* संजय पंकज
अंगड़ाई लेकर पंखुड़ियों की मरमराहट से मुक्त होती हुई कली जैसे ही खिलखिला कर खिली कि उतर आए गरमाहट लिए गुनगुन करते भंवरे।
तो क्या कली ने भंवरे को अपने चितवन से चकित करते हुए आमंत्रित किया ! या फिर रस के लोभी भंवरे अपनी टोह लगाती, खोज करती भटकन में ऐसे ही उड़ते उड़ते आ गए! भंवरे हैं तो मुंह मारेंगे ही, डंक से पंखुड़ियों को बिधेंगे ही। यह और बात है कि वे गुनगुन गाएंगे भी। कली को चूमने से ज्यादा चिपक कर चूसेंगे और रस ले फिर उड़ जाएंगे। निर्मम और निर्मोही भंवरे कली पर तरस नहीं खाते। कली तड़पती रहती है। अपना दर्द जैसे ही वह बाग की अन्य कलियों से बांटती है कि संवेदना से भरकर भरभराती हुई उसकी सारी सखियां वे कलियां नमी से भींगती हुई पंखुड़ी दर पंखुड़ी खुल जाती हैं। कलियों की कसक से भरी कसमसाती सुरभित किलकारियों को सुनते ही उतर आती हैं झुंड के झुंड बहुरंगी तितलियां। तितलियां शोर नहीं मचातीं, डंक नहीं
मारतीं! पुलक प्यार को परों में पिरोकर कलियों की पीड़ा को पी जाने के लिए बहुत धीरे, बहुत धीरे-से लेकिन नि:शब्द मजीरे-से बजती गुनगुनाती हुई तितलियां पंखुड़ियों के बीच उतर जाती हैं। जाने दोनों के बीच कैसी गुमसुम गुमसुम बातें हुई कि संदल-संदल हंसी कलियां और रंग-रंग थिरक उठी तितलियां! अद्भुत नूर से जगमगा उठा परिवेश, पत्ते पत्ते झूमने लगे, बिहंसने लगी डालियां, धरती की खुशियां तरंगायित होती-सी प्रतीत हुई, अंबर के शून्य में उल्लास पारे की मानिंद हर पकड़ से छूटता हुआ दिखा, आक्षितिज बाग का उजाला लहराता फैलता चला गया और दिग्दिगंत दृश्यमुग्ध होते हुए देवताओं की दुहाई देने लगे।
बहुरंग तितलियां जब उतराती हैं फूलों पर, छा जाती हैं बागों में और परों से थिरकती-मंडराती गुलजार कर देती हैं अंतरिक्ष को तो फूलों से लदा झूमता गुलशन भी एकबारगी भौंचक रह जाता है! उड़ते फूल ही तो होती हैं तितलियां! रंगों की खुशबू बिखेरती, मोहक नजारों का सुर टेरती,चीरती सन्नाटे को नि:शब्द गाती हैं तितलियां! तितलियां शोर नहीं मचाती हैं, परस्पर रार करती भी है तो बड़े ही प्यार से और वह भी फूलों को दुलराने के लिए! संभवत: उड़ते हुए एक-दूसरे से होड़ भी नहीं लेती हैं तितलियां! कुदरत की करिश्माई खूबसूरती तितलियां जिस नाजुक तथा जादुई अदा से उड़ती हुई बागों में फूलों को ललचाती ईर्ष्यालु बनाती हैं उसका कोई जवाब नहीं। लाजवाब होती हैं तितलियां! तितलियां अपने सौंदर्य को सर्वोपरि मानते हुए कभी अहंकार नहीं करती हैं मगर फूलों के अहंकार को चूर चूर कर देती हैं। रूपगर्विता स्वर्ग की अप्सराएं भी तितलियों जैसे पंखों पर सवार होकर बार-बार आती हैं धरती पर! स्वर्ग में क्या कुछ नहीं है! ऐश्वर्य और सौंदर्य का चतुर्दिक लहराता दृश्य-सागर है वहां! भोग विलास के गुरुर में नाचती हवाएं हैं वहां! रंग और गंध की लगातार धधकती आग है वहां! दृश्य, ध्वनि, गंध,गति,रास, रंग,हंसी, खुशी सब कुछ है वहां स्वर्ग में; जो नहीं है तो वह है स्पर्श! स्पर्श की आत्मीयता के लिए धरती पर आती हैं अप्सरियां! विलास के वैभव पर लाख अट्टहास करते रहें देवता लेकिन आनंद में मगन मनुष्य को जब भी देखते हैं वे तो तरस जाते हैं भाग्य पर और तड़प उठते हैं। ऐसे ही तो किसी प्रतापी मनुष्य के यश से गश खाकर कहर नहीं बरपाते हैं देवराज इंद्र! मानवीय स्पर्श के लिए स्वर्ग से भागती हैं अप्सरियां धरती पर तब भला कैसे रास आए पुष्ट मनुष्य का पुरुषार्थ दुष्ट सुरपति को। धरती के खूबसूरत फूल हैं मनुष्य कि बस मनुष्य! फूलों पर आती हैं तितलियां और मनुष्य को पाने के लिए उतरती हैं अप्सरियां!
मनमोहिनी तितलियां बेपरवाह होती हैं अपनी खूबसूरती से! भोली-भाली तितलियां नहीं जानती हैं बागों के फरेब को! फूलों पर लुट जाने वाली तितलियां मिट जाने की कभी चिंता नहीं करतीं! प्रकृति की बेटियां ये तितलियां मानवी तितलियों के दिग्भ्रमित चरित्र से बिल्कुल अनजान होती हैं। तितलियों का स्वांग रचती फैशनपरस्त भटकी स्त्रियां खुद भी लुटती हैं और लूट भी लेती हैं। सांस्कृतिक सुरभि धरती की बेटियां जब भी अपसांस्कृतिक कदम उठाती हैं लहूलुहान हो जाती है भारतीय परंपरा और मर्यादा। धरती की बेटियों को तो सीता की निष्ठा आत्मसात करनी होगी तभी भारत की गरिमा विश्व में समादृत होगी बार-बार। सौंदर्य तो सही अर्थ में सादगी और त्याग में सन्निहित होता है। सौंदर्य और त्याग की अप्रतिम प्रतिमान है सीता! चरित्र-पतन में इधर-उधर भटकती स्त्रियों को तितलियों-सी कह देना प्रकृति-पुत्रियों के साथ सरासर नाइंसाफी है। अपमान है यह तितलियों का। तितलियां तो प्रकृति की सांस्कृतिक सुरभि और नयनाभिराम आलोक हैं! मनुष्य की कल्पनाशीलता में नई उड़ान भरती तितलियां उन्हें प्रेरित करती रहती हैं फैशन की नई नई डिजाइनिंग को निर्मित करने के लिए। कितने रंग, कितने चित्र, कितनी रेखाएं, जाने क्या-क्या अद्भुत, अनुपम, अतुलनीय और अद्वितीय अंकित-टंकित होते हैं तितलियों के पंखों पर। केवल चित्र-विचित्र ही नहीं गीत-संगीत भी पंखों में समेट कर फूल-फूल पर उड़ती रहती हैं तितलियां!
अंतरिक्ष के विस्तृत पन्ने पर प्रकृति रचती है रंगों, गंधों, सुरों, ध्वनियों, किरणों, मौसमों,प्रहरों, प्रकारों की असीम कविताएं! उन्हीं कविताओं में सूरज, चांद, सितारे, लौकिक, अलौकिक सब लहालोट लोटपोट होते रहते हैं। खिलखिलाती है दिशाएं, धरती लेती है अंगड़ाइयां, अछोर शक्तियों की ज्वार उठाता है आसमान और उसी में अपनी विनम्र लघुता में प्रभुता के अनंत अस्तित्व को समेटे लोक के साथ साथ नाचती हैं तितलियां! विराट के पटल पर सूक्ष्म का यह नृत्य परमसत्ता की विभुता की झलक-झाईं भर है मगर है कमाल की! अनकही मुलायमियत होती हैं तितलियों के पंखों में! छूते ही चमकीले पराग-कण उंगलियों में उतर आते हैं! तितलियों के पंख मानों परागों से ही बने हों जैसे! छुअन तितलियों के पंखों की धंस जाती है हृदय में! बात पते की है –
‘जिस दिन से छूटी तितली की नरम नरम पंख-छुअन,
लगे रेंगने बिच्छू तब से तन-मन धड़कन धड़कन!
मानवीय करुणा और संवेदना के बचे रहने के लिए ही प्रकृति ने अनोखे और अनूठे सृजन तथा प्रावधान किए हैं। बजते हुए रंगों का नाचना क्या और कैसा होता है, कोई जी भर देखना चाहे तो देखे तितलियों को! मन नहीं अघाएगा कभी! सचमुच, रंगों की बजती है पाजेब तितलियों के पंखों पर! देखकर तितलियों को विह्वल-विकल वसंत अनंत राग चांदनी उन्मुक्त हंसी में गाता है –
रंगों का मेला सजा, कौंध गया वातास!
उड़ी तितलियां झूमकर,मुस्काया मधुमास!!
‘शुभानंदी’
नीतीश्वर मार्ग, आमगोला
मुजफ्फरपुर – 842002
मोबाइल 6200367503
ईमेल dr.sanjaypankaj@gmail.com
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