राजा दाहिर सेन ने देवल जैसे प्रांत का सूबेदार ज्ञानबुद्ध को बना तो दिया पर यहाँ उनसे एक चूक भी हो गई कि उन्होंने सामरिक दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण प्रान्त का सूबेदार एक ऐसे व्यक्ति को बना दिया था जो महात्मा बुद्ध की ‘अहिंसा’ में विश्वास रखता था। राजा दाहिर सेन को ज्ञान बुद्ध के संदर्भ में यह समझना चाहिए था कि वह व्यक्ति अहिंसा का पुजारी होने के कारण तलवार को खूंटी पर टांग चुका था या ऐसा भी कह सकते हैं कि उसके तेजस्वी राष्ट्रवादी क्षत्रिय विचारों में उस समय अहिंसा की जंग लग चुकी थी। जिससे वह कायर, कमजोर और देश के प्रति गद्दारी के भावों से भी भर गया था। क्योंकि उसके दृष्टिकोण में महात्मा बुध और उनकी अहिंसा प्रथम पूजनीय हो गई थी।
अहिंसा वैरी बन गयी देश किया बर्बाद ।
ज्ञान बुद्ध दुश्मन बना शत्रु किया आबाद।।
महात्मा बुद्ध से प्रभावित ज्ञानबुद्ध हिंसा करने को पाप समझता था। फिर चाहे ऐसी हिंसा देश, धर्म व संस्कृति के भक्षक किसी विदेशी हमलावर के विरुद्ध ही क्यों ना हो? समझो कि ऐसे विचारों से वह है एक पैर से लंगड़ा हो चुका था और लंगड़े कभी युद्ध नहीं लड़ा करते। कहा भी गया है कि छोटी सोच और पैर की मोच आगे नहीं बढ़ने देती है। ज्ञानबुद्ध उस समय छोटी सोच और पैर की मोच – दोनों से ही ग्रसित था। लंगडी मानसिकता कभी युद्ध में पूर्ण मनोयोग से नहीं करने देती है। जो व्यक्ति ऐसी सोच के शिकार हो जाते हैं वह कभी युद्ध जीता भी नहीं करते हैं। इतना ही नहीं, यदि उनका वश चले तो वे उल्टा पाशा भी पलट सकते हैं अर्थात देश के साथ गद्दारी भी कर सकते हैं । समय आने पर ज्ञान बुद्ध ने ऐसा ही किया।
ऐसे में राजा दाहिर की दोनों बेटियां जितना पुरुषार्थ और उद्यम करके देशभक्ति का माहौल बनाने में सफल होती जा रही थीं, उस पर देवल प्रान्त के सूबेदार ज्ञानबुद्ध की अहिंसा की सोच उतना ही तुषारापात भी कर रही थी। उस क्षेत्र में जितने लोग बौद्ध धर्म को अपना चुके थे वे सारे के सारे मानसिक रूप से लंगड़े हो चुके थे । उनकी लंगडी मानसिकता पर दोनों राजकुमारियों के उद्बोधन, संबोधन और प्रोत्साहन का किसी प्रकार का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ रहा था । उनके लिए आने वाला शत्रु भी एक मानव था और उसके प्रति दयालुता और सहिष्णुता दिखाना उनके लिए सबसे बड़ी बात थी। बस, यही सोच भारत के पतन का कारण बनी।
जब ज्ञानबुद्ध ने की गद्दारी
जब ज्ञान बुद्ध को अरबी आक्रमण का समाचार प्राप्त हुआ तो कहते हैं कि वह अत्यन्त उदास हो गया था । वह एक ऐसे अंतर्द्वंद में फंस गया था जिसमें उसका राष्ट्रधर्म उससे शत्रु का सामना करने के लिए कहता था ,जबकि उसका अपना बौद्धमत उसे अहिंसावादी बने रहकर शत्रु के सामने हथियार फेंकने की प्रेरणा दे रहा था। इसके अतिरिक्त उसके भीतर अब एक दूसरा राक्षस भी आ घुसा था जो उसे देश और अपने राजा के प्रति गद्दारी करने के लिए प्रेरित कर रहा था। भीतर ही भीतर वह अपने राजा से दूर हो चुका था और विदेशियों के निकट संपर्क में आकर ऐसी घातक योजनाओं पर विचार कर रहा था जो देश के लिए बहुत हानिकारक होने वाली थीं।
यह एक सर्वमान्य सत्य है कि जब कोई योद्धा अंतर्द्वंद में फंस जाता है तो उसकी शक्ति का ह्रास होता है, जिसकी सबसे अधिक क्षति राष्ट्र को उठानी पड़ती है। बौद्ध धर्म के अनुयायी ज्ञानबुद्ध के इस अंतर्द्वंद का प्रभाव भी देश के मनोबल पर पड़ रहा था। ज्ञान बुध के एक ओर कुआं खुद गया था तो दूसरी ओर खाई बन गई थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि कुआं में गिरे या फिर खाई की ओर अपना कदम बढ़ाए। यद्यपि इस अंतर्द्वंद के बीच वह अपना मार्ग खोज चुका था और अब उसने मन बना लिया था कि वह अपने देश और अपने राजा के विरुद्ध जाकर अपने निहित स्वार्थ में काम करेगा।
अपने धर्म गुरु से लिया उपदेश
फिर भी ज्ञानबुद्ध ने अपनी इस अंतर्द्वंद की समस्या का समाधान खोजने के लिए ज्ञानबुद्ध ने अपने धर्म गुरु से इस सम्बन्ध में आवश्यक सन्देश और उपदेश लेने का निर्णय लिया । उसने अपने धर्म गुरु को पहले यही समझाने का प्रयास किया कि उसके द्वारा विदेशी आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम के विरुद्ध युद्ध करना बौद्ध धर्म के नियमों के प्रतिकूल होगा। वह नहीं चाहता कि बौद्ध धर्म की अहिंसावादी नीति का परित्याग कर वह शत्रु के विरुद्ध लड़ाई लड़कर रक्तपात करे। उसने युद्ध न करने के अनेकों तर्क अपने गुरु को दिए । जिससे उसे युद्ध न करके शत्रु पक्ष में मिलने का मार्ग मिल सके।
गुरु संन्यासी सागरदत्त ने उसकी भावनाओं का सम्मान न करते हुए उसे न्यायसंगत, तर्कसंगत और धर्मसंगत मार्ग सुझाने का वैसे ही प्रयास किया जैसे कभी श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को महाभारत के युद्ध क्षेत्र में उपदेश देते हुए किया था। गुरुदेव ने पथभ्रष्ट और ज्ञान भ्रष्ट हुए ज्ञान बुद्ध को नीति संगत उपदेश देते हुए कहा कि आपदा की इस घड़ी में उसे देश और अपने राजा के साथ रहना चाहिए। उसे कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहिए जिससे देश और राजा को अपयश का भागी होना पड़े। गुरु सागर दत्त ने ज्ञानभ्रष्ट ज्ञानबुद्ध को यह भी बता दिया कि यदि वह ऐसा करेगा तो निश्चय ही पाप का भागी होगा और देश का इतिहास उसे कभी भी क्षमा नहीं कर सकेगा।
गुरु ने सच समझा दिया देश घात है पाप ।
देशहित हिंसा करो कुछ नहीं लगता पाप।।
यह अलग बात है कि आज के ‘अर्जुन’ पर अपने गुरु सागरदत्त की शिक्षाओं का तनिक भी प्रभाव नहीं हुआ और वह भीरू होकर युद्ध से भागने पर अड़ा रहा। जब सिद्धांतों की हत्या होती है तो फिर ऐसे ही ‘ज्ञानबुद्ध’ पैदा हो जाया करते हैं जो ‘ज्ञान’ और ‘बुध’ होकर भी ‘अज्ञानी’ और ‘बुद्धू’ रह जाते है। , भारतीय संस्कृति को ऐसे ज्ञानबुद्ध ‘अज्ञानी’ और ‘बुद्धुओं’ ने बहुत अधिक क्षति पहुंचाई है। यह ऐसे लोग होते हैं जो बहुत कम जानकर सब कुछ जान लेने का दावा करते हैं। वास्तव में अज्ञान -अंधकार में भटकने वाले ऐसे लोगों से ही अधिक हानि की संभावना रहती है, क्योंकि यह सहज रूप में सही रास्ते को अपनाने के लिए तैयार नहीं होते। पथभ्रष्ट , धर्मभ्रष्ट सुर बुद्धि भ्रष्ट हुए ज्ञान बुद्ध ने देश और राजा के विरुद्ध जाने का निर्णय ले लिया था।
गुरु सागर दत्त की एक न मानी
ज्ञानबुद्ध को उनके गुरु सागरदत्त ने समझाने का प्रयास किया कि बौद्ध धर्म जहाँ दया करना , उदारता और प्रेम जैसे गुणों का प्रचारक प्रसारक है, वहीं वह ऐसे शत्रुओं का संहार करने की भी अनुमति देता है जो धर्म, संस्कृति और देश की एकता और अखण्डता के शत्रु हैं। बुद्ध ने विश्व बंधुत्व का उपदेश तो दिया है पर इसका भी अभिप्राय यह नहीं है कि वह विश्व बंधुत्व की भावना के शत्रु लोगों के संहार की भी अनुमति नहीं देते।
सागर दत्त ने अपने उपदेश को जारी रखते हुए ज्ञान बुद्ध को यह भी समझाने का प्रयास किया कि अरब आक्रमणकारियों और उनके निर्दयी सैनिकों ने मकराना प्रान्त में आकर बौद्ध मठों को भी समाप्त कर दिया है। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये विदेशी आक्रमणकारी बौद्ध धर्मावलम्बियों को भी समाप्त करने का उद्देश्य लेकर यहाँ आए हैं। ऐसे लोगों के बारे में यदि ज्ञानबुद्ध यह भ्रांति पाल रहा है कि ये विदेशी आक्रमणकारी उसके मत को मानने वाले लोगों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे तो वह गलत सोच रहा है। गुरु सागर दत्त ने कहा कि इन विदेशी आक्रमणकारियों के लिए जो भी कोई व्यक्ति इनके मत से विपरीत विचार रखता है ,वही काफिर है। इसलिए बौद्ध धर्मावलंबियों को भी वे अपने शासन में यह अधिकार नहीं देंगे जो एक न्याय प्रिय शासक के शासन में सभी लोगों को सहज रूप में उपलब्ध होते हैं।
ऐसे में यह बात साफ हो जाती है कि यदि अरब आक्रमणकारी भारत में अपने उद्देश्य में सफल होते हैं तो यहाँ से बौद्ध धर्मावलंबियों को भी अपने विनाश के लिए तैयार रहना चाहिए। अब अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तलवार उठाना और इन विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करना ही एकमात्र रास्ता है। राजा दाहिरसेन यदि इस समय देश धर्म की रक्षा के लिए कार्य कर रहे हैं और इन विदेशी आक्रमणकारियों का सामना कर इन्हें भगाने और मारने के प्रति संकल्पित हैं तो उनके साथ लगकर काम करना समय की आवश्यकता है।
विदेशी हमलावरों से की गुप्त संधि
बौद्ध धर्म की अहिंसा से ज्ञानबुद्ध पूर्णत: नपुंसक बन चुका था। वह इस समय अपने राष्ट्र धर्म को भूल चुका था । इतना ही नहीं, अब उसके भीतर राष्ट्र के प्रति गद्दारी का भाव भी जन्म ले चुका था। अब उसे अपने देश की कोई चिन्ता नहीं थी। गद्दारी के भाव उसे पूर्णतया कायर बना चुके थे। देश के प्रति वफादारी के स्थान पर उसने गद्दारी को और तलवार उठाने के स्थान पर पलायन को प्राथमिकता दी। जब किसी व्यक्ति के भीतर वफादारी के स्थान पर गद्दारी और तलवार के स्थान पर पलायन के भाव जन्म ले लेते हैं तो वह अनैतिकता के किसी भी स्तर तक गिर सकता है। अब ज्ञान बुद्ध नैतिक पतन के रास्ते पर बढ़ चुका था। फलस्वरूप उसने अपने मंत्री मोक्षवासव से समझौता करके खलीफा से सिन्ध के देवल और अलोर की राजगद्दी के बदले में उन्हें अपनी सहायता देने का सन्देश भेजा।
ज्ञान बुद्ध बुद्धि भ्रष्ट था, पूरा था गद्दार।
नीच कर्म को देखकर देश हुआ शर्मसार।।
ज्ञानबुद्ध अपने देश के साथ बहुत बड़ी गद्दारी कर चुका था। जब विदेशी आक्रमणकारियों के शिविर में ज्ञानबुद्ध के इस गद्दारी भरे समाचार का सन्देश पहुँचा तो वहाँ पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वास्तव में जिस ‘सोने की चिड़िया’ भारत को अभी तक खरोंच तक मारने का साहस कोई विदेशी नहीं कर पाया था उसे अब लूटने का एक सही मार्ग बनता हुआ विदेशी आक्रमणकारियों को दिखाई देने लगा। भारत के मजबूत किले को तोड़ने की एक बहुत बड़ी आशा की किरण उन्हें चमकती हुई दिखाई दी । उन्हें लगा कि ऐसे विश्वासघाती ज्ञानबुद्धों के कारण वह शीघ्र ही अपने भारत आने के उद्देश्य में सफल हो जाएंगे। अभी तक किसी भी खलीफा या उसके सेनापति को भारत में कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं हुई थी। पर अब पहली बार ऐसा लगने लगा था कि इस बार विदेशी आक्रमणकारी भारत से कुछ ना कुछ करके ही लौटेगा।
ज्ञानबुद्ध के इस प्रकार के प्रस्ताव से प्रेरित और उत्साहित होकर शत्रु पक्ष ने अपना सन्देश अपने स्वामी खलीफा और हज्जाज के पास भी भेज दिया। जिससे उनके अपने मूल देश में भी खुशी की लहर दौड़ गई। देश के लिए घातक बना ज्ञानबुद्ध इस समय अपने भविष्य के स्वर्णिम सपनों में खोया हुआ था। उसे लग रहा था कि विदेशी आक्रमणकारी तो यहाँ से माल लूट कर चले जाएंगे, पर उसके पश्चात वह एक बड़े साम्राज्य का मालिक होगा। नए-नए सपने उसे सोने नहीं दे रहे थे। यद्यपि राजा दाहिर सेन अभी अपने इस तथाकथित ज्ञानबुद्ध के अज्ञान और बुद्धूपन से पूर्णतया अपरिचित थे। उन्हें नहीं पता था कि वैचारिक और मानसिक रूप से कमजोर ज्ञान बुद्ध उनके विरुद्ध कैसी नीचतापूर्ण हरकतों में लगा हुआ है ? और राष्ट्र को विनष्ट करने के मार्ग पर आगे बढ़ चुका है।
वो मुल्क कभी तरक्की नहीं कर सकता….
ज्ञानबुद्ध जैसे गद्दारों के बारे में कवि की पंक्ति बड़ी सार्थक हैं :—
“जहाँ गद्दारी के फैले जाल होते हैं,
वहाँ हुनरमंदों के सपने बेहाल होते हैं,
वो मुल्क़ कभी तरक्की नहीं कर सकता,
जहाँ के वज़ीर ही दलाल होते हैं।”
यद्यपि हमने वीरता के इतिहास लिखने में भी कोई किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। पर हमारे वीरता और शौर्य को ज्ञानबुद्ध जैसे गद्दारों ने समय-समय पर बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है। यदि इतिहास में गद्दारों की यह परम्परा नहीं होती तो निश्चित रूप से भारत का आज का इतिहास कुछ दूसरा होता। बाद की घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि ज्ञानबुद्ध ने राजा दाहिर सेन के पतन में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। यदि वह गद्दारी ना करके देश के प्रति वफादार रहता और राजा दाहिर सेन का साथ देता तो शत्रु भारत में कभी सफल नहीं होता। इसी गद्दार ज्ञान बुद्ध ने राजा और उसकी दोनों बेटियों के उस अभियान की हवा निकाल दी जो उन्होंने घर-घर व गांव – गांव जा जाकर चलाया था और लोगों में देशभक्ति का भाव पैदा करके देश पर मर मिटने के लिए उन्हें तैयार किया था।
हमने दुनिया की पुस्तक में
सत्य,अहिंसा बोल लिखा,
लेकिन जब तलवार उठाई,
दुनिया का भूगोल लिखा,
हिमशिखरों का सिर हम तक
आते ही झुक जाता है,
सागर की लहरों का गर्जन
हमसे मिल रुक जाता है,
हम राम-कृष्ण के धामों वाली
पुण्य धरा के वासी हैं,
हम भगत सिंह के वंशज ,
जय भारत के अभिलाषी हैं,
लेकिन जब-जब इस धरती पर
देश विरोधी नारे हैं,
तब लगता है अपने घर में
जयचंदों से हारे हैं ll
कुल मिलाकर इस समय जहां राजा दाहिर सेन की दोनों बेटियां ,उनके परिजन व अन्य शासकीय अधिकारी बड़े स्तर पर देश में देशभक्ति का भाव पैदा करने में लगे हुए थे और देश के प्रति वफादारी सिखा कर लोगों को देश, धर्म व संस्कृति पर मर मिटने की सीख दे रहे थे, वहीं ज्ञानबुद्ध जैसे लोग देश के प्रति गद्दारी से भरे हुए थे। वफादारी और गद्दारी के इस संगम ने निश्चित रूप से देश के मनोबल को तोड़ने में सहायता दी।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
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मुख्य संपादक, उगता भारत