18वीं शताब्दी के भारत की आर्थिक समृद्धि का स्वरूप लेखिका: प्रो. कुसुमलता केडिया

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गत 150 वर्षों में भारत क्यों इतना कम विकसित हो सका अथवा पहले से अधिक विपन्न क्यों हो गया, इंग्लैंड की तरह आगे क्यों नहीं बढ़ा, इसके उत्तर की जिन्हें तलाश है, उन्हें ब्रिटिश-पूर्व अखण्ड भारत की परिस्थिति की वास्तविकता को ठीक तरह से जानना होगा। के.एन. चौधुरी, रादरमुंड, धर्मपाल, तपन राय चौधुरी, एम.एन. पियर्सन, एस. चौधुरी, ए.दासगुप्ता, एच. फर्बर, जे.सी. वान ल्यूर, पी. नाइटिंगेल, ओमप्रकाश और एस. आर्षरत्नम आदि विद्वानों ने अपनी विशिष्ट शोध-गवेषणाओं के द्वारा तत्कालीन भारत के विषय में जो तथ्य उजागर किए हैं, उनके सन्दर्भ में ऐसा करना आवश्यक हो गया है। इन विद्वानों द्वारा उद्घाटित तथ्य विकास के प्रश्न पर ताजी समझ की अपेक्षा करते रहे हैं और वे ब्रिटिश-पूर्व भारत के समय और दशा को नये परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत सामने लाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में वे सभी ‘ग्रोथ थिअरीजÓ (वृद्धि की सैद्धांतिक धारणाएँ) चिन्तनीय रूप में अपनी सीमाओं में कैद नजर आती हैं, जिन पर कि स्वतन्त्र भारत मेंं अंधभक्ति से अमल होता रहा है।

विकास के वर्तमान आर्थिक सिद्धान्तों एवं धारणाओं की जाँच की जाए तथा साथ ही उन पूूर्वानुमानों एवं मान्यताओं की, जिन पर वे आधारित हैं, तो यह स्पष्ट होगा कि उनमें से अधिकांशत: तो मानव-समाज और सामाजिक व्यवस्थाओं (सोशल सिस्टम्स) के माक्र्सवादी सैद्धांतिक प्रतिपादनों का प्रतिफलन है। माक्र्सवादी धारणा है कि प्रत्येक समाज को सभ्यता के उदय एवं विकास के क्रम में ‘वर्गहीन समाजÓ की आदर्श दशा तक पहुँचने के लिए विविध अवस्थाओं या चरणों (स्टेजेस) से गुजरना पड़ता है। यानी कि प्रत्येक समाज को सामन्तवाद (फ्यूडलिज्म), पूँजीवाद, समाजवाद आदि चरणों से अनिवार्यत: गुजरना है, तभी तो माक्र्स की भविष्यवाणी सही सिद्ध होगी। माक्र्स से पूर्व परिकल्पित समानता पर आधारित समाजवाद को तो माक्र्स ने ‘प्रिमिटिव सोशलिज्मÓ कहकर खारिज कर दिया था। माक्र्स के अनुसार संसार के सभी समाज उपर्युक्त क्रम में एकरैखिक दिशा में विकसित हो रहे हैं, भले ही उनमें परस्पर विविधता, विभिन्नता एवं विशिष्टताएँ हैं।

इस तर्क से यह निर्णय कर लिया गया कि मध्य युग, सामंती युग था (जो यूरोप के लिए सत्य था, वही भारत के लिए भी सत्य मान लिया गया)। अत: वह स्वत: पिछड़ा, ठहरा हुआ, ‘प्रिमिटिवÓ और इसीलिए हेय, तुच्छ, तिरस्कार-योग्य था। उसके बाद की शताब्दियों ने यूरोप के व्यापार-वाणिज्य, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी इत्यादि का आरम्भ और शानदार ‘विस्तारÓ देखा, जिस सबका परिणाम उस चीज के ‘उभारÓ के रूप में सामने आया, जिसे माक्र्स ने ‘पूँजीवादÓ कहकर निरूपित किया। संयोगवश जैसा कि बताया जाता है, यह सब इंग्लैंड से शुरू हुआ और बाद में फ्रांस, हॉलैण्ड, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि ने उसका अनुसरण किया। इस प्रकार, ‘पश्चिमीÓ समाजों के उत्कर्ष का रहस्य उनकी गत्यात्मकता (डाइनॉमिज्म) और ‘डाउन टु अर्थÓ (जिसे हिन्दी में लोगों ने ‘जमीन से जुड़ीÓ के हास्यास्पद रूप में अनुदित कर रखा है) ‘एप्रोचÓ में है, ऐसा बताया जाता है। यह ‘डाउन-टु-अर्थÓ एप्रोच अर्थात् ‘व्यावहारिक दृष्टिÓ ही यूरोपीय विचारकों के अनुसार विविध क्रान्तियों के रूप में सामने आई है। इसी ‘एप्रोचÓ के कारण उन्होंने अपनी सामंती बेडिय़ाँ काट फेंकीं और अकल्पित समृद्धि तथा विकास के एक नये संसार में वे दाखिल हो सके, ऐसा प्रचारित किया जाता रहा है।

पूर्वमान्यताओं से प्रेरित प्रश्न

इन्हीं पूर्वमान्यताओं के प्रचण्ड प्रभाव के कारण माक्र्सवादियों ने इस तरह के तमाम सवाल तेजी से खड़े किए कि भारत इस दौड़ में क्यों पिछड़ गया? वह वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, व्यापारिक तथा बैंकिंग एवं परिवहन की क्रान्तियों से क्यों नहीं गुजरा? दूसरे शब्दों में (क) भारत पिछड़ा क्यों बना रहा, जबकि वह विगत 150 वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों और विश्व-अर्थव्यवस्था के ‘नेटवर्कÓ के दायरे में लाया जा चुका था? (ख) उसके बारे में माक्र्स की भविष्यवाणी सच क्यों नहीं सिद्ध हुई? (माक्र्स का विचार था कि इंग्लैंड का भारत में दुहरा ‘मिशनÓ है। एक है विध्वंसक, दूसरा नवोन्मेषकारी। इंग्लैंड भारत में प्राचीन एशियाई सामाजिक ढाँचे का समूलोच्छेदन करके विध्वंसक मिशन पूरा करेगा तथा ‘पश्चिमीÓ समाज के ‘मेटीरियल फाउंडेशन्सÓ की नींव भारत में भी रखकर एशिया मेंं पश्चिमी समाज की ‘मेटीरियल फाउंडेशन्सÓ का विस्तार करेगा- ‘यह होगा इंग्लैंड का नवोन्मेषकारी मिशन। (देखें कार्ल माक्र्स, ‘द फ्यूचर रिजल्टस ऑफ ब्रिटिश रूल इन इंडिया आन कालोनियलिज्मÓ में)। (ग) स्वाधीनता के बाद भी भारत विकास के पथ पर यूरोप की रफ्तार से क्यों नहीं बढ़ा?

हमारे विद्वान विकास सम्बन्धी सैद्धान्तिक प्रतिपादनों में अंतर्निहित पूर्वानुमानों की शिक्षा-दीक्षा में इतने दीक्षित-प्रशिक्षित थे कि वे इन उठाये गये प्रश्नों का एक ही उत्तर ढूँढ़ व पा सके- (भारत पिछड़ा रहा, वहाँ इंग्लैंड अपना विध्वंसक एवं नवोन्मेषकारी, दोनों ही तरह का मिशन पूरी तरह सम्पन्न न कर सका तथा भारत पूर्णत: पश्चिम जैसा विकसित नहीं हो सका, क्योंकि) भारत ‘सामंतीÓ था, अत: उसकी अर्थव्यवस्था कठोर, अनम्य, परम्परागत, गैर-प्रगतिशील रही। वह अपनी पुरानी संस्थाओं को समाप्त करने में विफल रहा, इसीलिए वह ‘पश्चिमीÓ देशों जैसा ‘विकासÓ नहीं कर सका। वे संस्थाएँ भारत के आर्थिक विकास की अवरोधक बनती रहीं। वे एक ही उत्तर देते रहे- ‘अतीत का बोझÓ ही भारत के ठहराव का कारण है। इस प्रकार 18वीं शताब्दी का भारत वैसा कुछ चित्रित किया जाता रहा, जैसा कि वस्तुत: वह कभी था ही नहीं।

एक और भी अत्यधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उक्त अवधि के भारत की स्थिति की हमारी जानकारी बहुत थोड़े से तथ्यों तक सिमटी रही। ये वे तथ्य थे जो मुख्यत: ईसाई मिशनरियों के और नृेतत्वविद नामक नये उभरे विशेषज्ञों के लेखन द्वारा हम तक सम्प्रेषित हुए थे। भारत के बारे में और साथ ही अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों के बारे में जो आरम्भिक लेखन अंग्रेजी में सामने आया, वह सारा ही विविध-यूरोपीय देशों के यात्रियों, ईसाई मिशनरियों और पादरियों तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के सेवकों द्वारा रचित है। फर्बर के शब्दों में- ‘उनका उद्देश्य भारतीय सभ्यता का गम्भीर अध्ययन नहीं था, अपितु पाठकों को मनोरंजक एवं कौतूहलवर्धक जानकारियाँ देना तथा भारतीय रीति-रिवाजों के बेतुकेपन और अनोखेपन को दिलचस्प ढंग से और उत्साह तथा विस्तार के साथ प्रस्तुत करना था।Ó

            होल्डेन फर्बर ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहास पर सघन कार्य किया था और ब्रिटिश साम्राज्य का अंग रहे इलाकों की काफी यात्रा कर फिर ब्रिटेन, नीदरलैंड, फ्रांस और डेनमार्क में पुरातात्विक महत्व की सामग्री का अध्ययन किया था। वे ‘जान कम्पनी एट वर्कÓ सहित अनेक पुस्तकों के लेखक हैं तथा भारत में विशेषकर 18वीं शती ई. में ब्रिटिश शक्ति की वृद्धि पर उनके अनेक लेख हैं। वे आगे लिखते हैं, ‘यूरोपीय ‘प्राच्यविदÓ 1770 ई. के पहले तक सामने नहीं आये थे। अत: मिशनरियों एवं पर्यटकों द्वारा लिखित उक्त साहित्य ही बाद में ‘प्राच्य विद्या के विद्वत्तापूर्ण अध्ययनÓ का आधार बना। यूरोप के ईसाई मिशनरियों और ईस्ट इंडिया कम्पनी के सेवकों द्वारा प्रस्तुत साहित्यिक और विद्वत्तापूर्ण कार्य का परिपोषण यूरोपीय प्राच्यविदों द्वारा किया जाने लगा, क्योंकि वे इसी विशेष प्रयोजन से यूरोप से बाहर रुचि ले रहे थे। एशिया में दो प्रसिद्ध यूरोपीय विद्यामंडल स्थापित किये गये- बाटविया में 1774 ई. में ‘बटावियाश्च जेनूत्श्चातÓ तथा कोलकाता में 1786 ई. में  ‘एशियाटिक सोसाइटी अफ बंगालÓ। वे यूरोपीय प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) के ही परिणाम थेÓ।

एक ईसाई मिशनरी ने एक किताब लिखी- ‘द ओपन डोर टू द सीक्रेट ऑफ हीदेनडमÓ यानी ‘विधर्म (गैरईसाइयत) के रहस्य का खुला द्वारÓ। यहाँ विधर्म से निश्चित अभिप्राय था हिन्दू धर्म से जो ईसाइयों के अनुसार धर्महीनता और धर्मविकृति है। इस पुस्तक का नाम ही लेखक की मनोयोजना का पर्याप्त प्रमाण है। परन्तु यूरोपीय विद्वानों ने इसे हिन्दुत्व के इतिहास के बारे में असाधारण महत्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित-प्रशंसित-प्रचारित किया।

बिना भारत आए लिखी गईं भारत पर पुस्तकें

होल्डेन फर्बर कहते है कि सन् 1914 ईस्वी तक इस विषय (हिन्दुत्व एवं प्राच्यविद्या) पर पश्चिम का ज्ञान मुख्यत: यूरोपीय पर्यटकों के वृत्तान्तों, यूरोपीय मिशनरियों द्वारा रचित सामग्री तथा यूरोपीय सौदागरों एवं सेवक अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत विवरणों पर निर्भर था। साथ ही कुछ ऐसी बड़ी पुस्तकों या लम्बे निबन्धों पर जो ऐसे यूरोपीयों द्वारा लिखे गए थे, जो कभी यूरोप से बाहर निकले ही नहीं थे, जैसे कि एबे रेनाल और जेम्स मिल। यह लगभग समस्त सामग्री सम्बन्धित विषय में गैर-जानकार लोगों द्वारा रचित अत: अधकचरी थी। पहले कुछ तय कर लिया, फिर उसी के अनुरूप किस्से और गप्पें तथा अर्धसत्य लिखते गए। गैर-यूरोपीय विद्वानों ने भी उसी परम्परा का अनुसरण किया और अपनी रचनाओं में वे सदा ‘यूरोपीय श्रेष्ठताÓ को स्वीकार करते दिखते हैं।

भारतीय शास्त्रों से विमुख ‘भारतवेत्ताÓ भारतीय

वस्तुत: स्वाधीन भारत में एक परकीय एवं आत्मविमुख अभिजन वर्ग (एलिअॅन एलीट) ही शिक्षातंत्र एवं आधुनिक ‘ऐकेडेमिक्सÓ पर हावी रहा। फलस्वरूप उसने अपनी पसन्द का इतिहास रचने पर विशेष ध्यान दिया और इसीलिए यूरोपीय ईसाई मिशनरियों, घुमक्कड़ों और यूरोप के ‘ऑरिएन्टॅलिस्ट्सÓ द्वारा रची गई सामग्री को ही उसने भारत की इतिहास रचना का आधार बनाया।

            स्वयं भारत में रहकर भी, भारत और हिन्दू समाज के विषय में ये अधिकारी विद्वान बनने या दिखने के इच्छुक ‘इतिहासकारÓ तथा ‘अन्य विशेषज्ञ एक भी आधारभूत हिन्दू शास्त्र या भारतीय शास्त्रीय स्रोतों को पढऩे से सर्वथा विमुख रहे।

विकृत, विद्वेषपूर्ण, भ्रष्ट इतिहास

सार यह कि हम भारतीयों को ब्रिटिशपूर्व भारत का जो इतिहास सुलभ कराया गया, वह बहुत संयमित ढंग से कहें तो विकृत, विद्वेषपूर्ण, भ्रष्ट एवं दुष्टताप्रेरित था। उस इतिहास में प्रमाणों और साक्ष्यों की कोई भी चिन्ता किए बिना ढेरों चीजें मान ली गई थीं और उनका अनुमान लगा लिया गया था। बाद में यही तथाकथित ‘ऐतिहासिक दस्तावेजÓ भारत के अल्पविकसित रह जाने के कारणों की व्याख्या का आधार बनाये जाते रहे। जहाँ कहीं भी बहस और विचार विमर्श या वाद-विवाद होते, वहीं इन ऐतिहासिक दस्तावेजों को भारत के अतीत की समझ के सूत्र-संकेतों की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा। उसी आधार पर समस्या के विशद विश्लेषण की उपेक्षा की जाती रही। इस तरह एक विकृति दूसरी विकृति का आधार बनती चली गई और यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा। सच्चाई अधिकाधिक उपेक्षित होती चली गई।

इतिहासकार तपनराय चौधरी लिखते हैं- ‘यहाँ तक कि यह तक स्वत: सिद्ध तथ्य मान लिया गया कि मुगल बादशाहत के टूटने का अर्थ था भारत की अर्थव्यवस्था में व्यापक गिरावट। जबकि इस मान्यता की सच्चाई विशद अध्ययन द्वारा ही जाँची जा सकती है। यह सही नहीं है कि केंद्रीय सत्ता के ढहने से सचमुच अराजकता फैल गई। अवध प्रांत तथा पूरब के दूसरे सूबे असल में स्वतंत्र राज्य थे और उनकी हालत कोई बदतर नहीं हुई।Ó

यहाँ यह तथ्य तो प्राय: किसी भी तथाकथित इतिहासकार एवं आर्थिक इतिहासकार ने संज्ञान में ही नहीं लिया कि वस्तुत: तथाकथित ‘मुगल बादशाहत Ó कभी भी भारत की केन्द्रीय सत्ता थी ही नहीं। दिल्ली भारत की एक छोटी जागीर थी। वह भारत की राजधानी कभी नहीं थी तथा दिल्ली की तथाकथित बादशाहत से कई गुना विशाल राज्य सदा उस पूरी अवधि में भारत में बने रहे- चोल, चेर, पांड्य, सातवाहन, विजयनगर साम्राज्य आदि।

पूर्वधारणाओं एवं पूर्वानुमानों का परिप्रेक्ष्य

इसीलिए यहॉं भारत और विश्व के इतिहास के बारे में प्रचलित उन पूर्वधारणाओं एवं पूर्वानुमानों का परिप्रेक्ष्य समझना आवश्यक है। तभी उनकी यथार्थता एवं अयथार्थता का, प्रामाणिकता एवं अप्रामाणिकता का सम्यक निश्चय संभव होगा तथा उन पर आधारित विचार-प्रत्ययों का भी परीक्षण किया जा सकेगा।

इनमें से कतिपय बहुप्रचारित पूर्वानुमान तथा पूर्व-धारणाएँ ये हैं-

(1) 200 वर्षों पूर्व तक, विश्व पिछड़ा, सामंती, ठहरा हुआ था।

(2) तब खेती ही जीविका का प्रधान जरिया थी।

(3) तब व्यापार एवं उद्योग नाम मात्र को ही थे।

(4) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तो मानो था ही नहीं।

(5) श्रम-विभाजन तो तब प्राय: अकल्पनीय ही था।

(6) तब की राजसत्ता की रूचि किसी तरह स्वयं को बनाये रखने तक ही सीमित थी। समाज के अन्य मामलों में उसे कोई रुचि थी ही नहीं। अधिक से अधिक तब राजपुरुष लोग आराम और सुख भोग में लिप्त रहते थे। देश या राज्य के क्षेत्र के विकास की उन्हें कोई चिंता ही नहीं थी।

(7) तब सर्वसाधारण जन अतिशय दरिद्र थे।

(8) अकाल, भुखमरी, दरिद्रता और महामारियाँ व्यापक थी।

(9) सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था भारी शोषणमूलक और परजीवी थी।

यहाँ यह फिर से याद कर लेना आवश्यक है कि ये सभी बातें उन दिनों के यूरोप के बारे में तो सत्य थीं, परंतु वे शेष समस्त विश्व के लिए भी यथावत सत्य मान ली गर्ईं। ‘पॉजिटिविस्टÓ निगमन विधि की परम्परा का यह स्वाभाविक परिणाम है। जाहिर है कि भारत के बारे में भी यही सब सत्य मान लिया गया। भला वह अपवाद क्यों रहे?

समय बीतने के साथ, ये पूर्वानुमान मानों खून में समा गए, ‘जेनेटिक एजम्प्शन्सÓ बन गए। पश्चिम में विकसित अनेकानेक विचार प्रत्ययों, सैद्धान्तिकी तथा विश्लेषण मॉडलों द्वारा इन्हीं ‘एजम्प्शन्सÓ को निश्चित एवं औपचारिक रूप दे डाला गया और इन्हें सुनिश्चित साकार वस्तु-सत्य मान लिया गया। पूरी की पूरी पीढ़ी इसी मान्यता में रंगती चली गई।
✍🏻साभार भारतीय धरोहर

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