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संपादकीय

कहां गये देश के वे राजनेता?

आज भारत की राजनीति जिस दौर में प्रविष्ट हो चुकी है, उसे देखकर दुख होता है। कभी-कभी तो राजनीतिज्ञों के व्यवहार और कार्यशैली को देखकर ऐसा लगता है कि देश में राजनीतिक विरोध को व्यक्तिगत विरोध में परिवर्तित कर देश के नेता  देश में लोकतंत्र की ही हत्या करने जा रहे हैं।

ऐसा नही है कि राजनीतिक विरोध पूर्व में नही रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही राजनीतिज्ञों के परस्पर राजनैतिक विरोध रहे हैं। परंतु पुरानी पीढ़ी के सुलझे हुए राजनीतिज्ञों ने राजनीतिक विरोधों  को कभी व्यक्तिगत विरोध तक नही आने दिया। सभी को विदित है कि देश के विभाजन को लेकर, देश की सैन्य नीतियों को लेकर, विदेश नीति को लेकर, धर्मनिरपेक्षता और तुष्टिकरण जैसी राष्ट्रघाती नीतियों को लेकर कांग्रेस से हिंदूवादी दलों का ३६ का आंकड़ा रहा। इसके लिए देश की भावनाओं को समझकर विपक्ष ने केन्द्र की नेहरू सरकार की खिंचाई करने में कभी कोताही नही बरती। उधर से नेहरू भी आलोचनाओं को सहजता से लेते रहे। भारत में कांग्रेस की गलत नीतियों को लेकर गांधी-नेहरू पर अधिक तीर चलाये गये, जबकि कांग्रेस के ही सरदार वल्लभ भाई पटेल को और बाद में लालबहादुर शास्त्री को लोगों ने सम्मान देने में कमी नही छोड़ी। इसका अभिप्राय था कि देश के लिए काम करने वालों को सम्मान देने में दलीय राजनीति को अलग रखने का लोकतांत्रिक गुण राजनीतिज्ञों ने अपनाया। सचमुच वह लोकतंत्र का भारत में स्वर्णयुग था।

1977 में देश की जनता ने ‘जनता पार्टी’ पर विश्वास किया। जयप्रकाश जी के नेतृत्व में विपक्षी राजनीतिज्ञों ने बापू की समाधि राजघाट पर जाकर शपथ ली कि सब मिलकर चलेंगे और देशोत्थान के कार्यों में किसी प्रकार का गतिरोध नही आने देंगे। परंतु इस ली गयी शपथ को जनता पार्टी के नेताओं ने ही तोड़ दिया। तब अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं को बड़ी वेदना हुई थी। गांधीजी से राजनीतिक मतभेद होते हुए भी उनकी गांधी के प्रति निष्ठा सराहनीय थी। उन्होंने अपनी वेदना को और गांधी के प्रति निष्ठा को एक कविता के रूप में ये शब्द दिये थे-

क्षमा करो बापू! तुम हमको,

वचन भंग के हम अपराधी,

राजघाट को किया अपावन,

मंजिल भूले यात्रा आधी।

जयप्रकाश जी! रखो भरोसा

टूटे सपनों को जोड़ेंगे।

चिताभस्म की चिंगारी से

अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे।।

अटल जी की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अगाध निष्ठा है इस कविता में और उनका व्यक्तित्वों को नमन करने का अपना एक अनोखा अंदाज भी है। अटलजी जी की नेहरू जी से संसद में कई मुद्दों को लेकर भिड़ंत हो जाती थी। जिसे लोग अगले दिन समाचार पत्रों में मजे ले-लेकर पढ़ते थे। उन दिनों इलेक्ट्रोनिक मीडिया नही था, इसलिए प्रिंट मीडिया के माध्यम से ही लोगों पर देश की राजनीति की खबरें पहुंचती थीं। यही कारण था कि लोगों में समाचार पत्रों के प्रति बड़ी उत्सुकता रहती थी। प्रात:काल यदि समाचार पत्र न मिले तो लोग व्याकुल हो उठते थे। अटल-नेहरू भिड़ंत या लोहिया-नेहरू भिड़ंत की खबर को लोग बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे। यह वह समय था जब गोविन्द वल्लभ पंत जैसे कांग्रेसी भी अपने ही नेता नेहरू की गलत बात का विरोध कर लिया करते थे, परंतु रहे हमेशा कांग्रेस में ही, और नेहरू ने भी उन्हें कभी अपना ‘शत्रु’ नही माना।

27 मई 1964 को नेहरू जी इस संसार से चले गये। तब कवि हृदय अटल जी को बड़ा कष्ट हुआ था। उन्होंने जो कुछ उस समय कहा था वह इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास की अनमोल धरोहर बन चुका है। नेहरू जी से राजनीतिक रूप से सदा ३६ का आंकड़ा रखने वाले अटल जी उनसे कितने प्रभावित थे, यह उनके द्वारा नेहरू जी को दी गयी श्रद्घांजलि से पता चलता है। उनके शब्द थे-

‘‘एक सपना था, जो अधूरा रह गया। एक गीत था, जो गूंगा हो गया। एक लौ थी, जो अनंत में विलीन हो गयी। सपना था एक संसार का, जिसमें गीता की गूंज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की, जो रात भर जलता रहा, हर अंधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।

मृत्यु ध्रुव है। शरीर नश्वर है। कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ाकर आये, उसका नाश निश्चित था, लेकिन क्या यह जरूरी था कि मौत इतने चोरी छिपे आती? जब संगी साथी सोये पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे हमारे जीवन की अमूल्य निधि लुट गयी।

भारत माता आज शोकमग्न है, उसका सबसे लाडला राजकुमार खो गया। मानवता आज खिन्नवदना है, उसका पुजारी आज सो गया। शांति आज अशांत है, उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन-जन की आंख का तारा टूट गया। यवनिकापात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अंर्तध्यान हो गया।’’

आज राहुल गांधी को देश के इस लोकतांत्रिक इतिहास को पढऩे समझने की आवश्यकता है। मोदी उसी पार्टी के नेता है जिसके अटल  जी रहे हैं। आजकल अटल जी के स्थान पर मोदी है, तो नेहरू जी के वारिस के रूप में राहुल को देखा जाता है। देश राहुल गांधी को अपने प्रधानमंत्री के किसी विधेयक को फाड़ते हुए देखना नही चाहता और ना ही मोदी को केवल ‘मोदी’ कहकर संबोधित करते देखना चाहता, ना ही सुषमा स्वराज के लिए उनके मुंह से यह सुनना चाहता है-कि कल सुषमाजी मुझे मिलीं तो मेरे से कहने लगीं-बेटा, राहुल! तुम मुझसे इतने नाराज क्यों हो? तो मैंने उनकी नजर में नजर मिलाकर कहा…। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए उन्हें कुछ ऐसे करता देखना चाहता है जिससे इस देश के लोकतंत्र का दिव्य रथ राजपथ पर गुलाब की सुगंध बिखेरता आगे बढ़े। इतिहास सत्ता को तो नमन ही करता है, पर गुणों को तो वह स्वर्णाक्षरों से लिखता है। देश के राजनीतिज्ञ सत्ता पर नही गुणों पर ध्यान दें। देश यही चाहता है।

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