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ईसाई धर्मान्तरण: एक विश्लेषण भाग (1)

#डॉविवेकआर्य

मेरे एक मित्र ने ईसाई मत की प्रचारनीति के विषय में मुझसे पूछा। ईसाई समाज शिक्षित समाज रहा है। इसलिए वह कोई भी कार्य रणनीति के बिना नहीं करता। बड़ी सोच एवं अनुभव के आधार पर ईसाईयों ने अपनी प्रचार नीति अपनाई है। ईसाईयों के धर्मान्तरण करने की प्रक्रिया तीन चरणों में होती हैं।

प्रथम चरण Inculturation अर्थात संस्कृतीकरण
दूसरा चरण expansion अर्थात विस्तार
तृतीय चरण domination अर्थात प्रभुत्व

अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है Inculturation अर्थात संस्कृतीकरण। इस शब्द का प्रयोग ईसाई समाज में अनेक शताब्दियों से होता आया है। सदियों पहले ईसाई पादरियों ने ईसाइयत को बढ़ावा देने के लिए “संस्कृतीकरण” रूपी योजना का प्रयोग करना आरम्भ किया था। इसे हम साधारण भाषा में समझने का प्रयास करते है।

  1. प्रथम चरण में एक बाग में पहले एक बरगद का छोटा पौधा लगाया जाता है। वह अपने अस्तित्व के संघर्ष करता हुआ किसी प्रकार से अपनी रक्षा कर वृद्धि करने का प्रयास करता है। उस समय वह छोटा होने के कारण अन्य पोधों के मध्य अलग थलग सा नहीं दीखता।
  2. अगले चरण में वह पौधा एक छोटा वृक्ष बन जाता है। अब वह न केवल अन्य पौधों से अधिक मजबूत दीखता है अपितु अपने हक से अपना स्थान घेरने की क्षमता भी अर्जित कर लेता है। अन्य पौधों से खाद,सूर्य का प्रकाश, पानी और स्थान का संघर्ष करते हुए वह उन पर विजय पाने की चेष्टा करता हुआ प्रतीत होता हैं।

  3. अंतिम चरण में वह एक विशाल वृक्ष बन जाता है। उसकी छांव के नीचे आने वाले सभी पौधे संसाधनों की कमी के चलते या तो उभर नहीं पाते अथवा मृत हो जाते हैं। उसका एक छत्र राज कायम हो जाता हैं। अब वह उस बाग़ का बेताज बादशाह होता है।

ईसाई समाज में धर्मान्तरण भी इन्हीं तीन चरणों में होता है।

पहले चरण संस्कृतिकरण में एक गैर ईसाई देश में ईसाइयत के वृक्ष का बीजारोपण किया जाता है। ईसाई मत की मान्यताएं, प्रतीक, सिद्धांत, पूजा विधि आदि को छुपा कर उसके स्थान पर स्थानीय धर्म की मान्यताओं को ग्रहण कर उनके जैसा स्वरुप धारण किया जाता है। जैसे भारत के उदहारण से इसे समझने का प्रयास करते है।

  1. वेशभूषा परिवर्तन- ईसाई पादरी पंजाब क्षेत्र में सिख वेश पगड़ी बांध कर, गले में क्रोस लटका कर प्रचार करते है। हिंदी भाषी क्षेत्र में हिन्दू साधु का रूप धारण कर, गले में रुदाक्ष माला में क्रोस डालकर प्रचार करते है। दक्षिण भाषी क्षेत्र में दक्षिण भारत जैसे परिधान पहनकर प्रचार करते है।
  2. प्रार्थना के स्वरुप में परिवर्तन- पहले ॐ नम क्रिस्टाय नम। ॐ नम माता मरियमय नम। जैसे मनघड़त मन्त्रों का अविष्कार किया जाता है। फिर प्रार्थना गीत आदि लिखे जाते है जिनमें संस्कृत, हिंदी अथवा स्थानीय भाषा का उपयोग कर ईसा मसीह की स्तुति की जाती हैं। जिससे गाने पर यह केवल एक धार्मिक विधि लगे।

  3. त्योहार विधि में परिवर्तन- स्थानीय त्योहार के समान ईसाई त्योहारों जैसे गुड फ्राइडे, क्रिसमस आदि का स्वरुप बदल दिया जाता है। जिसे वह स्थानीय त्योहारों के समान दिखे। कोई गैर ईसाई इन त्योहारों में शामिल हो तो उसे अपनापन लगे।

  4. चर्च की संरचना में परिवर्तन- पंजाब में अगर चर्च बनाया जाता है गुरुद्वारा जैसा दिखे, हिंदी भाषी क्षेत्र में किसी हिन्दू मंदिर के समान दिखे, दक्षिण भारत में किसी दक्षिण भारतीय शैली जैसा दिखे। चर्च के बाहरी रूप को देखकर हर कोई यह समझे की यह कोई स्थानीय मंदिर है। ऐसा प्रयास किया जाता है।

  5. साहित्य निर्माण- क्रिस्चियन योग, ईसाई ध्यान पद्यति, ईसाई पूजा विधि, ईसाई संस्कार आदि साहित्य के शीर्षकों को प्रथम चरण में प्रकाशित करता हैं। यह स्थानीय मान्यताओं के साथ अपने आपको मिलाने का प्रयास होता है। अगले चरण में चर्च स्थानीय भाषा में दया, करुणा,एकता, समानता, ईसा मसीह के चमत्कार, प्रार्थना का फल, दीन दुखियों की सेवा करने वाला साहित्य प्रकाशित करता हैं। इस चरण का प्रयास अपनी मान्यताओं को पिछले दरवाजे से स्वीकृत करवाना होता है। यीशु मसीह को किसी हिन्दू देवता एवं मरियम को किसी हिन्दू देवी के रूप में चित्रित करना चर्च के लिए आम बात है। भोले भाले लोगों को भ्रमित करने की यह कला चर्च के संचालकों से अच्छा कोई नहीं जानता।

इस चरण में गैर ईसाई क्षेत्रों में पादरियों की बकायदा मासिक वेतन देकर नियुक्ति होती है। उनका काम दिन-दुखियों की सेवा करना, बीमारों के लिए प्रार्थना करना, चंगाई सभा करना, रविवार को प्रार्थना सभा में शामिल होने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करना होता हैं। इस समय बेहद मीठी भाषा में ईसा मसीह के लिए भेड़ों को एकत्र करना एकमात्र लक्ष्य होता है। यह कार्य स्थानीय लोगों के माध्यम घुलमिलकर किया जाता है। जिससे किसी को आपके पर शक न हो। जितने अधिक धर्म परिवर्तन का लक्ष्य पूर्ण होता है उतना अधिक अनुदान ऊपर से मिलता है। यह कार्य शांतिपूर्वक, चुपचाप, बिना शोर मचाये किया जाता हैं।इस प्रकार से प्रथम चरण में स्थानीय संस्कृति के समान अपने को ढालना होता है। इसीलिए इसे संस्कृतिकरण कहते है। हमारे देश में दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, जम्मू कश्मीर, बंगाल आदि राज्य इस चरण के अंतर्गत आते हैं। जहाँ पर चर्च बिना शोर मचाये गरीब बस्तियों में विशेष रूप से दलितों को प्रलोभन आदि देकर उनका धर्म परिवर्तन करने में लगा हुआ है।
क्रमशः

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