स्वाध्याय से दूर होता युवा वर्ग
स्वाध्याय बहुत ही मूल्यवान है। समाज में सामान्यत: स्वाध्याय का अर्थ अच्छी पुस्तकों को पढऩा माना जाता है। किन्तु स्वाध्याय केवल अच्छी पुस्तकों का अध्ययन मात्र ही नहीं है। स्व+अध्याय=अपने आप का अध्ययन=अपने आपको पढऩा, समझना। अपने विषय में ही यह जानना कि मैं क्या हूँ, कौन हँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जा रहा हूँ और क्या कर रहा हूँ? स्वाध्याय का प्रारम्भ अपने आपसे हो या सदग्रन्थों या पुस्तकों के अध्ययन से हो? कहा गया है कि दुष्ट को भी सत्संग साधु बना देता है, किन्तु साधुओं में दुष्ट की संगति से भी दुष्टता का समावेश नहीं होता। सदग्रन्थ हमें सत्संग का लाभ प्रदान करते हैं। जहाँ लाभ है वहाँ ही लाभ का उल्टा ‘भला’ है। इसलिए स्वाध्याय का प्रारम्भ सदग्रन्थों के अध्ययन से ही करना चाहिए। ये सदग्रन्थ अपनी संगति से ही हमें निखार कर सोने से कुन्दन बना डालते हैं। हम सदग्रन्थों में यदि उच्च विचारों के महामानवों के जीवन चरित्र, उनके कार्य और व्यक्तित्व का अवलोकन करते हैं, उनके विचारों को जानते, समझते और अनुकरण में लाते हैं तो उनका प्रभाव धीरे-धीरे हमारे जीवन पर प्रकट होने लगता है। हममें आत्मावलोकन और अन्तरावलोकन का महान गुण विकसित होने लगता है। इसलिए तैतिरीय उपनिषद् के ऋषि ने कहा है स्वाध्यायान्मा प्रमद: अर्थात् स्वाध्याय में आलस्य नहीं करना चाहिए।
स्वाध्याय में लगे मानव को ही स्वाध्याय के लाभों का सही-सही ज्ञान होता है। स्वाध्याय जिस दिन छूट जाये या किसी भी कारण अथवा परिस्थितिवश हो नहीं पाए उसी दिन हमें ज्ञात होता है कि हमारा चित्त और दिनों की भाँति उतना पवित्र, निर्मल और निर्विकार नहीं रह पाया। मानो विकारों की शत्रु सेना ने स्वाध्याय की चादर हटते ही उस दिन हम पर आक्रमण बोल दिया हो और हम अपनी उच्च आभा को ही गँवा बैठे हों। इसलिए शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है ‘‘तदह ब्राह्मणों भवति यदह: स्वाध्याय ना अधीते। तस्मात्स्वाध्यायोअध्येत्व:।’’ ‘‘उस दिन ब्राह्मण अब्राह्मण हो जाता है अर्थात् अपने ब्राह्मणत्व से अर्थात् अपने ब्राह्मणत्व से गिर जाता है जिस दिन स्वाध्याय नहीं करता।’’ सदग्रन्थों के अध्ययन से मनुष्य में स्वयं का ही अध्ययन करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। मनुष्य स्वयं के विषय में ही विचार करने लगता है कि अमुक घटना में मेरा क्या दोष है? क्या त्रुटि है, मैं स्वयं कितना सही या गलत हूँ? वह अपनी गलतियों को सहज रूप से स्वीकार करने वाला बन जाता है। अहंकार यूँ विलीन हो जाता है कि मानो था ही नहीं। अहंकार शून्यता के कारण वाणी परिष्कृत हो जाती है। उसमें माधुर्य आ जाता है। सबके प्रति प्रेम का भाव जागृत हो जाता है। प्रेम की भावना उसे मानव से देव बना देती है। वह सबसे सहज भाव से मिलता है और सबको सहज भाव से ही गले लगाता है। निर्धन और असहाय के प्रति उसके हृदय में करूणा का सागर हिलोरें मारने लगता है। सारे दिन हृदय में मुदिता का भाव बना रहता है। किसी के भी उत्थान को देखकर उसे किसी प्रकार की अप्रसन्नता या विद्वेष के भाव की अनुभूति नहीं होती। वह दुष्ट स्वभाव मनुष्यों से लड़ता या झगड़ता नहीं है ना ही उनकी संगति करता है। वह सहज रूप से ही उनसे दूरी बना लेता है। उनके प्रति उपेक्षा का भाव अपना लेता है। इस प्रकार प्रेम, करूणा, मुदिता और उपेक्षा उसके हृदय कमल की नाभि की चार पँखुडिय़ों बन जाती हैं। ऐसे दिव्य पुरूष से पूछिए कि विष्णु की शय्या क्या है तो वह बता देगा कि जिसके भीतर प्रेम, करूणा, मुदिता और उपेक्षा के उपरोक्त चार गुण विकसित हो जाएँ वही उस शय्या का स्वामी हो जाता है, क्योंकि विद्वानों का मत है कि स्वाध्याय और संयम से ही परमात्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। जो व्यक्ति ईश्वर का साक्षात्कार कर ले। जिसे यह ज्ञान हो जाए कि मेरे इस जीवन पर पिछले किसी जन्म की छाया है और इस जीवन पर पड़ेगी।
मैं जो कुछ ‘कल’ था उसका परिणाम ‘आज’ है, और जो आज हूँ, उसका परिणाम कल आएगा। वैसे ही जैसे कि इतिहास की पुस्तक में पिछले अध्याय की छाया अगले अध्याय पर निश्चित रूप से पड़ती है, उसी प्रकार हमारा जीवन है। जब यह रहस्य स्पष्ट हो जाता है तो व्यक्ति ऐसे कार्यों से बचता है कि जो उसे इस जीवन में या अगले जीवन में कष्ट पहुँचाने में सहायक होंगे। इसलिए कहा गया है ‘नित्य स्वाध्याय शीलश्च दुर्गान्याति रन्ति ते।’ अर्थात् नित स्वाध्याय करने वाला व्यक्ति दु:खों से मुक्त हो जाता है। स्वाध्याय का प्रभाव हमारी वाणी पर सीधे-सीधे आता है। हम किसी को भी वाणी से कष्ट पहुँचाने को भी पाप मानने लगते हैं। अनर्गल बोलना और अतार्किक बोलना हमें अनुचित लगने लगता है। हमें ज्ञात हो जाता है कि वाणी का तप क्या है? द्वन्द्वों को सहन करके भी हम चुप रह जाना पसन्द करते हैं। हमें अपमान को झेलना आ जाता है। अपमान का घूँट पीना तो अपमान का विष बीज बोकर उसे अपने हृदय में सुरक्षित रखना होता है। जो कभी बड़ी भयंकरता से बाहर निकलता है। विषवमन के समय इतनी दुर्बलता हमारे भीतर आती है कि हम क्रोध् में काँपने लगते हैं। इसलिए स्वाध्यायशील व्यक्ति अपमान को पीता नहीं है, अपितु अपमान को झेल जाता है।
कालान्तर में उसे यूँ भूल जाता है कि मानो कुछ हुआ ही नहीं था। जो व्यक्ति समाज में यह कहते मिलते हैं कि ‘मैंने उस समय भी कुछ नहीं कहा था और अमुक समय भी कुछ नहीं कहा था’, उनके विषय में मानना चाहिए कि उन्होंने आपत्तिकाल के लिए दुष्ट भावों को अपने हृदय में सहेज कर रखा था जो कि गलत है। हमें चिन्तन को सकारात्मक रखना चाहिए। इससे हमारी सकारात्मक चिन्तन ऊर्जा का प्रवाह नकारात्मक दिशा में जाने से बच जाता है। श्रीमद् भागवद् गीता में कहा गया है कि वेद शास्त्रों का स्वाध्याय और परमेश्वर के नाम के जप का अभ्यास वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। इसलिए हमारे यहाँ प्राचीन काल से ही स्वाध्याय हमें विषम से विषम परिस्थिति में भी धैर्य प्रदान करता है। उच्छृंखल और पाखण्डी व्यक्ति अपने दम्भ के प्रदर्शन के लिए दूसरे की कम सुनता है और स्वयं को अधिक प्रदर्शित करने का प्रयास करता है। जो व्यक्ति दूसरों को अधिक प्रदर्शित करने का प्रयास न करे और स्वयं का ही गुणगान करें, उसके विषय में मानना चाहिए कि वह दम्भी है और जो कुछ वह पढ़ता है वह दूसरों को सुनाने के लिए ही पढ़ता है। जिससे कि दूसरों की प्रशंसा का पात्र बन सके। प्रशंसा का पात्र बनने की चाह ‘बच्चों का गुण’ है। यदि यह गुण जीवन भर एक अपेक्षा से अधिक बना रहा तो समझो कि स्वाध्याय अभी अधूरा है। नदी की लहरों को देखो। जहाँ नदी गहरी होती हैं, वहीं लहरें भी शान्त हो जाती हैं। दम्भ वहीं तक है जहाँ तक भीतर प्रशंसा का पात्र बनने की झूठी चाह है। जहाँ ये चाह समाप्त हो जाती है वहाँ राह के सारे काँटे हट जाते हैं। व्यक्ति बिना किसी दिखावे के और बिना किसी सांसारिक ऐषणा के चक्कर में अपने जीवन पथ पर शान्त मना आगे बढऩे लगता है।
स्वाध्याय से हमारा अन्त:करण अधीर होने से बचता है। हमारे लिए सद्पुस्तकें सद्प्रेरणा का स्त्रोत बन जाती हैं। जो हमें हर क्षण उन्नति और प्रगति की ओर बढऩे को कहती रहती हैं। उन्नति और प्रगति की ओर, धर्म पथ की ओर, क्योंकि धर्म के तीन आधार बताए गए हैं। -यज्ञ, अध्ययन और दान। संसार का प्रत्येक शुभकार्य यज्ञ है। बिना किसी स्वार्थ भाव के जो भी शुभ कार्य जनहित और प्राणि मात्र के हित में किया जाए, वह यज्ञ है। हमारे जीवन में ऐसा नि:स्वार्थ भाव जितने अंश और जितने अनुपात में आता है उतने ही अंश या अनुपात में हमारा जीवन यज्ञमय होता जाता है। जिससे हमारे भीतर धार्मिकता का संचार होता है। इसी प्रकार अध्ययन से भी हमारे भीतर निर्विकारता और निर्मलता का संचार होता है। फ लस्वरूप हम धार्मिक बनते जाते हैं। करूणा जैसे उच्च मानवीय गुण के कारण हमारे भीतर दान की भावना का संचार होता है। दान की भावना हमें मानव और प्राणि मात्र की सेवा का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध कराती है। जिससे मनुष्य की मानवता का विकास होता है और मानवता ही हमारा सबसे बड़ा धर्म है। महाभारत में कहा गया है ‘‘धर्म के सेवन से ही अर्थ, धन, समृद्घि और समस्त अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति होती है। धर्म से ही कामनाओं की पूर्ति होती है। फि र उस एक ही धर्म का सेवन क्यों न किया जाए?’’ आज का युवा स्वाध्याय से बच रहा है। दुर्भाग्य से उसे जो शिक्षा दी जा रही है वह भी उसे स्वाध्याय का सही अर्थ नहीं समझा पा रही है। वह पढ़ रहा है और केवल इसलिए पढ़ रहा है कि बड़े होकर पैसा कमाना है। किन्तु क्या पढ़ा जाए? इसे वह नहीं जानता। उसे ज्ञात होना चाहिए कि भौतिक जगत इसलिए भौतिक है कि वह जिन पंच भौतिक तत्वों अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से बनता है उसी में मिटता और मिलता रहता है। उसी से बनता रहता है और उसी में विलीन होता रहता है। भौतिक विज्ञान हमें यही सिखाता है कि भौतिक क्रिया वही है जो अपनी मूल रूप से अलग हटकर जो बनती है, समय आने पर पुन: वही बन जाती है। इसी प्रकार भौतिक विज्ञान का उपासक भौतिक विज्ञान में ही चक्कर लगाता रहता है। वह भौतिक जन्म मरण में ही पिसता रहता है। इसका एकांगी दर्शन करना विनाश को आमंत्रण देना होता है। अत: भौतिक विज्ञान को अपनाना सर्वनाश को अपनाने के समान है। जब भौतिक विज्ञान की वृद्घि होती है तो आतंकवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद, सम्प्रदायवाद जैसे घातक वादों की उत्पत्ति हुआ करती है। जैसा कि आजकल हमारे भारतीय राष्ट्र में दीख रहा है। क्योंकि भौतिकवाद मुनष्य के अहंकार की वृद्घि करता है। जब कि अध्यात्मवाद मानव में अहंकार शून्यता का विकास करता है। धर्म में भौतिकवाद के साथ अध्यात्मवाद का सम्मेलन इसलिए किया है कि इसके मेल से भौतिकवादी मानवीय मनोवृत्तियों को शान्त रखा जा सकेगा। एक सामंजस्य और सुन्दर समन्वय मानवीय जीवन में बना रहे। जिससे मानव जीवन उत्तरोत्तर उन्नति को प्राप्त हो सके। भौतिकवादी साहित्य भौतिकवादी चिन्तन को जन्म देता है। व्यक्ति को हृदयहीन पत्थर का मानव बनाता है। आज का युवा अध्यात्म का अर्थ मन्दिर जाना और किसी दिन कभी-कभी कोई कथा सुन लेने को मानता है। इससे आत्मिक तृप्ति नहीं होती है। शतांश का शतांश ही मानो आत्मा को मिल पाता है। इससे उसकी भूख शान्त नहीं होती। विद्यालयों में शिक्षा प्रणाली में अध्यात्मवाद को तनिक भी स्थान नहीं दिया गया है। जिससे विद्यालयों का तो परिवेश ही अध्यामवादी नहीं है। इसलिए अध्यात्मवाद के अभाव में हमारा राष्ट्रीय धर्म ही लँगड़ा हो गया है। फ लस्वरूप लंगड़े युवा वर्ग का ही निर्माण हम कर रहे हैं। यह लंगड़ापन उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है। भौतिकवादी ज्ञान तो हमारी सन्तति में बढ़ रहा है। किन्तु आध्यात्मिक ज्ञान ‘शून्य’ की ओर जा रहा है। जिससे युवा वर्ग की दशा बड़ी दयनीय हो गयी है।