अपना नाम, अपना काम, अपनी भाषा में ही मान
सौ साल पहले तक फिनलैंड के लोग स्वीड भाषा का इस्तेमाल करते थे। उन्होंने एक दिन तय किया कि वे अपनी भाषा चलाएंगे। बस, दूसरे दिन से ही काम शुरू हो गया। और आज फिनी भाषा के ज़रिए सारा कामकाज अच्छी तरह चल रहा है। असल बात है, तय कर लेना। 1966 की बात है, मुझे इंडियन स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ से निकाल दिया गया था। वहां मुझे सबसे ऊंची फेलोशिप मिलती थी, सबसे बड़ा वजीफ़ा मिलता था, फिर भी मुझे निकाल दिया गया। कारण : मैं हिंदी में शोधग्रंथ लिखना चाहता था, पीएचडी करना चाहता था। मामले ने तूल पकड़ लिया। तीन सालों के दौरान संसद इस मुद्दे पर कई बार ठप हुई, देशभर में हंगामा हुआ। राममनोहर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी, गुरु गोलवलकर, अटल बिहारी वाजपेयी, प्रो. बलराज मधोक, भागवत झा आज़ाद, सिद्धेश्वर प्रसाद, हेम बरुआ- लगभग सभी दलों के तमाम नेताओं ने आवाज़ उठाई। स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सीधा हस्तक्षेप करना पड़ा। अंतत: स्कूल के संविधान में संशोधन हुआ और मुझे वापस लिया गया। मैंने अफग़ानिस्तान सम्बंधी अपना शोधग्रंथ हिंदी में लिखा। इस तरह हिंदी भाषा में लिखे गए शोध प्रबंध पर मुझे देश में पहली पीएचडी मिली।
सबसे महत्वपूर्ण है स्वभाषा
ऐसा नहीं है कि हिंदी मेरी मजबूरी है। मैंने अंग्रेज़ी, फ़ारसी, जर्मन, रूसी समेत कई भाषाएं सीखी हैं, पर मैं अपना सारा कामकाज हिंदी में करता हूं। मैं हिंदुस्तान के अंग्रेज़ी भाषियों को अर्धशिक्षित मानता हूं। ऐसे लोग, जिनकी शिक्षा पूरी नहीं हुई है, जिन्होंने अपनी भाषा को ही नहीं जाना है। मेरे लिए स्वभाषा का मुद्दा सबसे बड़ा है। यह उन दिनों की बात है, जब पुष्पेंद्र चौहान और उनके जैसे अन्य युवा दिल्ली में संघ लोक सेवा आयोग के सामने हिंदी के लिए 10 वर्ष तक अनशन करते रहे। मैं तब समाचार एजेंसी पीटीआई की हिंदी समाचार समिति ‘भाषा’ का सम्पादक था। अनशनकारियों की मदद करता रहता था। एक दिन एक केंद्रीय मंत्री ने मुझे फोन करके कहा कि आप सम्पादक होते हुए इन सब पचड़ों में क्यों पड़ते हैं! मैंने उन्हें दो टूक कह दिया कि मेरे लिए सम्पादकी से कहीं बड़ी है, हिंदी। यह मेरे लिए धर्म से भी महत्वपूर्ण है। मैंने कहा कि कोई भी पद स्वभाषा से बड़ा नहीं हो सकता।
हम लोगों ने भारतीय भाषा आंदोलन चलाया, जिसे सारे देश में अपार समर्थन मिला। इस सिलसिले में मैं सारे देश में घूमा हूं और मैं जहां भी गया, हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए जुनूनी लोग मिले। कोई छात्र था, कोई गृहिणी, कोई दुकानदार, तो कोई लिपिक। ये लोग हिंदी की शक्ति हैं।
हम सबकुछ कर सकते हैं
करोड़ों हिंदुस्तानी, जो हिंदी से प्रेम करते हैं, वे सबकुछ कर सकते हैं। वे अपना सामान्य कामकाज करते हुए भी हिंदी आंदोलन चला सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि जो जहां है, वहीं अपना कार्य और व्यवहार हिंदी में करे।
-दस्तख़त हिंदी में किए जाएं। चूंकि हस्ताक्षर पहचान चिह्?न ही होते हैं, इसलिए आप अंग्रेज़ी दस्तावेज़ों में भी देवनागरी में हस्ताक्षर कर सकते हैं।
-अपने पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक आयोजनों के निमंत्रण-आमंत्रण पत्र हिंदी में ही छपवाएं।
-हिंदी में पत्र लिखें और लिफ़ाफ़े पर पता भी देवनागरी हिंदी में ही लिखें। अंग्रेज़ी पत्रों के जवाब भी हिंदी में दें।
-अपनी दुकान-प्रतिष्ठान का नाम हिंदी में रखें और उसे देवनागरी में ही लिखाएं। उदाहरण के लिए, ‘राम एंड ब्रदर्स’ के स्थान पर ‘राम बंधु’ नाम में अपनत्व भी है और यह आकर्षक भी होगा।
-खऱीदारी और अन्य कारोबारी कामों की पावती रसीद तथा अन्य कागज़ात हिंदी में छपवाएं।
-आवेदन पत्र हिंदी में लिखें। बैंक, रेलवे आदि के प्रपत्र हिंदी में ही भरें।
-जो अपने विषय के विशेषज्ञ हैं, वे विदेशी भाषा की स्तरीय पुस्तकों का अनुवाद हिंदी में करें या हिंदी में पुस्तकें रचें।
-बोलचाल में अंग्रेज़ी शब्दों का अनावश्यक प्रयोग न करें। अपनी मातृभाषा में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को भी लाने का प्रयत्न करें।
-संकल्प के साथ सारे काम स्वभाषा में शुरू कर दें।
जब हिंदी की वजह से देश की संसद ठप हुई
हिंदी को सम्मान दिलाने का सपना बचपन से ही? दिल में था। इंदौर से ही हिंदी आंदोलन की शुरुआत की। लेकिन अगर सरकार से ही ठन जाए तो फिर कौन बच सकता है? अगस्त 1965 की बात है, डिफेंस ऑफ इंडिया रुल के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। तीन साल वहां रहा। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शोध की इच्छा थी। जेल से पीएचडी के लिए आवेदन किया। पिता चाहते थे कि देश में रह कर ही पढ़ूं। सो दिल्ली के इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ (अब जेएनयू) में प्रवेश लिया। छात्रावास का अध्यक्ष बना, इसके उद्घाटन के लिए मैंने मोरारजी देसाई को आमंत्रित किया। मोरारजी ने हिंदी में ही अपनी बात खत्म की। इसके बाद मैंने अपना शोध हिंदी में ही पूरा किया। लेकिन विवि ने लेने से इंकार कर दिया, कहा— यहां अंग्रेजी में ही पढ़ाई होती है इसलिए उसी में लिखना होगा। मैं नहीं माना तो विवि से बाहर कर दिया। मैं तमाम सांसदों से समर्थन लेने गया। राममनोहर लोहिया, अटलजी, मधु लिमये, जैसे बड़े लोगों ने मेरा समर्थन किया। संसद की कार्रवाई जैसे ही शुरु होती मेरे विषय पर हंगामा होने लगता। कई दिन संसद ठप रही। परेशान होकर लोकसभा स्पीकर ओमसिंह ने मुझे बुलाया, बोले— वैदिक कोई हल बताओ। इसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुझे समझाया। मैं नहीं माना। इंदिरा ने विवि के अनुदान पर रोक लगा दी और मेरा शोध स्वीकारने को कहा। मजबूर हो विवि को अपने संविधान में संशोधन करना पड़ा। शोधग्रंथ भी स्वीकार करना पड़ा। यह हिंदी की जीत थी।