विविध संप्रदायों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव ही है देश की ताकत
विश्वनाथ सचदेव
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए किसानों के महासम्मेलन में जो नारे लगाये गये उनमें ‘अल्लाह-ओ-अकबर… हर हर महादेव’ का नारा भी था। यह नारे पहले भी लगते रहे हैं, पर एक-दूसरे के खिलाफ। मुजफ्फरनगर में यह नारा एक-दूसरे के साथ मिलकर लगाया जा रहा था। मंच से आवाज़ आती थी ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ और सामने बैठी विशाल भीड़ ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष कर रही थी। विशेषता यह थी कि नारा लगाने वालों में हिंदू-मुसलमान दोनों शामिल थे। अच्छा लगा था यह देखकर, सुनकर।
वैसे, यह पहली बार नहीं है जब यह मिला-जुला जयघोष लगा था। जानने वाले बताते हैं कि इलाके के किसान नेता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत, राकेश टिकैत के पिता के समय भी यह नारा लगा करता था, पर फिर राजनीति ने इस भाईचारे को हिंदू बनाम मुसलमान में बदल दिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण था, पर सच भी यही है। बहरहाल, इस बार के किसान महासम्मेलन में जब ‘वे तोड़ेंगे, हम जोड़ेंगे’ के नारे के साथ सबने मिलकर अल्लाह और महादेव को याद किया तो दो दशक पहले का दृश्य सहसा सामने आ गया था।
यह दृश्य याद आना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आज फिर सांप्रदायिकता हमारी राजनीति का हथियार बनती दिख जाती है। कुछ तत्व हैं जो ‘ईश्वर-अल्लाह’ तेरे नाम के संदेश को स्वीकार नहीं करना चाहते। जब इंदौर में कोई चूड़ी बेचने वाला इसलिए पीटा जाता है कि वह हिंदू मोहल्ले में क्यों आया है और कानपुर में कोई रिक्शावाला इसलिए भीड़ के गुस्से का शिकार बनता है कि वह ‘जय श्रीराम’ क्यों नहीं कह रहा, या फिर मथुरा में किसी मुसलमान युवक को इसलिए धमकाया जाता है कि उसने डोसे की अपनी दुकान को ‘श्रीनाथ डोसा सेंटर’ नाम क्यों दिया है, तो यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि हमारी गंगा-यमुनी तहज़ीब को नज़र लग रही है?
आठ साल पहले मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगा हुआ था। देश उसे भुलाने की कोशिश कर रहा है, यह ज़रूरी है। विभाजन के पहले और बाद के सारे सांप्रदायिक दंगों को हमने झेला है। उन्हें भुलाकर भारतीय समाज आगे बढ़ रहा है। पर भारतीयों को हिंदू-मुसलमान में बांटने वाली मानसिकता जब-तब सिर उठा लेती है और हम खून के रंग को भुलाकर झंडों के रंगों को याद करने में लग जाते हैं। यह अच्छी बात है कि हर भारतीय के खून का रंग एक होने की याद दिलाने वाली कोशिशें भी लगातार होती रहती हैं। इन कोशिशों का स्वागत होना चाहिए, इनके सफल होने की प्रक्रिया में देश के हर नागरिक का योगदान होना चाहिए। पर उन तत्वों का क्या करें जो इन कोशिशों को विफल बनाने में लगे हैं? ज़रूरत उन तत्वों को हराने की है।
अफगानिस्तान में आज जो कुछ हो रहा है वह सारी दुनिया के लिए चिंता का विषय है, इसलिए नहीं है कि वहां खून-खराबा हो रहा है, चिंता इस बात की है कि वहां जो कुछ हो रहा है उससे कट्टरवादी ताकतों का हौसला ही बढ़ेगा। यह चिंता वैश्विक है! कट्टरतावादी सोच को किसी एक देश में नहीं, सारी दुनिया में पराजित करना है। कट्टरता का विवेक से कोई रिश्ता नहीं है। विवेकशील समाज कट्टरपंथी सोच का स्वीकार नहीं करता।
विभाजन के बाद देश में यह बात भी उठी थी कि चूंकि मुसलमानों को पाकिस्तान मिल गया है, इसलिए भारत को हिंदू-राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिए। लेकिन हमारे नेताओं, संविधान निर्माताओं ने विवेक से काम लिया और भारत को किसी धर्म से जोड़ने से इनकार कर दिया। हमारा संविधान एक पंथ-निरपेक्ष भारत की परिकल्पना को स्वीकार करने वाला है। बंटवारा भले ही धर्म के नाम पर हुआ था, पर हमारा भारत बहुधर्मी है, यहां सब धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा… सब हमारे लिए पवित्र स्थान हैं। सभी धर्म एक ही लक्ष्य तक पहुंचाने वाले हैं। व्यक्ति को मनुष्य बनाता है धर्म। इसे कट्टर रूढ़िवादी सोच का हथियार बनाने का मतलब धर्म को न समझना ही नहीं, अपने आप को धोखा देना भी है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में इस बात को फिर से दोहराया है कि भारत में रहने वाला हर नागरिक हिंदू है। वे पहले कह चुके हैं कि भारत में जन्मा हर व्यक्ति हिंदू है। इसे स्वीकार कर लेने के बाद यह हिंदू-मुसलमान वाला विवाद खत्म हो जाना चाहिए। जैसा कि भागवत ने कहा, यह सच है कि इस्लाम भारत में आक्रांताओं के साथ आया था, पर सच यह भी है कि आज जो इस्लाम को मानने वाले भारत में हैं, उनके पूर्वज आक्रांताओं के साथ भारत में नहीं आये थे। ये भारत में जन्मे हैं, इनके पुरखे भी भारत में ही जन्मे थे। किन्हीं कारणों से उन्होंने इस्लाम को अपनाया, तो इसके लिए वे सनातन धर्म को मानने वालों के लिए पराये नहीं हो जाते। उनकी रगों में भी वही खून दौड़ रहा है जो बाकियों की रगों में है। और उनके खून का रंग भी बाकियों के खून की तरह लाल ही है। तो फिर भेद किस बात का? अल्लाह और ईश्वर में हम भेद किस आधार पर करते हैं?
हमारी विविधता की तरह ही हमारी बहुधर्मिता भी हमारी कमज़ोरी नहीं, हमारी ताकत है। ईश्वर, अल्लाह या गॉड को एक-दूसरे के सामने प्रतिस्पर्धी की तरह खड़ा करके हम अपनी नादानी और अज्ञानता का ही परिचय देते हैं। अपने से भिन्न धर्म को मानने वाले के प्रति हमारा विरोध सिर्फ इस बात पर हो सकता है कि वह अविवेकपूर्ण व्यवहार कर रहा है। अविवेक का समर्थन कोई नहीं कर सकता। कट्टरता अविवेक से ही उपजती है। आज यदि अफगानिस्तान में तालिबानी कट्टरता का परिचय दे रहे हैं, तो इसकी निंदा इसलिए होनी चाहिए कि वे अपने किये को विवेक के तराजू पर नहीं तौल रहे। धर्म के नाम पर अधर्म फैलाना चाहते हैं वे। यही अधर्म ईश्वर और अल्लाह में भेद करता है। अविवेकपूर्ण कट्टरता का शिकार बनाता है हमें। यही तालिबानी सोच है।
किसी भी सभ्य समाज में इस कट्टरपंथी सोच के लिए, मेरा ईश्वर और तेरा ईश्वर की मानसिकता के लिए, कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अविवेकी कट्टरता जहां भी है, उसका विरोध होना चाहिए। धर्म बांटता नहीं, जोड़ता है, इस बात को समझना होगा। अल्लाह-ओ-अकबर और हर हर महादेव के नारे एक-दूसरे के विरोध में नहीं, मिलकर लगाने होंगे । तभी हम जुड़ेंगे। तभी हम सच्चे भारतीय बनेंगे। हां, भारतीय, हिंदू या मुसलमान या सिख या ईसाई नहीं, भारतीय। ज़रा सोचिये, श्री भागवत जिसे हिंदू कह रहे हैं, उसे हम भारतीय क्यों नहीं कह सकते। हमें संकुचित हिंदू राष्ट्र की नहीं, व्यापक भारतीय राष्ट्र चाहिए। उस राष्ट्र पर हर नागरिक का अधिकार होगा और हर नागरिक का कर्तव्य होगा उस राष्ट्र की रक्षा के प्रति अनवरत सजग रहना!