यूरोप तथा उत्तरी अमरीका के देशों की कृषि के लिए ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव सकारात्मक होगा। वर्तमान में यहां ठंड ज्यादा पड़ती है। तापमान में कुछ वृद्धि से इन देशों का मौसम कृषि के अनुकूल हो जाएगा। अत: विकसित देशों का पलड़ा भारी हो जाएगा। उनके यहां खाद्यान्न उत्पादन बढ़ेगा, जबकि हमारे यहां घटेगा। साठ के दशक में हमें अमरीका से खाद्यान्न की भीख मांगनी पड़ी थी। वैसी ही स्थिति पुन: उत्पन्न हो सकती है। इस उभरते संकट का सामना करने के लिए हमें अपनी कृषि और जलनीति में मौलिक परिवर्तन करने होंगेज् प्रशांत महासागर के द्वीपीय राज्यों के प्रमुखों से वार्ता करने के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लोबल वार्मिंग के प्रति भारत की गंभीरता का आश्वासन दिया। ज्ञात हो कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय एवं अंटार्कटिका में जमे हुए ग्लेश्यिर के पिघलने का अनुमान है। इस पानी के कारण समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और कई द्वीप जलमग्न हो सकते हैं। मोदी की आगामी अमरीकी यात्रा में भी ग्लोबल वार्मिंग पर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा से चर्चा हो सकती है। मोदी के इन प्रयासों के लिए साधुवाद। लेकिन इससे अधिक जरूरत ग्लोबल वार्मिंग का अपने देश की कृषि और देश के किसानों पर पडऩे वाला प्रभाव है पिछले 100 वर्षों में भारत में तापमान 0.6 डिग्री बढ़ा है। अनुमान है कि इस सदी के अंत तक इसमे 2.4 डिग्री की वृद्धि होगी जो कि पिछली सदी में हुई वृद्धि का चार गुना है। दुनिया के तमाम देशों द्वारा स्थापित ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन कलाइमेट चेंज’ ने अनुमान लगाया है कि बाढ़, चक्रवात तथा सूखे की घटनाओं में भारी वृद्धि होगी। विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार जो भीषण बाढ़ अब तक 100 वर्षों में एक बार आती थी, वैसी बाढ़ हर दस वर्षों में आने की संभावना है। पूरे वर्ष में होने वाली वर्षा लगभग पूर्ववत रहेगी, परंतु इसका वितरण बदल जाएगा। जोरदार बारिश के बाद लंबा सूखा पड़ सकता है। पिछली सदी में हुई तापमान में मामूली वृद्धि से हजारों किसान आत्महत्या को मजबूर हुए हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि चार गुना वृद्धि से कितनी तबाही मचेगी। यह दुष्प्रभाव असिंचित खेती पर ज्यादा पड़ेगा। देश के बड़े इलाके में बाजरा, मक्का तथा रागी की खेती होती है जो कि पूर्णयता वर्षा पर निर्भर रहती है। वर्षा का पैटर्न बदलने से ये फसलें चौपट होंगी। किसानों की मांग होगी कि सिंचाई का विस्तार हो। जाड़े में होने वाली वर्षा रबी की फसल के लिए विशेषकर उपयोगी होती है। इस वर्षा में भी कमी होने का अनुमान है। फलस्वरूप वर्तमान में सिंचित क्षेत्रों में भी सिंचाई की मांग बढ़ेगी, लेकिन पानी की उपलब्धता घटेगी। अनुमान है कि पहाड़ी क्षेत्रों में पडऩे वाली बर्फ की मात्रा कम होगी। गर्मी के मौसम में यह बर्फ ही पिघल कर हमारी नदियों में पानी बनकर बहती है। बर्फ कम गिरने से गर्मी में नदियों में पानी की मात्रा कम होगी। इसके अतिरिक्त हमारे भूमिगत जल के तालाब भी सूख रहे हैं। लगभग पूरे देश में ट्यूबवेल की गहराई बढ़ाई जा रही है, चूंकि भूमिगत जल का अतिदोहन हो रहा है। जितना पानी वर्षा के समय भूमि में समाता है, उससे ज्यादा निकाला जा रहा है। भूमिगत जल का पुनर्भरण कम हो रहा है, चूंकि बाढ़ पर नियंत्रण करने से पानी फैल नहीं रहा है और भूमि में रिस नहीं रहा है। सरकार की नीति है कि वर्षा के जल को टिहरी तथा भाखड़ा जैसे बड़े बांधों में जमाकर लिया जाए। बढ़ते तापमान के सामने यह रणनीति भी फेल होगी, चूंकि इन तालाबों से बड़ी मात्रा में वाष्पीकरण होगा, जिससे पानी की उपलब्धता घटेगी। अमरीका के 12 बड़े तालाबों के अध्ययन में अनुमान लगाया है कि वाष्पीकरण में नौ प्रतिशत की वृद्धि होगी। यह ठंडे देश की बात है। भारत जैसे गर्म देश में वाष्पीकरण से पानी का घाटा ज्यादा होगा। हम हर तरफ से घिरते जा रहे हैं। सिंचाई की मांग बढ़ेगी, परंतु पानी की उपलब्धता घटेगी। बर्फ कम गिरने से गर्मी के मौसम में नदी में पानी कम होगा। बाढ़ पर नियंत्रण करने से भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं होगा। बड़े बांधों से वाष्पीकरण होने से पानी की हानि ज्यादा होगी। एक और संकट सामरिक है। मसेचूसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि यूरोप तथा उत्तरी अमरीका के देशों की कृषि के लिए ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव सकारात्मक होगा। वर्तमान में यहां ठंड ज्यादा पड़ती है। तापमान में कुछ वृद्धि से इन देशों का मौसम कृषि के अनुकूल हो जाएगा। अत: विकसित देशों का पलड़ा भारी हो जाएगा। उनके यहां खाद्यान्न उत्पादन बढ़ेगा, जबकि हमारे यहां घटेगा। साठ के दशक में हमें अमरीका से खाद्यान्न की भीख मांगनी पड़ी थी। वैसी ही स्थिति पुन: उत्पन्न हो सकती है। इस उभरते संकट का सामना करने के लिए हमें अपनी कृषि और जलनीति में मौलिक परिवर्तन करने होंगे। हरित क्रांति के बाद हमने खाद्यान्नों की अपनी पारंपरिक प्रजातियों को त्याग कर हाई यील्डिंग प्रजातियों को अपनाया है। इससे खाद्यान्न उत्पादन भी बढ़ा है, परंतु ये प्रजातियां पानी के संकट को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं। पर्याप्त पानी न मिलने पर इनका उत्पादन शून्यप्राय हो जाता है। तुलना में हमारी पारंपरिक प्रजातियां मौसम की मार को झेल लेती हैं, यद्यपि उत्पादन कम होता है। अपनी खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम खाद्यान्नों की पारंपरिक प्रजातियों को अपनाएं। ये पानी कम मांगती हैं। प्रश्न है कि इनकी खेती से आई उत्पादन में गिरावट की भरपाई कैसे होगी? उपाय है कि अंगूर, लाल मिर्च, मेंथा और गन्ने जैसी जल सघन फसलों पर टैक्स लगाकर इनका उत्पादन कम किया जाए अथवा केरल जैसे प्रचुर वर्षा वाले क्षेत्रों में इनकी खेती को सीमित कर दिया जाए। इन उत्पादों का आयात भी किया जा सकता है। इन फसलों का उत्पादन कम करने से पानी की बचत होगी। इस पानी का उपयोग पारंपरिक प्रजातियों से खाद्यान्न का उत्पादन करने के लिए किया जा सकता है। तब हमारी खाद्य सुरक्षा स्थापित हो सकेगी। तूफान, सूखा तथा बाढ़ के समय हमारे किसानो ंको कुछ उत्पादन मिल जाएगा और वे आत्महत्या को मजबूर नहीं होंगे। हां, अंगूर जैसी विलासिता की वस्तुएं बहुत महंगी हो जाएंगी। खाद्यान्न भी कुछ महंगे होंगे, चूकि प्रति हेक्टेयर उपज कम होगी, जबकि लागत लगभग पूर्ववत रहेगी। अपनी खाद्य सुरक्षा बनाए रखने के लिए हमें खाद्यान्नों की इस छोटी मूल्य वृद्धि को स्वीकार करना चाहिए। दूसरा विषय जल संसाधनों का है। मानसून के पानी का भंडारण जरूरी है, परंतु बड़े बांधों में भंडारण करना हानिप्रद है, चूंकि इनसे वाष्पीकरण अधिक होता है।
उपाय है कि वर्षा के जल का भंडारण भूमिगत एक्वीफरों में किया जाए। धरती के गर्भ में विशाल तालाब होते हैं, जिन्हें एक्वीफर कहा जाता है। वर्षा के पानी को ट्यूबवेलों के माध्यम से इन एक्वीकरों में डाला जा सकता है। नदियों द्वारा पहाड़ से लाए जा रहे पानी को भी डाइवर्ट करके इन ट्यूबवेलों में डाला जा सकता है। एक्वीफर में पड़े पानी का वाष्पीकरण नहीं होता है। विशेष यह कि देश भर में बाढ़ के नियंत्रण के लिए नदी किनारों पर बने सभी तटबंधों को तोड़ देना चाहिए। बाढ़ के पानी को फैलने देना चाहिए, जिससे एक्वीफर का पुनर्भरण हो। गांव ऊंचे स्थानों पर तथा मकानों को स्टिलट पर बनाना चाहिए, जिससे बाढ़ से जानमाल का नुकसान न हो। यह खुशी की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूक हैं।