वैदिक संपत्ति : सम्प्रदाय प्रवर्तन

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गीता और उपनिषदों में मिश्रण

गतांक से आगे…
इसी तरह की बात छान्दोग्य 8/ 13/1 में लिखी है कि ‘चन्द्र इव राहोर्मुखात् प्रमुच्य’अर्थात् जैसे चन्द्रमा राहु के मुख से छूट जाता है।यह दृष्टांत भी उन्हीं गैवारू बातों की चरितार्थ करता है,जो चन्द्रग्रहण के विषय में प्रचलित है। अर्थात् चन्द्रमा को राहु खा जाता है और फिर उगल देता है। ऐसी विश्वासवाले ज्योतिष और भूगोल-ज्ञान से बिल्कुल शून्य थे। पर वैदिकों में सबसे पहले ज्योतिष का ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि ज्योतिष वेद का नेत्र है। वेदों में जितना ज्योतिष का वर्णन है,उतना शायद ही किसी अन्य विषय का वर्णन होगा। पर इन ज्योतिषज्ञानशून्य असुरों को क्या खबर की ग्रहणों के होने का क्या सिद्धांत है! इसी तरह की बात बृहदारण्यक 6/3/12 में यह लिखी है। सूखा काठ हरा करने वाली वाजीकरण औषधि को अपने पुत्र या शिष्य के अतिरिक्त और किसी को न बतलाना चाहिए। ठीक है,न बतलाइये पर यह तो बतलाइये की सूखा काष्ठ हरा भी हो सकता है? हमारी समझ में तो हारा वही होगा, जिसमें कुछ भी हरापन शेष होगा और उसमें कुछ भी जान होगी। किन्तु जिसका हरापन नष्ट हो गया है, जो मर गया है,वह कदापि हरा नहीं हो सकता है।हाँ,अलबत्ता दवा के प्रलोभन से भोले आदमी फांसे जा सकते हैं और इसलिए ऐसी फंसानेवाली नवीन बातें उपनिषदों में मिश्रित की गई है।पर हमें तो यह केवल उपनिषदत्कारों के ज्ञान का नमूना दिखलाना है।हम समझते हैं कि यह सभी बातें मोह पैदा करने वाली,तर्क, विद्या, बुद्धि से कोसों दूर और प्रक्षेप करने वालों के मनोभाव और उनकी स्थिति कि यथार्थ सूचक है। हमने इन बातों को इसलिए लिखा है। कि, जिससे मिश्रण करने वालों का भ्रम पैदा करने और तर्क से घबराने का कारण विदित हो जाए और यह स्पष्ट हो जाय कि इन उपनिषदों में किसी आर्योतर जाति का हाथ रहा है।
इन बातों के अतिरिक्त उपनिषदों में वैदिक यज्ञों की निंदा है। उनसे भी उनमें मिश्रण विदित होता है। यह लीला मुण्डक उपनिषद् में अच्छी तरह दिखलाई पड़ती है। वैदिक कर्मकाण्ड का यहां पर खण्डन मिलाया गया है,वहां यह प्रकरण इस तरह से शुरू होता है कि,’काली कराली च मनोजवा च’ अर्थात् काली आदि अग्नि की साथ जीव है है इन अग्नि की सात जिव्हाएं अर्थात् है। इन अग्नि की सात रंग की जिव्याहो का वर्णन करके कहा गया है कि यह सात लिपटें नित्य हवन करने वालों को सूर्य की सात किरणों में प्रविष्ट करा देती हैं उनके द्वारा ही वह सूर्यलोक को चला जाता है और वहां से ब्रह्मलोक को जाता है। अर्थात् नित्य हवन करने वाले मोक्ष का भागी बनता है।पर इसके आगे सातवें श्लोक तक क 4 मंत्रों में यज्ञों पर विश्वास करने वालों को हजारों गालियां दी गई है। गालियां देते हुए कहा गया है कि- यज्ञ से गति मानने वालों मूढ़,अन्धे, बेवकूफ और जघन्य हैं । इसके साथ ही याज्ञिकों को बार-बार पैदा होने वाले और हीनतर योनियों में जाने वाला भी कहा गया है।इसके सिवा स्वर्ग और मोक्ष धाम में एक ऐसा भेद्र उपस्थित कर दिया गया है कि, जिससे पता ही नहीं लगता कि, प्राचीन वैदिक सिद्धांतनुसार स्वर्ग और मोक्ष का क्या रहस्य है।

उपनिषदों में स्वर्ग और सख्ती से संबंधित रखने वाले सेमिटिक सिद्धांत काम कर रहे हैं। एक तो यह कि सृष्टि के पूर्व क्षण में एक अकेला परमात्मा ही था और कुछ भी नहीं था। दूसरा यह कि स्वर्ग अलग चीज है,जहां अनेक प्रकार के संसारी सुख एक अरसे तक मिलते हैं। सेमेटिक दर्शन में जिस तरह बहिश्त और नजात में अंतर है,उसी तरह आसुर उपनिषद में स्वर्ग और मोक्ष में अंतर बताया गया है। परंतु प्रक्षेपरहित शुद्ध वैदिक उपनिषद स्वर्ग और मोक्ष में कुछ भी अंतर नहीं बतलाते। वे कहते हैं कि, सूर्य के उस पार स्वर्ग है और मोक्ष के जानेवाले सूर्यद्वार से वहां जाते,इसलिए स्वर्ग और मोक्ष दोनों एक ही पदार्थ है।इस पर भी ज्ञात होता है कि,उपनिषदों में इस प्रकार के विरोधी सिद्धांतों का मिश्रण हुआ है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
क्रमशः

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