जीवन में संचित करो,
जितना हो हरि- नाम।
मानुष-धन रह जाएगा,
काम आये हरि-नाम॥ 1439॥
व्याख्या:- कैसी विडम्बना है मनुष्य अपनी उर्जा का अधिकांश भाग धन-संग्रह में लगा देता है जबकि होना यह चाहिए था कि उसे अपनी जीवन- ऊर्जा को धर्म- संग्रह और प्रभु भक्ति में लगाना चाहिए। उसके जीवन का अन्तिम लक्ष्य भी यही है, इसीलिए परमपिता परमात्मा में उसे पृथ्वी लोक पर भेजा है। ध्यान रहे,प्रकृति के पंच महाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार संसार के सजातीय है। इसलिए मन सांसारिक भोगों में लिप्त रहता है जबकि आत्मा परमात्मा का सजातीय है। इसलिए वह पुण्य-प्रार्थना की ओर खींचता है। वास्तव में यही देवी संपदा है, जितना हो सके मनुष्य को अपने जीवन में इसका अधिक से अधिक संचय करना चाहिए। परलोक में यही काम आएगा, मानुषी धन तो यही पड़ा रह जाएगा।इसलिए मनुष्य को पुण्य- प्रार्थना का संग्रह अवश्य करना चाहिए।
भक्ति और सत्कर्म से,
मिलता है सौभाग्य।
दिव्य-दृष्टि भी मिले,
दूर रहे दुर्भाग्य॥1494॥
व्याख्या:- जो व्यक्ति अपने जीवन में परमपिता परमात्मा की भक्ति और पुण्य किया करते हैं,अर्पण तर्पण और समर्पण से परमात्मा को प्रसन्न करते हैं,उनका सौभाग्य कदम-कदम पर उनकी रक्षा करता है, उन्हें साधन संपन्न बनाता है, उनकी आँखों में तेज तथा वाणी में प्रभाव होता है। वह धन-ऐश्वर्य के स्वामी होते हैं।उनका जन्म श्रीमन्तों के घर में होता है।इतना ही नहीं वह परमपिता परमात्मा के प्रिय कृपा- पात्र होते हैं। इसलिए परमपिता परमात्मा संसार के महान कार्य ऐसी आत्माओं से ही कराते हैं, आसुरी आत्माओं से नहीं। प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए दिव्य-बुद्धि,दिव्य-दृष्टि देता है। उनसे दुर्भाग्य सर्वदा दूर रहता क्योंकि परमपिता परमात्मा का कृपा-कवच उनकी रक्षा करता है। इसलिए मनुष्य को भक्ति और सत्कर्म में प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
सृष्टि में आनंद जो,
झलकता सच्चिदानन्द।
मनुआरम उस ब्रह्म में,
पावे परमानन्द॥1495॥
व्याख्या:- परमपिता परमात्मा सत् + चित +आनन्द से ओत-प्रोत है। इसलिए उसे सच्चिदानन्द कहते हैं। वह पूरा पूर्णानन्द है,आत्मा और संसार में तो मात्र आनन्द का अंश दृष्टि गोचर हो रहा है। इस संदर्भ में मुण्डकोपनिषद् के पृष्ठ 175 पर कितना सुंदर कहता है – “जो प्राण और शरीर का नेता है,जो अन्न में प्रतिष्ठित और धीर पुरुष ह्रदय(Emation) तथा मस्तिष्क(Intelligence) के मेल से उसका दर्शन करते हैं।सृष्टि में जो आनंद की, अमृतं यद्विभाति वह उसी की झलक दिख रही है।” इसलिए हे मेरे मन!उस अविनाशी ब्रह्म में लीन हो जा ,उसमें खो जा, तभी तुझे उस परमानन्द की रसानुभूति होगी। जिसे तैत्तिरीय- उपनिषद् के ऋषि पुकार-पुकार कर कह रहे है- ‘रसौ वै स:’ “अर्थात् वह परमपिता परमात्मा रसों का रस है।” “उसे प्राप्त करने के लिए ही यह मानव जीवन मिला है। उस परमानन्द को पाकर साधक कह उठता है” एतत् वै तत्” अर्थात् यह ही वह(बह्म) है। जब जीवआत्मा ब्रह्म के साथ वैसा सम्बन्ध स्थापित कर ले जैसा शरीर के साथ किया था, तो वही परमानन्द है, ब्रह्मानन्द है। क्रमशः
प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य
संरक्षक : उगता भारत