कप का दूध ख़त्म होने लगा तो हमने आदत के मुताबिक कप को हिलाकर तली में बचे चीनी के दानों को मिला लेने की कोशिश की थी। इसके वाबजूद जब कप खाली हुआ तो हमने देखा नीचे कुछ दाने अब भी पूरी तरह घुले बिना, बचे रह गए हैं। कोई बड़ी बात नहीं थी। हमने वहीँ पड़ी पानी की बोतल उठाई थोड़ा सा पानी कप में डाला और घोलकर उसे पी गए। कुछ लोगों को ऐसी आदत अजीब लग सकती है। हम भी ऐसा हर रोज नहीं करते। जबतक हम कप सिंक में रखने जाते, तबतक हमें याद भी आ गया कि ये हरकत किसकी थी। ऐसा हमारे दादाजी किया करते थे। उन्हें गुजरे अब कई साल हो चुके हैं।
उनकी ये आदतें हम में, देखकर सीख जाने की वजह से आई होती तो शायद हम ऐसा हर रोज करते। शायद ये अनुवांशिकी का मामला है। डीएनए के साथ कई पीढ़ी पहले के लोग हम में कहीं न कहीं मौजूद रहते हैं। ऐसा मेरे साथ ही नहीं होता, सबके साथ थोड़ा-बहुत होता होगा। साधारण सी घटना है तो हमलोग ध्यान नहीं देते ऐसी बातों पर। कभी घर के और सदस्यों को नजर आ भी जाये तो मुस्कुराकर उस सदस्य को याद किया जाता है, जिनकी आदत नजर आई, और फिर बात आई गयी हो जाती है। इसे अगर भगवद्गीता के हिसाब से देखें तो जब श्री कृष्ण कहते हैं –
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12
यानी कि मैं किसी बीते हुए काल में नहीं था या तुम नहीं थे अथवा ये राजालोग नहीं थे ऐसा नहीं है, और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। पूरा पूरा न सही, लेकिन आपकी आदतों में, आपके बर्ताव में, आपकी पसंद-नापसंद में, तौर-तरीकों या दुनियां को देखने-समझने के आपके नजरिये में पीढ़ियों पहले के लोग आपके साथ ही हैं। ऐसे ही कई पीढ़ियों बाद आप भी मौजूद रहने वाले हैं। इस तरीके से देखा जाए तो कहा जा सकता है –
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13
जैसे बचपन, जवानी और बुढ़ापे में शरीर का स्वरुप बदलता है, वैसे ही मृत्यु पर शरीर का न रहना भी बच्चे के युवा होने जैसी, एक घटना मात्र है।
अब जरा इसी घटना को जरा दूसरे तरीके से सोचिये। वर्षों पहले जब दादाजी की मृत्यु हुई थी और परिवार के लोग व्यथित थे, उस समय कोई मेरे पास आता और “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।“ सुनाने लगता तो क्या होता? अभी तो हम बड़ी आसानी से भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का तेईसवाँ श्लोक पहचान लेंगे। उस समय अगर किसी ने सुनाया होता तो हम सोचते “ये गधा यहाँ से भाग क्यों नहीं जाता?” (हो सकता है कि आगे और पीछे दो चार गालियाँ भी जोड़ी होती)। ऐसी सलाह देने या भगवद्गीता सुनाने का ये सही समय नहीं होता।
इस कोरोना काल में कई अपरिचित लोग भी हमसे बात करने केवल इस आशा में आ जाते हैं कि हम भगवद्गीता पर लिख रहे होते हैं। आप हमसे उत्तरों की अपेक्षा रखें तो इसमें कई समस्याएँ हैं। पहली समस्या तो यही है कि जब मन शांत न हो तो आपपर प्रवचन का कोई असर नहीं होगा। प्रवचन देने पर हो सकता है आप और भड़कें, हमें गालियाँ भी दें। दूसरी समस्या ये है कि हम कोई साधू-सन्यासी भी नहीं हैं। आप अपने हिसाब से जितने अपराध-पाप सोच सकते हैं, करीब-करीब सभी में लिप्त रहने का अभियोग हमपर आ जायेगा। इसलिए भी हम ऐसी स्थितियों में कुछ बताने के उचित अधिकारी नहीं हैं।
सबसे अंतिम वजह समझनी हो तो दसवें अध्याय का बीसवाँ श्लोक देखिये –
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।10.20
यहाँ श्री कृष्ण कह रहे होते हैं कि सभी के आदि, मध्य और अंत में मैं ही हूँ। यानी आपकी समस्या का निदान हमने कहीं नहीं छुपा रखा। वो मेरे पास नहीं, आपके अन्दर ही है। उसे मेरे पास नहीं, अपने अन्दर ढूंढ लेना सबसे आसान होगा।
बाकी के लिए किसी अंग्रेजी जुमले में कहा जाता था, समय को थोड़ा समय दीजिये, समय सब ठीक कर देता है। हम जो भी सिखा डालें वो सब नर्सरी स्तर का (बचकाना) है, आपको पीएचडी करनी है (जानकारी के प्रयोग लायक बनना है) तो आपको स्वयं ही पढ़ना होगा, ये याद रखिये।
जेस्स लिवरमोर जिस दौर के थे, उस दौर में ज्यादातर लोगों ने स्टॉक मार्केट का नाम भी नहीं सुना था। जब तक 1877 में जन्मे लिवरमोर तीस वर्ष के होते, वो स्टॉक मार्केट में अपनी मजबूत जगह बना चुके थे। करीब पचास वर्ष के होते-होते जेस्स लिवरमोर पूरी दुनिया में विख्यात थे और सबसे अमीर निवेशकों में से एक थे। तभी 1929 का “ग्रेट डिप्रेशन” आया। इस वर्ष के अक्टूबर के एक ही सप्ताह में स्टॉक मार्केट के करीब एक तिहाई स्टॉक साफ़ हो गए। इसके तीन दिनों को तो बाद में “ब्लैक मंडे”, “ब्लैक ट्यूसडे” और “ब्लैक थर्सडे” कहा जाने लगा।
इस दौर में जब लिवरमोर घर लौटते तो उनकी पत्नी और बच्चे पहले से ही स्टॉक मार्केट के निवेशकों की मौत से डरे हुए होते। जब वो 29 अक्टूबर को लौटे तो उनकी पत्नी और सास तो रोने ही लगी! थोड़ा समझाने बुझाने के बाद लिवरमोर ने सबको बताया कि जिस दिन लोग अपनी सारी पूँजी गँवा बैठे थे, उसी दिन उसने शेयर बाजार से 3 बिलियन डॉलर से ज्यादा की कमाई की है! जब ये लिवरमोर अमीर हो रहे थे तो जमीन वैगेरह के कारोबारी अब्राहम जर्मनस्की पर इसका ठीक उल्टा असर हुआ था। उनके बारे में 26 अक्टूबर 1929 को छपा था।
न्यू यॉर्क टाइम्स ने अब्राहम के बारे में लिखा था कि करीब पचास वर्ष के जर्मनस्की लापता हो गए हैं। उनकी पत्नी के मुताबिक जब उन्हें आखरी बार देखा गया तो वो वाल स्ट्रीट के स्टॉक एक्सचेंज के पास टिकर के टुकड़े टुकड़े कर रहे थे। उन्होंने संभवतः आत्महत्या कर ली थी। जिस लिवरमोर की हमलोग पहले बात कर रहे थे, उनका जिक्र “द साइकोलॉजी ऑफ़ मनी” में दोबारा अगले ही पैराग्राफ में आता है। वो 1929 का “ग्रेट डिप्रेशन” तो झेल गए मगर इससे वो घमंडी और अहंकार में डूब गए। वो और बड़े दाँव लगाने लगे, अधिक कर्ज लेने लगे।
अंततः उनकी कहानी 1933 में ख़त्म हुई। पहले तो वो एक-दो दिनों के लिए लापता हो गए। वो उस समय वापस लौट आये, लेकिन फिर बाद में जेस्स लिवरमोर ने अवसाद में, पैसे खोकर, शर्मिंदगी की वजह से आत्महत्या कर ली।
आपको पहले ही अंदाजा होगा कि हम इस कहानी के धोखे से भी फिर से भगवद्गीता पढ़ा चुके हैं। इस बार जो पढ़ाया है, वो आप हमारी कोशिश के बिना ही कई बार पढ़ चुके हैं। ना चाहते हुए भी जिन्हें पढ़ना आता है, उन्होंने “योगक्षेमं वहाम्यहम्” तो एलआईसी (भारतीय जीवन बीमा निगम) के बोर्ड पर लिखा हुआ पढ़ा होगा। ये भगवद्गीता के नौवें अध्याय के बाईसवें श्लोक से आता है –
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22
यहाँ श्री कृष्ण कहते हैं, अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्त मेरी उपासना करते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। यहाँ योगक्षेम महत्वपूर्ण है, योग का अर्थ है अप्राप्त की प्राप्ति और क्षेम का अर्थ है प्राप्त की रक्षा। इसे समझने के लिए धन से जुड़ी कहानी इसलिए चुनी है क्योंकि धन की प्राप्ति के लिए सभी प्रयास करते हैं। योग का एक अर्थ जोड़ना भी होता है, लोग पैसे “जोड़ते” हैं। बचत के जरिये (और उसपर चक्रवृद्धि ब्याज के जरिये) कैसे अधिक धन जोड़ा जा सके इसका प्रयास लोग करते हैं। बीमा जैसी व्यवस्था होती ही इसी लिए है कि अगर कहीं किसी आपदा के कारण और जोड़ने में बाधा आये, तो उसे बीमा पूरा कर दे।
जो पैसे जोड़ लिए गए, उनसे जो मकान इत्यादि बना हो, वो आग, भूकंप या युद्ध जैसी आपदाओं में समाप्त न हो जाये इसलिए बीमा करवाया जाता है। इसी वजह से कभी भारतीय बीमा ने अपना टैगलाइन भगवद्गीता से लिया होगा। सफलता, प्रसिद्धि इत्यादि पाने में ही काफी कठिनाई होती है। कई प्रयासों से जब वो मिल भी जाती है, तो उसे सहेज कर रख पाना बहुत कठिन होता है। पहले तक तो इसके लिए कहीं दूर के फ़िल्मी कलाकारों का नशे का आदि और फिर आत्महत्या इत्यादि करने जैसा उदाहरण लेना पड़ता। इस वर्ष तो बड़ी आसानी से “योग” में सफल और फिर “क्षेम” में असफल होने के लिए ओलम्पिक में खेल चुके पहलवान सुशील कुमार का उदाहरण दिया जा सकता है।
इसके अगले ही श्लोक में भगवान बताते हैं कि जो दूसरे (छोटे-मोटे देवताओं) का पूजन करते हैं, वो भी असल में मेरा ही पूजन कर रहे होते हैं, लेकिन अविधि पूर्वक! इसे आप सातवें अध्याय के बीसवें श्लोक में देख सकते हैं। वहाँ बताया गया है कि किसी कामना के कारण जिनका ज्ञान हर लिया गया है वो दूसरे छोटे-मोटे देवों की शरण लेते हैं। जन्नत की हूरों या किन्हीं शराब की नदियों की तमन्ना में लोग ऐसा कर सकते हैं। कर्मों का फल समाप्त होने पर फिर से जन्म लेना पड़ेगा, इसलिए ऐसे छोटे-मोटे पंथों के चक्कर में मिलने वाले फल अंत होने वाले होते हैं। थोड़ा ही आगे ‘अन्तवत्तु फलं तेषाम्’ (भगवद्गीता 7.23) यानी नाशवान फल मिलेगा, ऐसा भी कहा गया है।
बाकी आपको थोड़े समय में नष्ट हो जाने वाले फल चाहिए, या स्थायी मोक्ष और जीवन-मरण से मुक्ति जैसे फल चाहिए ये आपको सोचना है। ये जो एक शब्द – योगक्षेम के बारे में बताया, वो नर्सरी स्तर का है, और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा।
बरसों की कमाई प्रतिष्ठा अगर धूल में मिल जाए तो क्या होगा? नौकरी जाने, या आर्थिक बदहाली, युद्ध की वजह से घर-देश छोड़ने जैसी स्थिति भी आ जाए तो मनुष्य दोबारा बिलकुल शुरू से जीवन को आरंभ करने की हिम्मत दिखा सकता है। पाकिस्तान से आये कई विस्थापितों ने ऐसा किया भी है, लेकिन प्रतिष्ठा का जाना बिलकुल अलग मसला होता है। जैसा कि कई संपादकों के मामले में देखा भी गया है, अक्सर ऐसी स्थिति में लोग आत्महत्या कर लेते हैं। कुछ बेशर्म से होते हैं, वो “मी टू” का इल्जाम भी सीने पर बैच की तरह लगाए घूमते हैं। स्वीडिश लेखक स्टीग लार्सन के 2005 में आये उपन्यास “द गर्ल विथ ए ड्रैगन टैटू” की कहानी एक ऐसे ही संपादक-पत्रकार के इर्द गिर्द घूमती है। इसी उपन्यास पर इसी नाम से एक अंग्रेजी फिल्म भी बनी थी।
फिल्म की शुरुआत में ही मिकैल पर एक बड़े व्यापारी एरिक ने मुकदमा कर दिया था। मुक़दमे में हारने के कारण मिकैल की व्यावसायिक प्रतिष्ठा तो गयी ही उसकी प्रेमिका एरिका से भी उसके सम्बन्ध बिगड़ गए। इस वक्त एक लिस्बेथ नाम की कम उम्र की हैकर उसके खिलाफ सबूत भी जुटा रही थी। तभी एक दूसरा अमीर आदमी हेनरिक एक चालीस साल पुराने मामले के लिए मिकैल से मिलता है। वो अपनी पोती के लापता होने के मामले की जांच के बदले वो मिकैल को एरिक के खिलाफ सबूत देने को तैयार था। मिकैल अपनी प्रतिष्ठा वापस पाने के लिए लिस्बेथ के साथ मिलकर मामले की जांच के लिए तैयार हो जाता है। वो खोजबीन के लिए हेनरिक के एस्टेट पर रहने लगता है जहाँ मार्टिन नाम का व्यक्ति एस्टेट की देखभाल करता था।
इस लड़की लिस्बेथ की अपनी कहानी होती है। वो अनाथ थी और उसके पुराने संरक्षक की मृत्यु के बाद उसकी देखभाल की जिम्मेदारी जिसे मिलती है वो बलात्कारी था। पैसों के बदले वो लिस्बेथ का यौन शोषण कर रहा था। एक दिन लिस्बेथ टेज़र (बिजली का बेहोश करने वाला यंत्र जो विदेशी फिल्मों में पुलिस को इस्तेमाल करते देखा होगा) लिए पहुँचती है। बलात्कारी को बेहोश करके वो पहले तो उसके साथ वही सब करती है, फिर उसके बदन पर “मैं एक बलात्कारी सूअर हूँ” का टैटू भी बना डालती है। ब्लैकमेलिंग के जरिये उससे छूटने के बाद लिस्बेथ अब हैकर और जासूस के तौर पर काम कर रही थी।
मिकैल को खोजबीन में हेनरिक के परिवार के बारे में अजीब चीज़ें मालूम पड़ने लगती हैं। उसके परिवार में कुछ नाज़ी समर्थक थे। एक दिन उसे नाम और फोन नंबर की एक लिस्ट भी मिलती है जिसमें असल में बाइबिल के सन्दर्भ कोड में छुपे थे। इसकी जांच पर पता चलता है कि 1947 से 1967 के बीच हुए कई क़त्ल के राज इस लिस्ट में छुपे हैं। मिकैल की हत्या की कोशिश भी होती है और उसे मार्टिन पर शक होने लगता है।
वो जब चोरी छिपे मार्टिन के घर में घुसता है तो मार्टिन, मिकैल को पकड़ लेता है। बंधे हुए मिकैल के सामने मार्टिन डींगे मारता है कि कैसे उसने और उससे पहले उसके पिता ने लड़कियों का बलात्कार और हत्याएं की थी। मगर उसने भी हेरिएट नाम की उस लड़की को नहीं मारा था जिसकी तलाश में मिकैल वहां आया था। तभी वहां लिस्बेथ पहुँच जाती है और मिकैल को छुड़ा लेती है। भाग-दौड़ में मार्टिन मारा भी जाता है। लिस्बेथ और मिकैल तय करते हैं कि हेरिएट मरी नहीं बल्कि कहीं भागकर छुप गयी है। वो लोग और कोशिश करते हैं और आख़िरकार लन्दन में फर्जी नाम से रह रही, हेरिएट को ढूंढ निकालते हैं।
थ्रिलर जैसी इस फिल्म की कहानी इतने पर ही ख़त्म हो जाती हो ऐसा भी नहीं है। इसके आगे भी कहानी में नए मोड़ आते रहते हैं। हम कहानी को यहीं दो वजहों से रोक देंगे। एक तो ये कि जासूसी और थ्रिलर जैसी फिल्मों में आखिर में खलनायक कौन था जैसे राज खोलने नहीं चाहिए। दूसरा ये कि हमेशा की तरह हमें फिल्म की कहानी के धोखे से भगवद्गीता पढ़ानी थी। इस फिल्म में सबसे पहले तो ध्यान देने लायक है लिस्बेथ की कहानी। वो अपना शोषण करने वाले के साथ वही सब, या कहिये कि उससे ज्यादा ही कर डालती है। कई क्यूट किस्म के लोग जो अक्सर ये सवाल करते हैं कि अगर हम भी वही सब करने लगे तो उनमें और हममे फर्क क्या रह जाएगा जी? फिर तो हम भी उनके जैसे ही हो जायेंगे जी! हम तो समझदार हैं, उनके जैसी नासमझी हमें नहीं करनी चाहिए जी!
बिलकुल यही मासूम सा सवाल भगवद्गीता के पहले ही अध्याय में अर्जुन भी करता दिख जाता है:
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39
लोभ से भ्रष्टचित्त हुये ये लोग कुलनाशकृत दोष और मित्र द्रोह में पाप नहीं देखते हैं, परन्तु, हे जनार्दन! कुलक्षय से होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से विरत होने के लिए क्यों नहीं सोचना चाहिये ।
यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि ये लोग तो लालच के कारण कुल और मित्रों को मारने में कोई पाप नहीं समझते लेकिन हमें तो इनका पता है इसलिए बताइये जनार्दन, हमें इस बारे में सोचना चैये, की नई सोचन चैये? बताइये-बताइये, सोचना चैये, की नई सोचन चैये?
जब अर्जुन अपना लम्बा सा मासूम हिन्दुओं वाला सवाल पूरा पूछ चुका होता है (उन सभी तर्कों के साथ जो मासूम हिन्दुओं को इस्तेमाल करते आपने देखा होगा) तो आगे दूसरे अध्याय में श्री कृष्ण जवाब देना शुरू करते हैं:
श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2
भगवान कह रहे हैं कि जिससे ना परलोक में कुछ मिलने वाला है, ना ही इस लोक में, वैसी मूर्खता तुम्हें इस समय सूझी कैसे? कभी-कभी जो मासूम हिन्दू पूछते हैं कि क्या भगवद्गीता गुस्से में सुनाई गयी थी? तो इससे आगे के श्लोकों में भगवान अर्जुन को करीब-करीब गाली दे रहे होते हैं। कड़े शब्दों का प्रयोग गुस्से में किया जाता है या नहीं, ये खुद तय कर लीजियेगा। आगे दूसरे अध्याय में ही ग्यारहवें श्लोक में भगवान कहते हैं कि हरकतें तो मूर्खों वाली कर रहे हो और बातें पंडितों सी! यहाँ भगवद्गीता 3.6 भी गौर करने लायक है। लिस्बेथ अगर अपने शोषण करने वाले से बदला लेने का मन ही मन सोचती रहती लेकिन शारीरिक रूप से कुछ नहीं करती तो भी वो मिथ्याचार ही होता। कर्मफल से वो बच नहीं रही होती। फिर ये भी कहा गया है कि तुम बचना भी चाहो तो स्वभाव कर्म में लगा देता है। जैसे लिस्बेथ बलात्कारी को आमंत्रित नहीं करती, मगर ये होता है और फिर एक चक्र शुरू हो जाता है।
दूसरी तरफ जब मिकैल को देखते हैं तो उसके लिए भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का चौंतीसवां श्लोक है:
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।2.34
मोटे तौर पर इसका मतलब है कि जो प्रतिष्ठा धूमिल होती है वो बहुत समय तक कही-सुनी जाती है और किसी सम्मानित व्यक्ति के लिए ऐसी अपकीर्ति मरण से भी अधिक होती है। इसी से बचने के लिए मिकैल उसी कर्म में दोबारा लग जाता है जिससे एक बार उसे समस्याओं का सामना करना पड़ा था। वैसे ये दो चार श्लोक जो बताये हैं, वो इस हिंसक जैसी जासूसी भरी फिल्म के कुछ ही हिस्सों पर है अगर आप पूरी फिल्म देखें तो लिस्बेथ या फिर मिकैल की हरकतों में और भी दर्जनों श्लोक मिल सकते हैं।
बाकी भगवद्गीता भी खुद पढ़िए क्योंकि ये जो लिखा है वो नर्सरी लेवल का है और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा, ये तो याद ही होगा!
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित