अनूप भटनागर
देश के प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमण ने भारत की आजादी के 75 साल बाद भी न्यायपालिका में महिलाओं का अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं होने पर चिंता व्यक्त की है। प्रधान न्यायाधीश का विचार है कि 75 साल में न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 50 फीसदी हो जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अभी भी न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व करीब 11 फीसदी है।
प्रधान न्यायाधीश की यह चिंता उचित है लेकिन सवाल उठता है कि महिलाओं का अपेक्षित संख्या में प्रतिनिधित्व नहीं होने के लिये कौन जिम्मेदार है? उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश तो न्यायाधीशों के कॉलेजियम को ही करनी है लेकिन महिला संगठनों और संसदीय समिति की सिफारिश के बावजूद महिला न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व सम्माननीय स्तर तक बढ़ाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं हुए।
यह सही है कि न्यायपालिका, विशेषकर उच्चतम न्यायालय में, धीरे-धीरे महिला न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने का सिलसिला शुरू हुआ है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि न्यायाधीशों के नामों के चयन की प्रक्रिया कॉलेजियम के हाथ में आने से पहले तक देश की शीर्ष अदालत में एक भी महिला न्यायाधीश अपना स्थान नहीं बना सकी थी।
न्यायपालिका में महिलाओं का 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व तो फिलहाल मृगतृष्णा ही लगता है लेकिन कितना बेहतर होता कि 2027 में देश को मिलने वाली पहली महिला प्रधान न्यायाधीश का कार्यकाल एक महीने से कुछ ज्यादा होने के बजाय कम से कम एक साल का होता ताकि उन्हें भी कुछ करने का अवसर मिलता। यह सही है कि इस समय उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या में महिलाओं का प्रतिनिधित्व करीब 11 फीसदी है। ऐसा पहली बार हुआ है जब शीर्ष अदालत में एक साथ चार महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत, उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीश के पद पर एक सितंबर, 2021 की स्थिति के अनुसार इस समय शायद एक ही महिला न्यायाधीश है जबकि करीब दो साल पहले चार उच्च न्यायालयों की कमान महिला न्यायाधीशों के पास थी।
इसी तरह, उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों की संख्या 1098 है और एक सितंबर, 2021 की स्थिति के अनुसार इनमें 72 महिला न्यायाधीशों सहित 633 न्यायाधीश पदासीन हैं। इस समय मद्रास उच्च न्यायालय में सबसे अधिक 13, इलाहाबाद, बंबई और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालयों में सात-सात, दिल्ली उच्च न्यायालय में छह और कर्नाटक उच्च न्यायालय में पांच महिला न्यायाधीश हैं।
इस स्थिति से कल्पना की जा सकती है कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में महिला न्यायाधीशों की भागीदारी 50 फीसदी करने में कितना समय लग सकता है। उच्च न्यायालयों में इस समय न्यायाधीशों के 465 पद रिक्त हैं। हालांकि, प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की कॉलेजियम ने एक सितंबर को 12 उच्च न्यायालयों के लिये 68 नामों की सिफारिश की है। केंद्र ने अगर इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया तो भी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 397 स्थान रिक्त रह जायेंगे।
जहां तक महिला न्यायाधीशों का सवाल है तो विधि एवं न्याय संबंधी संसद की स्थायी समिति ने लैंगिक आधार पर पुरुष और महिला न्यायाधीशों के बीच व्याप्त विशाल अंतर पर चिंता व्यक्त की थी और महिला न्यायाधीशों की संख्या 50 प्रतिशत करने की सिफारिश की थी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का जिक्र करते हुए कहा था कि उच्च न्यायालयों में इनका प्रतिशत सिर्फ 10.85 और अधीनस्थ न्यायपालिका में इनकी भागीदारी 27.5 प्रतिशत है।
सरकार पहले भी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से अनुरोध कर चुकी है कि न्यायाधीश की नियुक्ति के लिये सिफारिश करते समय महिलाओं में से उपयुक्त उम्मीदवारों के नामों पर विचार करे। दूसरी ओर, अप्रैल 2021 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस. ए. बोबडे ने उच्च न्यायालय में मेधावी महिला अधिवक्ताओं की न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा था कि कई महिला वकीलों ने घरेलू जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए न्यायाधीश पद की पेशकश अस्वीकार कर दी है।
उच्चतम न्यायालय में 31 अगस्त को तीन महिला न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति हिमा कोहली, न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी के शपथ ग्रहण करने के साथ ही शीर्ष अदालत में महिला न्यायाधीशों की संख्या चार हो गयी है। यह पहला अवसर है जब शीर्ष अदालत में एक साथ चार महिला न्यायाधीश पदासीन हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम और केन्द्र सरकार उच्चतर न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों की संख्या में अपेक्षित वृद्धि करने के लिए प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमण की चिंताओं पर ध्यान देगी।
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