ब्रह्म तो मायाधीश है, जीव है मायाधीन
गतांक से आगे….
ब्रह्म तो मायाधीश है,
जीव है मायाधीन।
माया बंध को तोडक़र,
बिरला हो स्वाधीन ।। 970।।
व्याख्या :-इस संसार में जीव, ब्रह्म, प्रकृति अनादि हैं। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में सत्ता है किंतु सर्वोच्च सत्ता ब्रह्म की है। जीव और प्रकृति का अधिष्ठाता ब्रह्म है। जीवों के आवागमन के क्रम का वह सर्वोच्च संचालक है, नियंता है। वह प्रकृति से परे है अर्थात प्रकृति के नियमों में वह रमा हुआ है, उनमें उसकी सत्ता है जिसके कारण प्रकृति के नियम शाश्वत हैं। प्रकृति पर ब्रह्म का सर्वोच्च और अंतिम नियंत्रण है। इसलिए ब्रह्म को छान्दोग्य उपनिषद में मायाधीश कहा गया है किंतु विडंबना यह है कि जीव भ्रमित होकर माया के वश में हो जाता है। इसलिए जीव को मायाधीन कहा गया है। जो व्यक्ति माया के पर्दे को तोडक़र अर्थात संसार की आसक्ति से विरक्त होकर ब्रह्म को जान जाता है, यानि कि उस चिंतन सत्य में अवस्थित होता है, रमण करता है वह मोक्ष को प्राप्त होता है किंतु ऐसा कोई बिरला ही होता है।
साहस पिता से प्राप्त हो,
मां से कोमल भाव।
हृदय और मस्तिष्क से,
तरै जीवन की नाव ।। 973।।
व्याख्या :-मनुष्य की उत्पत्ति मां की रज और पिता के वीर्य के संयोग से होती है। दोनों के वंशसूत्रों का प्रतिबिम्ब आजीवन मनुष्य के व्यक्तित्व में झलकता है। प्रत्येक निषिक्त बीज कोष में वंशसूत्रों के चौबीस जोड़े उपस्थित होते हैं। इसमें आधे वंश सूत्र पिता के और आधे माता के होते हैं। प्रत्येक वंशसूत्र में सैकड़ों की संख्या में अदृश्य कण होते हैं, जिन्हें पित्रक कहते हैं। इन पित्रकों में माता-पिता के गुण तिरोहित रहते हैं, जो उनकी संतान में अवतरित होते हैं। इन्हीं पित्रकों के द्वारा बालक अपना रूप, रंग, कद तथा अन्य शारीरिक एवं मानसिक गुण प्राप्त करता है। साहस एवं बुद्घि जैसे गुणों को बच्चा अपने पिता से प्राप्त करता है जबकि सुकोमल भाव प्रेम, श्रद्घा, उदारता जैसे गुण मां से प्राप्त करता है। मनुष्य का पूर्ण विकास हृदय और मस्तिष्क के समन्वय से होता है अन्यथा मानवीय विकास पंगु कहलाता है। मस्तिष्क से अभिप्राय विचार से है बुद्घि से है, विज्ञान से है जबकि हृदय से अभिप्राय भाव से है, अध्यात्म से है।
ध्यान रहे, यदि हमें जीवन में सुख सुविधाओं को प्राप्त करना है तो विज्ञान की शरण में जाना पड़ेगा और यदि शोकमुक्त होना है, देवत्व को प्राप्त करना है, उस परमानंद को प्राप्त करना है तो अध्यात्मक की शरण में जाना पड़ेगा। महर्षि कणाद ने कहा था-‘‘विज्ञान जीवन को गति देता है जबकि अध्यात्म (आत्मज्ञान) जीवन को सही दिशा देता है, परमानंद से मिलाता है। अत: हृदय और मस्तिष्क के समन्वय से ही जीवनी नैया भवसागर से पार उतरती है। सर्वदा याद रखो, संसार को बुद्घि से जीतो, भगवान को भाव से प्राप्त करो। यदि इस सूत्र के विपरीत चलोगे, तो पछताओगे।
वर्तमान को सुधार ले,
भविष्य सुधरता जाय।
सुख शांति के साथ में,
चहुं ओर मधुरता छाय :।। 974।।
व्याख्या :-इस संसार में अधिकांशत: लोग ऐसे हैं जो सुनहले भविष्य के सपने तो देखते हैं किंतु प्रमादवश अपने वर्तमान में कोई परिवर्तन नही लगते हैं।
क्रमश: