देश में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो किसानों की समस्याओं के प्रति लापरवाही बरतने वाली सरकार के प्रति सहानुभूति रखता हो ? निश्चित रूप से किसी भी सरकार के किसान विरोधी दृष्टिकोण को कोई भी व्यक्ति पसंद नहीं करेगा। पर जब किसानों के समर्थन में कहीं ऐसे लोग आंदोलन कर रहे हों, जिनके तार देश विरोधी शक्तियों से जुड़े हों, या जो सीधे-सीधे देश विरोधी शक्तियों के हाथों में खेल रहे हों तो फिर ऐसे तथाकथित फर्जी किसानों का समर्थन भी कौन करेगा? निश्चित रूप से कोई भी नहीं। वर्तमान किसान नेता राकेश टिकैत के द्वारा ‘अल्लाह हु अकबर’ बोलना शेष था ,अब वह भी उन्होंने बोल दिया है और अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं कि वह किधर जा रहे हैं? किधर सोच रहे हैं और क्या करना चाहते हैं?
राकेश टिकैत आज उस गैंग के हाथों का खिलौना बन चुके हैं जो इस देश के नेतृत्व की गर्दन मरोड़ने और अपने स्वार्थ सिद्धि के कार्यों में लगा हुआ है। जो चाहता है कि इस देश का नेतृत्व पहले वाले बुजदिल नेतृत्व की तरह काम करे और उन्हें वह सारे कार्य करने दे जिससे यह देश कमजोर हो और उनकी चांदी कटे।
इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारा कोई नहीं हो सकता कि वर्तमान में आर्य समाज जैसी पवित्र और राष्ट्रभक्त संस्था के संन्यासी भी अपने आपको ‘जाति’ से मुक्त नहीं कर पाते हैं। अभी पिछले दिनों मैं ग्रेटर नोएडा में गुरुकुल मुर्शदपुर में आयोजित 21 दिवसीय पारायण यज्ञ के कार्यक्रम में बोल रहा था। जहां पर मैंने कहा कि वर्तमान किसान आंदोलन फर्जी किसानों के हाथों में चला गया है। जो देश विरोधी शक्तियों के हाथों का खिलौना बन चुके हैं। मेरे इस कथन पर वहां उपस्थित रहे एक आर्य समाजी संन्यासी ने बाद में आयोजकों से मेरे बोलने पर अपनी कड़ी आपत्ति व्यक्त की। जब मुझे आयोजकों में से एक सज्जन ने बताया कि स्वामी जी स्वयं भी जाट हैं और इसीलिए उन्हें आपका बोलना अच्छा नहीं लगा। तब मैंने सोचा कि क्या स्वामी जी भी ‘जाट’ हो सकते हैं ? और यदि ऐसा है तो यह तो बहुत दु:खद है । ऐसे में जिस देश के संन्यासी भी ‘जाति’ से बाहर नहीं निकल पाते हैं उस देश का वर्तमान कितना पतित हो चुका है ? यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।
किसी शायर ने संन्यासियों के विषय में कहा है कि :-
“मेरे अतराफ में पानी तो बहुत है लेकिन,
अब मुझे प्यास का एहसास नहीं होता ।
गेरुवे कपड़ों पे ना इतरा जोगी सिर्फ
कपड़ों से सन्यास नहीं होता ।।”
जब योगी लोग भी जाति से बाहर जाकर नहीं सोचेंगे तो फिर और कौन सोचेगा ? योगी और संन्यासी लोगों से अलग आप पूर्ण निष्पक्षता और निरपेक्षता की आशा किससे कर सकते हैं? संभवत: किसी से भी नहीं।
हमारे देश का पुराना इतिहास रहा है कि मजबूत शासक को अपने ही लोग जड़ से खोखला करने का काम करते रहे हैं। आज जो लोग पीएम नरेंद्र मोदी या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी की जड़ों को खोखला कर हिंदुत्व के विरुद्ध कार्य करने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं ये वही लोग हैं जो इतिहास में ‘जयचंद की परंपरा’ के नाम से जाने जाते हैं। लोकतंत्र में सरकारों का विरोध करना एक अलग बात है और सरकारों का विरोध करते-करते राष्ट्रविरोध तक जाना सर्वथा दूसरी बात है। इन लोगों में से कईयों ने बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा को हराकर अपनी मूछों पर ताव दिया और यह सोचा कि पश्चिम बंगाल में मोदी को हराकर हमने बहुत बड़ा कीर्तिमान कायम कर दिया है। इनको तनिक भी शर्म नहीं आई कि बंगाल से मोदी को दूर रखकर और बंगाल का शासन ऐसे हाथों में सौंप कर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की है जो वृहत्तर बांग्लादेश बनाकर एक नया पाकिस्तान बनाने की तैयारियों में जुटे हैं?
माना कि लोकतंत्र में वोट मांगना और अपने विरोधी का विरोध करना प्रत्येक राजनीतिक दल और राजनीतिक व्यक्ति का लोकतांत्रिक अधिकार है, परंतु देश विरोधी शक्तियों के हाथों का खिलौना बनकर सत्ता को उन लोगों के लिए सुलभ करवाना कहां तक उचित है जो देश के साथ गद्दारी कर रहे हैं ?
जब हम इस प्रश्न की गंभीरता से पड़ताल करते हैं तो पता चलता है कि आज भी इतिहास के गद्दारों का ‘परंपरागत भूत’ हमारा पीछा कर रहा है और हम उस भूत के साए से अपने आपको मुक्त नहीं कर पाए हैं । जी हां, यह वही भूत है जिसने कभी सिंध के हिन्दू राजा दाहिर को पराजित होते देखकर तत्कालीन अफगानिस्तान और राजस्थान के हिन्दू राजाओं के रूप में अपनी प्रसन्नता प्रकट की थी। तब यह बड़ा निर्दयी और निर्लज्ज होकर हँसा था। दाहिर ने उस समय शत्रु के विरुद्ध अपनी सहायता के लिये कई देसी हिंदू राजाओं के लिए पत्र लिखा, पर कोई भी नहीं आया। फलस्वरूप मां भारती का एक पराक्रमी, शौर्यसंपन्न, वीरता और देशभक्ति का जलता हुआ अंगारा गद्दार जयचंदों के कारण हमारे सामने ठंडा हो गया ।
उसके पश्चात ही आज के अफगानिस्तान और पाकिस्तान का इस्लामीकरण करने में इस्लाम को सफलता मिली थी। हालांकि सिंध के राजा दाहिर के एकदम बाद वीर गुर्जर प्रतिहार शासकों ने विदेशी आक्रमणकारियों के सपनों को साकार ना होने देने में बड़ी दीवार का काम किया, परंतु कालांतर में इस्लामिक आक्रमणकारी अपने इरादों में सफल हो ही गए। जब उन्होंने अपनी सफलता की इबारत लिखी तो उसमें भी ऐसे ही जयचंद और गद्दारों का हाथ रहा था। जिनका एक लंबा और पीड़ादायक इतिहास है।
इन्हीं गद्दारों के हाथ हमें पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध लड़ने वाले मोहम्मद गौरी को समर्थन देने वाले ‘जयचंद’ के हाथ में रूप में दिखाई देते हैं । जैसे आज यह गद्दार देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अहंकार तोड़ने के लिए लामबंद हो रहे हैं और देश विरोधी शक्तियों से मिलकर देश की जड़ों को खोदने का काम कर रहे हैं ऐसा ही काम उस समय जयचंद ने मोहम्मद गौरी के साथ मिलकर किया था।
जैसे इन गद्दारों को पृथ्वीराज चौहान का स्वाभिमान अभिमान दिखाई देता था वैसे ही इन्हें चित्तौड़ के राणाओं का स्वाभिमान भी अभिमान दिखाई देता था । जिस समय खिलजी ने हमारी अस्मत पर हमला करते हुए रानी पद्मिनी को लेने के इरादे से चित्तौड़ पर आक्रमण किया था उस समय भी ये आज के गद्दार किसी न किसी रूप में जीवित थे। रानी पद्मिनी की आवाज चाहे आज आपको सुनाई देती हो, लेकिन जैसे इन गद्दारों को आज भी इतिहास के पन्नों से रानी पद्मिनी का खून दिखाई नहीं देता वैसे ही इनके तत्कालीन पूर्वजों को भी रानी की अस्मत अपनी अस्मत दिखाई नहीं दे रही थी ।राणा रतन सिंह के कहने के उपरांत भी वे लोग राणा की सहायता के लिए सामने नहीं आए थे और उन्होंने वह सब कुछ होने दिया जो आज हमारे लिए दुख और पश्चात्ताप का विषय है। यदि यह गद्दार उस समय राणा रतन सिंह का साथ दे गए होते तो जहां हजारों वीरांगनाओं का जौहर होने देने से हम बच जाते वहीं आज हमें अपने अतीत पर दुख और पश्चाताप भी ना करना पड़ता।
जो लोग यह कहते हैं कि हमारे भीतर फूट थी और हम फूट के कारण गुलाम हो गए या हमारे भीतर गद्दार छिपे बैठे थे और उन गद्दारों के कारण हम अपनी स्वतंत्रता को बैठे, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि यह फूट और ये गद्दार दोनों ही बदले हुए किरदारों के रूप में आज भी हमारे बीच में हैं । यदि हम इनका उस समय कुछ नहीं बिगाड़ पाए थे तो आज भी हम इनका क्या कर पा रहे हैं ? आज भी बहुत बड़ी संख्या में लोग उनका साथ देते हुए दिखाई देते हैं तो बड़ा दुख होता है कि हमने अपने इतिहास से शिक्षा नहीं ली।
रानी पद्मिनी और अलाउद्दीन के विषय में कभी प्रसिद्ध इतिहासविद् अतुल रावत की किताब पढ़ियेगा। जिसमें बताया गया है कि 16000 रानियों की चिता की राख से अल्लाउद्दीन ने “सवा चौहत्तर मन सोना”
(एक मन = 37.3242 किग्रा ) लूटा था। अतुल रावत का कथन पढ़िए – “भारतीय सन्दर्भ में लोक परंपरा किस प्रकार इतिहास को संरक्षित किये रहती है यह पद्मिनी की महान गाथा से स्पष्ट है”। जौहर की ज्वाला शांत होने के बाद अलाउद्दीन ने उस विशाल चिता को भी नहीं छोड़ा।
सभी राजपूतानियाँ पूरा श्रृंगार करके चिता पर आरूढ़ हुई थीं। अलाउद्दीन ने चिता की राख से “सवा चौहत्तर मन सोना” लूटा था।
हिन्दू समाज ने राजपूतानियों के उस महान बलिदान की स्मृति बनाये रखने के लिए एक लोक परंपरा आरम्भ की जो अब से पचास -साठ वर्ष पूर्व तक चलती रही – हिन्दू अपने पत्रों पर “सवा चौहत्तर का अंक” अंकित किया करते थे। इसका आशय यह था कि जिसको पत्र लिखा गया है उसके अलावा यदि कोई अन्य व्यक्ति इस पत्र को खोले तो उसे वही पाप लगे जो पाप पद्मिनी की चिता से सवा चौहत्तर मन सोना लूटने पर अल्लाउद्दीन को लगा था। लोक इतिहास संरक्षण का यह अनूठा तरीका था। इसीलिए यह इतिहास दो पीढ़ी पहले तक तो बचा रहा। जिसे कांग्रेस की सरकारों ने धीरे-धीरे समाप्त करा दिया।
क्योंकि कांग्रेस को हमारी लोक परंपराएं झूठ पर आधारित दिखाई देती रही हैं। इसलिए इसने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह शपथ पत्र भी दे दिया था कि राम कभी इस धरती पर आये ही नहीं थे। राम और रामायण सब काल्पनिक हैं।
अपने इतिहास के संबंध में इन नेताओं से अधिक जागरूक और गंभीर तो हमारे देश की जनता रही है। जिसने अपने इतिहास को संरक्षित करने का हर संभव प्रयास किया है । उसने अपने वीरों को और हीरों को भुलाया नहीं बल्कि उन्हें अपनी लोक कथाओं में, लोकगीतों में और लोक परंपराओं में स्थान देकर जीवंत बनाए रखा । यह तो नेता ही थे जिन्होंने समय विशेष पर इन लोक कथाओं, लोक परंपराओं और लोकगीतों को पिछड़ेपन का प्रतीक मानकर समाप्त करने का बीड़ा आधुनिक शिक्षा के माध्यम से उठाया और उन्हें बहुत हद तक समाप्त करने में सफलता भी प्राप्त की। हम लाख प्रयास करें कि हम अपने इतिहास को संरक्षित रखने की युक्तियां निकालेंगे, पर जब तक इन नेताओं के ऐसे मूर्खतापूर्ण षड़यंत्र होते रहेंगे तब तक हम अपने सामने ही अपने इतिहास को लोक कथाओं, लोकगीतों और लोक परंपराओं के रूप में मरते हुए देखते रहेंगे।
आज जो कांग्रेसी, वामी, टुकड़े टुकड़े गैंग और फर्जी किसान देश की एकता और अखंडता को चकनाचूर करने के लिए ‘अल्लाह हू अकबर’ का राग अलाप रहे हैं ये भी उन्हीं गद्दारों की संतानें हैं जिन्होंने राणा संग्राम सिंह के अहंकार को तोड़ने के लिए विदेशी बाबर से हाथ मिलाया था। ये आज के चीन से हाथ मिला सकते हैं, पाकिस्तान से हाथ मिला सकते हैं, बांग्लादेश से हाथ मिला सकते हैं ,तालिबान के गीत गा सकते हैं, लेकिन अपने घर में मोदी और उनकी भाजपा से हाथ नहीं मिला सकते। क्योंकि इन्हें भी किसी का अहंकार तोड़ना है।
जैसे इनका ह्रदय उस समय बाबर की सेना के हाथों मरते राणा संग्राम सिंह के 30000 सैनिकों को देखकर नहीं पसीजा था वैसे ही यह आज भी अपने उन वीर योद्धाओं के शवों को देखकर द्रवित नहीं होते जो देश की एकता और अखंडता के लिए काम करते हुए मारे जाते हैं या अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दे जाते हैं। इसके विपरीत इनका ह्रदय उस समय चीत्कार कर उठता है जब कोई आतंकवादी मरता है या उसका शव इन्हें देखने को मिल जाता है।
कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। हमारा मानना है कि इतिहास अपने आपको दोहराता नहीं है ,बल्कि जब कोई देश अपने इतिहास से शिक्षा नहीं लेता है तो वह इतिहास के भूत का शिकार होता रहता है। वह अपनी ही गलतियों के साये से भयभीत होकर चीखता, चिल्लाता है। इधर उधर भागता दौड़ता रहता है । अंधेरी कोठरी में इधर-उधर सिर मार-मार कर अपना विनाश कर लेता है। यदि समय रहते हमने इस भयंकर विनाशकारी स्थिति को नहीं समझा या संभाला तो हमारा विनाश निश्चित है। इतिहास का भूत हमारा पीछा कर रहा है और देश के गद्दारों के कारनामों से इस भूत का आकार दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। इसलिए राष्ट्रवादी शक्तियों को उन लोगों के हाथ मजबूत करने के लिए मजबूती से उनके पीछे आ जाना चाहिए जो इस भूत का विनाश करने के लिए कृत संकल्प हैं क्योंकि भूत होते तो नहीं है पर वह डराते बहुत हैं और कई बार भूत से भयभीत होकर लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं। इससे पहले कि भूत अपने विनाशकारी स्वरूप की पराकाष्ठा पर पहुंचे हमें इसका विनाश कर देना चाहिए। संकट को समझने की आवश्यकता है ।
जब ‘अल्लाह हू अकबर’ अपने ही लोग बोलने लगें तो समझिए कि देश के बहुसंख्यक समाज के लिए भारी संकट आवाज दे रहा है। ऐसे लोगों की राजनीति जाए भाड़ में । हमें उनके इरादों को समझना चाहिए। देश के लोगों को समझ लेना चाहिए कि फर्जी किसान फर्जीगिरी करते- करते कहां तक पहुंच चुके हैं? जो लोग इनके लालकिले के भयानक रूप को भूल चुके हैं, उन्हें अब ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे को समझ लेना चाहिए और जो अब भी नहीं समझे तो फिर हमें अपने विनाश के लिए तैयार रहना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत