के मार्ग को प्रशस्त कर दिया ।
इस प्रकार सन् १९४७ के बाद जब गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ पुनः प्रारम्भ हुआ , तो उसकी स्थिति गुरुकुल कांगड़ी के एक भाग व अंग की न होकर उसकी शाखा की थी । उसमें बड़ी पाठविधि रखी गई थी , जो गुरुकुल कांगड़ी द्वारा विद्यालय विभाग के लिए निर्धारित थी , और ब्रह्मचारियों के रहन – सहन , खान – पान आदि के लिए भी गुरुकुल की पद्धति का अनुसरण किया गया था । सन् १९४८ में पण्डित पदम वेदालंकार गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ के आचार्य नियुक्त हुये और सन् १९५५ में पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार । इन दोनों आर्य विद्वानों ने पूरी लगन तथा परिश्रम से गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ का संचालन किया , जिसके परिणामस्वरूप यह संस्था पुनः व्यवस्थित रूप में आ गई । पर स्वराज्य के पश्चात् भारत में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के प्रति जनता में विशेष आस्था नहीं रह गई थी । देश के नये वातावरण में यह सुगम नहीं था , कि गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ का संचालन उसी पद्धति से किया जा सके , जिसका सूत्रपात महात्मा मुंशीराम ( स्वामी श्रद्धानन्द ) द्वारा किया गया था । इसीलिए अब इस संस्था में ऐसे विद्यार्थियों को भी बड़ी संख्या में प्रविष्ट किया जाने लगा , जो गुरुकुल के छात्रावास में नहीं रहते थे , अपितु समीप के ग्रामों से वहाँ पढ़ने के लिए आ जाते थे । पर इससे यह नहीं समझना चाहिए , कि इस समय गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ का स्वरूप एक सामान्य विद्यालय के समान हो गया था । उसमें छात्रावास की भी सत्ता थी , और बहुत – से विद्यार्थी वहाँ निवास करते हुए उसी प्रकार से ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन बिताते थे , जैसे कि गुरुकुल कांगड़ी के छात्रावास में । इस काल में गुरुकुल का संचालन जिन महानुभावों के हाथों में रहा , वे सब गुरुकुल कांगड़ी के स्नातक थे । गुरुकुल प्रणाली की मान्यताओं आदर्शों को वे भली – भाँति जानते थे । उनका निरन्तर यही प्रयत्न रहा , कि गुरुकुल इन्द्र प्रस्थ का संचालन एक आवासीय शिक्षणालय के रूप में किया जाए और वह एक आदर्श गुरुकुल बन सके । उन्हें अपने प्रयत्न में कुछ सफलता भी हुई । पर वे इस संस्था के प्रति के जनता में समुचित उत्साह उत्पन्न कर सकने में असमर्थ रहे । कुछ आर्य नेताओं का यह विचार था , कि दिल्ली के समीप स्थित इन्द्रप्रस्थ का स्थान एक आर्य पब्लिक स्कूल लिए अधिक उपयुक्त है , और उसमें एक नये ढंग के आधुनिक शिक्षणालय की स्थापना की जानी चाहिये ।
आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब की दशा धीरे – धीरे सुव्यवस्थित हो गई थी , और जालन्धर में उसका प्रधान कार्यालय स्थापित कर दिया गया था । उसके चुनाव गुरुकुल काँगडी का विस्तार भी नियमपूर्वक होने लग गये थे । भारत के विभाजन के कारण पंजाब का बड़ा भाग पाकिस्तान में चला गया था । इस दशा में प्रार्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब में हरयाणा के प्रतिनिधियों का बहुमत हो जाना स्वाभाविक था । पंजाब और हरयाणा के प्रतिनिधियों प्रतिनिधि सभा का कार्यभार संभालने के सम्बन्ध में जो संघर्ष इस काल में हुआ , गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ पर भी उसका प्रभाव पड़ा , और इस संस्था की संचालननीति के सम्बन्ध मैं पंजाब प्रतिनिधि सभा के अधिकारी एकमत नहीं हो सके । परिणाम यह हुआ , कि गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ को चला सकना सम्भव नहीं रहा , और उसे बन्द कर देना पड़ा । सन् १९६३ से १९७४ तक यह गुरुकुल बन्द पड़ा रहा । दिल्ली नगरी के असाधारण विकास के कारण जो बहुत – सी इमारतें वहाँ बनने लगी थीं , उनके लिए अावश्यक रोड़ी और बजरी गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ की भूमि से प्राप्त की जा सकती थी । सभा के अधिकारियों ने इस भूमि के कुछ भाग को रोड़ी बजरी के ठेकेदारों को पट्ट पर दे दिया , जिससे सभा को अच्छी आमदनी होने लगी , पर उसका उपयोग गुरुकुल के लिए नहीं किया गया । सन् १९७३ में आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब के प्रधान स्वामी इन्द्रवेश निर्वाचित हुए । उन्होंने इस संस्था के पुनरुद्धार का प्रयत्न किया , और इसमें वह सफल भी हुए । पर आन्तरिक झगड़ों के कारण सभा के सुव्यवस्थित रूप से कार्य कर सकने में फिर बाधाएँ उपस्थित होने लगी , और गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ भी इन झगड़ों के प्रभाव से बचा नहीं रहा । उस समय में स्वामी शक्तिवेश इस संस्था का संचालन कर रहे थे । आर्य प्रतिनिधि सभा , पंजाब या हरयाणा का उस पर अधिकार नहीं था । गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ को व्यवस्थित रूप से पुनः स्थापित करने और उसे एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण – संस्था के रूप में विकसित करने में स्वामी शक्तिवेश को अच्छी सफलता प्राप्त हुई थी , खैर होनी को कुछ ओर ही मंजूर था। अब वह निरन्तर आर्य जनता के आकर्षण का केन्द्र बनता जा रहा है। आचार्य ऋषि पाल जी गुरुकुल को सुव्यवस्थित ढ़ंग से चला रहे हैं।