ललित गर्ग
राजधानी दिल्ली ही नहीं बल्कि अन्य महानगरों में बढ़ते प्रदूषण के कारण जान और जहान दोनों ही खतरे में हैं। महानगरों की हवा में घुलते प्रदूषण के ‘जहर’ का लगातार खतरनाक स्थिति में बना होना चिन्ता का बड़ा कारण हैं। हवा, पानी, मिट्टी, हर जगह बढ़ते प्रदूषण को लेकर समय-समय पर चिंता जताई जाती रहती है, बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती है, देश एवं दुनिया के विभिन्न शोध संस्थान इसे लेकर अनुसंधान करत हैं। ऐसा ही एक अनुसंधान शिकागो विश्वविद्यालय ने किया है। वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक के तहत किए गए इस शोध में बताया गया है कि प्रदूषण के मामले में भारत पहले स्थान पर है और यहां बढ़ते वायु प्रदूषण की वजह से लोगांे का जीवन संकट में है, उम्र का अनुपात कम हो रहा है। इस अध्ययन में कहा गया है कि अगर वायु प्रदूषण पर काबू पा लिया जाए तो लोगों की उम्र पांच से छह साल तक बढ़ सकती है।
प्रदूषण से जुड़ी हर साल ऐसी अनेक चेतावनियां सामने आती है, शोध निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं। जिनका उद्देश्य होता है कि सरकारें जागे, इस दिशा में कुछ व्यावहारिक कदम उठाएं जायें, मगर हकीकत यह है कि इन अध्ययनों के आंकड़े बाकी सूचनाओं की तरह महज कुछ देर के लिए सरकारों के जेहन में तैरते हैं और फिर तिरोहित हो जाते हैं। जब सर्दी आने को होती है और दिल्ली तथा कुछ अन्य महानगरों में कुहरे में मिलकर प्रदूषण धरती की सतह के आसपास घना हो जाता है, लोगों की सांस की तकलीफ बढ़ जाती है, अनेक बीमारियां उग्र हो जाती है, तब सरकार कुछ हरकत में आती है, हाथ-पांव हिलाने लगती है। विडम्बना तो यह है कि प्रदूषण की अनेक बंदिशों एवं हिदायतों के बावजूद प्रदूषण नियंत्रण की बात हर बार की तरह खोखली साबित हो जाती है। यह कैसी शासन-व्यवस्था है? यह कैसा जन-रक्षा का खोखला प्रदर्शन है? यह सभ्यता की निचली सीढ़ी है, जहां तनाव-ठहराव की स्थितियों के बीच हर व्यक्ति, शासन-प्रशासन प्रदूषण नियंत्रण के अपने दायित्वों से दूर होता जा रहा है। यह कैसा समाज है जहां व्यक्ति के लिए पर्यावरण, अपना स्वास्थ्य या दूसरों की सुविधा-असुविधा का कोई अर्थ नहीं है।
जीवन-शैली ऐसी बन गयी है कि आदमी जीने के लिये सब कुछ करने लगा पर खुद जीने का अर्थ ही भूल गया, यही कारण है दिल्ली और अन्य महानगरों की जिन्दगी विषमताओं और विसंगतियों से घिरी होकर कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। क्यों आदमी मृत्यु से नहीं डर रहा है? क्यों भयभीत नहीं है? देश की जनता दुख, दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, प्रदूषण जैसी समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती है, भयभीत करती है। हमारे देश में प्रदूषण की वजह छिपी नहीं है, पर सच्चाई यह है कि सरकारों में उसे रोकने की इच्छाशक्ति नहीं है। महानगरों ही नहीं, अब तो छोटे कस्बों से लेकर गांवों तक में वायु प्रदूषण मानक स्तर से काफी अधिक रहने लगा है। इसका पहला बड़ा कारण वाहनों से निकलने वाला धुआं है। अनेक बार सलाह दी गई कि वाहनों की खरीद-बिक्री को नियंत्रित किया जाए। सार्वजनिक वाहनों को अधिक सुगम और व्यावहारिक बनाया जाए। मगर इस पर किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। जब वायु प्रदूषण जानलेवा साबित होने लगता है, तो दिल्ली सरकार खुद के लिये सबसे आसान तरीका सम-विषम योजना लागू कर देती है। जबकि प्रदूषण नियंत्रण इतने से प्रयत्न से संभव नहीं है।
दुनिया में भारत सर्वाधिक प्रदूषित राष्ट्र है, जो कि एक चिंताजनक बात है। दिल्ली एवं अन्य महानगरों में प्रदूषण जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गयी है। हर कुछ समय बाद अलग-अलग वजहों से हवा की गुणवत्ता का स्तर ‘बेहद खराब’ की श्रेणी में दर्ज किया जाता है और सरकार की ओर से इस स्थिति में सुधार के लिए कई तरह के उपाय करने की घोषणा की जाती है। हो सकता है कि ऐसा होता भी हो, लेकिन सच यह है कि फिर कुछ समय बाद प्रदूषण का स्तर गहराने के साथ यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर इसकी असली जड़ क्या है और क्या सरकार की कोशिशें सही दिशा में हो पा रही है। इस विकट समस्या से मुक्ति के लिये ठोस कदम उठाने हांेगेे।
बढ़ते वाहनों के अलावा वायु प्रदूषण का दूसरा बड़ा कारण कल-कारखानों, ईंट भट्ठों से निकलने वाला धुआं है। भारत अभी विकसित होती हुई अर्थव्यवस्था है, इसलिए विकास कार्यों, औद्योगिक उत्पादन पर विशेष बल रहता है। हालांकि इसमें कल-कारखानों के लिए प्रदूषण नियंत्रण संबंधी नियम-कायदे लागू हैं, पर उन पर कड़ी निगरानी न रखी जाने की वजह से वे इनके पालन से बचते रहते हैं। हालांकि अब बैट्री और नैसर्गिक गैस से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा दिया जाने लगा है, गाड़ियों में धुएं को पानी में बदलने वाले यंत्र लगाए जाते हैं, मगर अब ये उपाय भी कारगर साबित नहीं हो रहे।
विज्ञान के इस युग में मानव को जहां कुछ वरदान मिले हैं, वहां कुछ अभिशाप भी मिले हैं। प्रदूषण एक ऐसा ही अभिशाप हैं जो विज्ञान की कोख में से जन्मा हैं, राजनीतिक उपेक्षाओं एवं लापरवाही से पनपा है और जिसे सहन-जीनेे के लिए अधिकांश जनता मजबूर हैं। प्रदूषण का अर्थ है -प्राकृतिक संतुलन में दोष पैदा होना। दिल्ली एवं अन्य महानगरों में न शुद्ध वायु है, न शुद्ध जल है, न शुद्ध खाद्य है, न शांत वातावरण है। प्रदूषण कई प्रकार का होता है! प्रमुख प्रदूषण हैं- वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण। दिल्ली के मुख्यमंत्री तो समर्थ है जयपुर जाकर ध्यान-साधना एवं प्रदूषण-मुक्त परिवेश में नयी ऊर्जा लेने के लिये, लेकिन आम जनता कहां जाये?
वायु प्रदूषण से आम-आदमी की उम्र का अनुपात कम हो रहा है। ध्वनि प्रदूषण भी स्वास्थ्य संबंधी अनेक परेशानियां पैदा कर रहा है। मिट्टी के भीतर घुलता जहर अनाज, फल और सब्जियों के जरिए शरीर में पहुंचकर कई जानलेवा बीमारियों को जन्म दे रहा है। पानी तो अब देश में कहीं भी साफ किए बगैर पीने लायक नहीं रह गया। नदियों में बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए वर्षों से महत्वाकांक्षी योजनाएं चल रही हैं, पर उनका कोई उल्लेखनीय असर नजर नहीं आता। इन सारे तरह के प्रदूषणों पर लगाम न लग पाने की बड़ी वजह सरकारों की उदासीनता और संबंधित महकमों का भ्रष्ट होना है। वायु प्रदूषण कम करने को लेकर सरकारों की सतर्कता अधिकतर पराली जलाने और वाहनों का प्रदूषण स्तर जांच कर उन पर जुर्माना लगाने तक ही नजर आती है। बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाने वाले कल-कारखानों पर उनकी कृपादृष्टि ही बनी रहती है। भारत दुनिया के चुनिंदा देशों में है, जहां शायद सबसे अधिक कानून होंगे, लेकिन हम कितना कानून-पालन करने वाले समाज हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। दिल्ली एवं अन्य प्रांतों की सरकारें एवं केन्द्र सरकार हर प्रदूषण खतरों से मुकाबला करने के लिए तैयार है, का नारा देकर अपनी नेकनीयत का बखान करते रहते हैं। पर उनकी नेकनीयती की वास्तविकता किसी से भी छिपी नहीं है, देश की राजधानी और उसके आसपास प्रदूषण नियंत्रण की छीछालेदर होती रहती है। इस जटिल एवं जानलेवा समस्या का कोई ठोस उपाय सामने नहीं आता। मसलन, कुछ समय पहले दिल्ली में सरकार की ओर से प्रदूषण की समस्या पर काबू करने के मकसद से चैराहों पर लगी लालबत्ती पर वाहनों को बंद करने का अभियान चलाया गया था। वाहनों के लिये सम-विषम योजना लागू की गयी थी, सवाल है कि ऐसे प्रतीकात्मक उपायों से प्रदूषण की समस्या का कोई दीर्घकालिक और ठोस हल निकाला जा सकेगा?