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योगेश्वर श्री कृष्ण जी पूरे विश्व में विख्यात हैं। इसका कारण उनका श्रेष्ठ आदर्श जीवन, उनके कार्य और श्रीमद्भगवद् गीता में उनके द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश है। योगेश्वर कृष्ण लगभग 5,200 वर्ष से कुछ पूर्व इस भारत भूमि के मथुरा नामक नगर में जन्मे थे। उनकी माता देवकी, पिता वसुदेव तथा मामा कंस थे। पिता व दादा वैदिक धर्मावलम्बी धार्मिक प्रकृति वाले थे तथा कंस अधर्म के मूर्तरूप थे। जो मनुष्य धर्म का पालन करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है और जो धर्म का पालन न कर अधर्म का सेवन करता है धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता। यह मनुस्मृति की वेदसम्मत शिक्षा व ज्ञान है। जीवन का यह अधर्म ही कंस, उसके बाद में दुर्योधन व उसके सभी भाईयों व साथियों की पराजय व युद्ध में मृत्यु का कारण बना। दूसरी ओर श्री कृष्ण व उनके मित्र पाण्डव धर्म के पालन करने वाले व सदाचारी थे। वह सत्यपथानुगामी थे। ईश्वरीय ज्ञान वेद मनुष्य को सतपथानुगामी बनने की शिक्षा व आज्ञा देता है। वेदोद्धारक ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने भी अपने जीवन में अपूर्व रीति से वेद प्रचार किया और सत्य के ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने पर विशेष बल दिया। सत्याचरण को ही वह धर्म स्वीकार करते थे और असत्याचरण ही अधर्म व इसका पर्याय है। सत्य ही धर्म का मूल है और लोभ ही अधर्म का कारण होता है। श्री कृष्ण सत्य को धारण किये हुए धर्म के मूर्त रूप थे। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि धर्म के अन्तर्गत ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का विशेष महत्व होता है। ईश्वर की पूजा व भक्ति से अभिप्राय भी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही होता है। ईश्वर अजन्मा व अमर है। वह कभी जन्म नहीं लेता। जन्म ले भी नहीं सकता क्योंकि सर्वव्यापक सत्ता किसी एक शरीर में समा भी नहीं सकती।
मनुष्य शरीर में जन्म व अवतार लेने पर उसका थोड़ा सा भाग शरीर में तथा शेष भाग ब्रह्माण्ड में फैला रहेगा। सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए ऐसा कोई कार्य अशक्य नहीं है जिसके लिए उसको जन्म लेना पड़े। यदि ईश्वर बिना मनुष्य जन्म व अवतार लिए संसार व ब्रह्माण्ड की रचना कर सकता है, इसका पालन व प्रलय कर सकता है, मनुष्यों को व सभी योनियों में जीवात्माओं को जन्म देकर उनको उनके पाप-पुण्य रूप कर्मों का फल दे सकता है, तो कौन सा ऐसा कार्य बचता है जिसे वह बिना जन्म व अवतार लिये नहीं कर सकता? अतः अवतारवाद का सिद्धान्त असत्य व त्याग करने योग्य है। श्री कृष्ण ही एक ईश्वर भक्त, वेदभक्त, आप्त पुरुष, गोभक्त व गोसेवक, महापुरुष, महात्मा, राजपुरुष व राजा, शूरवीर, बलवान्, योगेश्वर, सद्गृहस्थी, मातृ-पितृ भक्त, कर्तव्यपालक, देशभक्त, सत्य व न्याय के रक्षक, पक्षपात से रहित, प्रजापालक, वेदों के विद्वान, ईश्वर के साक्षात्कर्ता, आदर्श जीवन के धनी, ब्रह्मचर्य से युक्त जीवन के धनी व सदाचारी आदर्श व श्रेष्ठ मनुष्य व युगपुरुष थे। श्री कृष्ण जी के समान महान व्यक्तित्व का जो मनुष्य अनुकरण व अनुसरण करेगा, वह भी उनके अनुरूप ईश्वर भक्त, वेदभक्त, गोभक्त, ब्रह्मचर्य का सेवनकर्ता, देशभक्त, समाजभक्त, प्रजापालक, सत्य व न्याय का पालक होगा। दिनांक 30 अगस्त, 2021 सोमवार को उनका जन्म दिवस है। अतः ऐसे महापुरुष का जन्म दिवस इस दिन उनके जीवन व चरित्र को स्मरण कर उनके जैसा जीवन बनाने का संकल्प लेने का दिवस है। जो ऐसा करेंगे वह देश, समाज सहित अपना स्वयं का हित सिद्ध करेंगे, यह सुनिश्चित है।
श्री कृष्ण जी का जन्म 5247 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध से पहले हुआ था। उन दिनों विश्व में सर्वत्र वेद और वैदिक विद्यायें प्रतिष्ठित थीं। अतः कृष्ण जी के जीवन का निर्माण वेद और वैदिक शिक्षाओं के आधार पर ही हुआ। ऋषि सन्दीपनी के आश्रम में वह पढ़े थे जहां उनके साथ सुदामा नामक एक निर्धन ब्राह्मण भी पढ़े थे। ब्राह्मण अपरिग्रही प्रवृत्ति का होने से भौतिक साधनों व ऐश्वर्य की दृष्टि से निर्धन ही होता है परन्तु ज्ञान सम्पन्न होता है। संसार में बड़े से बड़ा व्यक्ति यहां तक की राजा भी सच्चे ब्राह्मणों के सम्मुख श्रद्धा से अवनत होता व सिर झुकाता है। इतिहास में कृष्ण व सुदामा की मित्रता प्रसिद्ध है। यह वैदिक शिक्षा व आदर्श ही हैं जिसमें श्री कृष्ण के समान एक सर्वोत्तम राजा अपने एक अति निर्धन ब्राह्मण मित्र के प्रति अत्यधिक संवेदनशील व भावुक होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और ऋषि दयानन्द के जीवन में भी इन गुणों के दर्शन होते हैं। इससे उनके भक्तों को भी शिक्षा लेनी चाहिये जो कि अपवादरूप में ही दिखाई देती है।
श्री कृष्ण जी का जीवन अन्याय के विरोध करने व उस पर विजय प्राप्त करने में ही व्यतीत हुआ है। यही गुण श्री राम और ऋषि दयानन्द जी में भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। बाल्यकाल में ही उन्होंने अपने मामा कंस के अत्याचारों का विरोध किया और उसे उसके अधर्मयुक्त कार्यों का दण्ड दिया। आजकल देश की व्यवस्था ऐसी है कि जिसमें सभी अधर्म, अन्याय व अत्याचार करने वाले दण्डित नहीं हो पाते हैं। किसी अपराधी को दण्ड या तो मिलता ही नहीं है और यदि मिलता है तो वह वर्षों बाद अल्प मात्रा में ही मिलता है। वैदिक राज्य वेद ज्ञान के आधार पर चलता था जिसे ऋषि मुनि राजाओं के द्वारा चलाते थे। श्री कृष्ण जी ने अपनी सत्य व न्यायप्रियता के गुण के कारण ही एक अत्याचारी राजा जरासन्ध का वध किया व कराया था। बाद में जब कुरुवंश के पाण्डव व कौरव कुलों में वैमनस्य हुआ तो धर्म पर स्थिर उन्होंने पाण्डवों का साथ दिया। उनकी राज-नीतिज्ञता, युद्धप्रवीणता और उच्च ज्ञान के कारण ही वह पाण्डवों को सही सलाह देते थे और अनेक अवसरों व विपत्तियों में उन्होंने उनकी सहायता व रक्षा भी की। कर्ण, भीष्म पितामह हों या गुरु द्रोणाचार्य, इनकी पराजय व वध में भी श्री कृष्ण जी की युद्ध नीतियां काम आयीं। यहां तक की एक बार युधिष्ठिर जी द्वारा अर्जुन के गाण्डीव धनुष के प्रति अनुचित शब्द कह देने पर हुए विवाद को समाप्त करने में भी श्री कृष्ण जी ने ही अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उस विवाद को समाप्त किया था। यदि उस अवसर पर वह पाण्डवों के साथ न होते तो देश का इतिहास कुछ और, वर्तमान से भी खराब व बुरा हो सकता था। ऐसे अनेक अवसर आये जब पाण्डव किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था को प्राप्त हुए, तब भी श्री कृष्ण जी ने ही पाण्डवों को उन विपरीत परिस्थितियों से उबारा था। इन सब कारणों से महाभारत एक पठनीय ग्रन्थ बन गया है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती तथा पं. सन्तराम, बी.ए. ने महाभारत पर जो ग्रन्थ लिखे हैं वह सभी के लिए पठनीय हैं। इनके अध्ययन से कृष्ण जी, कौरव व पाण्डवों के इतिहास व धर्म-अधर्म सहित सत्य-असत्य को जानने में सहायता मिलती है।
महाभारत युद्ध में यदि किसी एक व्यक्ति को इसकी विजय का श्रेय दिया जा सकता है तो वह श्री कृष्ण जी ही हो सकते हैं। उनके समय के सभी लोग उनका आदर व सम्मान करते थे। वस्तुतः श्री कृष्ण जी संसार में वैदिक शिक्षा के आधार पर राज्य स्थापित करना चाहते थे जिसे वर्तमान में हम राम राज्य का रूप मान सकते हैं। वह इस कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहे थे परन्तु दुभाग्र्य से महाभारत काल के बाद देश में लोगों ने वेदाध्ययन अध्यापन में रूची नहीं ली जिससे अज्ञानता व अन्धविश्वास उत्पन्न हुए और नाना प्रकार की कुरीतियां एवं मिथ्या परम्परायें प्रचलित हो गई। यज्ञों में हिंसा की जाने लगी, जिसके परिणाम स्वरूप नास्तिक मत बौद्ध और जैन मतों का प्रचलन हुआ। इसके बाद अन्धविश्वास और मिथ्या परम्पराओं में वृद्धि होने से पुराणों की रचना हुई जिससे शुद्ध वैदिक धर्म विलुप्त हुआ और उसका स्थान वर्तमान पुराणों पर आधारित सनातन वा पौराणिक मत ने ले लिया। मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, स्त्री व शूद्रों का वेदाध्ययन में अनधिकार, बाल विवाह, विधवाओं पर अत्याचार, छुआछूत जैसी कुरीतियां व अन्य वेदविरुद्ध पम्परायें वेदों क्े लुप्त व अप्रचलित होने व पुराणों के आधार पर ही आरम्भ हुईं। इनसे देश का पतन हुआ और छोटे छोटे राज्य स्थापित होकर देश का संगठन कमजोर हुआ जिसका परिणाम मुस्लिम व अंग्रेजों की दासता व शोषण सहित हिन्दुओं का बड़ी संख्या में धर्मान्तरण के रूप में सामने आया। सौभाग्य से ऋषि दयानन्द जी का सन् 1863 में एक सत्य वैदिक धर्म प्रचारक के रूप में प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने वेदों का पुनर्रुद्धार किया। इससे देश व समाज से अविद्या वा अज्ञानता दूर हुई और देश से अनेक बुराईयां भी समाप्त हुईं। इन्हीं के परिणामस्वरूप कालान्तर में देश स्वतन्त्र हुआ। ऋषि दयानन्द के देश की आध्यात्मिक, सामाजिक व राजनैतिक उन्नति में योगदान पर उनका सही मूल्याकंन किया जाना अभी शेष है। इस पक्षपात के समय में ऐसा होना सम्भव नहीं दीखता। आजकल तो वोट बंैक की राजनीति का युग है जिसने समाज में सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं को गौण बना दिया है।
हम जब श्री कृष्ण जी के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें उनके अध्यात्मिक पुरुष होते हुए भी उनका देश को संगठित कर धार्मिक व सात्विक गुणों वाले पाण्डवों को संगठित व विजयी बनाकर देश को आदर्श राष्ट्र बनाने में विशेष योगदान दिखाई देता है। उनके समय में कौरव व पाण्डवों में राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए धर्म व अधर्म के नाम पर द्वन्द हो रहा था। कृष्ण जी ने धार्मिक व सत्य पक्ष पर होने के कारण पाण्डवों का साथ दिया व महाभारत युद्ध में उन्हें विजयश्री प्रदान कराई। श्री राम व ऋषि दयानन्द के जीवन में भी हम इन महापुरुषों को देश, राष्ट्र व इसके सुधार को मुख्य स्थान देते हुए प्रतीत होते हैं। हमें ऐसा लगता है कि धर्म से पहले राष्ट्र का स्थान है। राष्ट्र यदि राष्ट्र धर्म, वेद के अनुसार, के सिद्धान्तों पर चल पड़ें तो फिर धर्म भी अपनी सही स्थिति को प्राप्त हो जाता है। धर्म की विजय के लिए ही श्री कृष्ण जी राष्ट्र को शक्ति सम्पन्न बनाने का कार्य किया जिसके लिए उन्होंने आसुरी शक्तियों का पराभव किया था। देश की वर्तमान परिस्थितियों में श्री कृष्ण जी के समान एक महापुरुष की आवश्यकता है जो कृष्ण जी के समान बुद्धिमान, ज्ञानी, बलवान व सूझबूझ वाला हो।
योगेश्वर कृष्ण जी के समय में पारसी, बौद्ध, जैन, पौराणिक, ईसाई, मुस्लिम व सिख आदि मत विद्यमान नहीं थे। तब सभी एक धर्म व एक मत ‘वैदिक धर्म’ के अनुयायी थे। कृष्ण जी भी वैदिक धर्मानुयायी ही थे। महाभारतकालीन अन्य सभी पुरुष आदि भी वैदिक धर्मानुयायी थे। कृष्ण जी वैदिक धर्म के आदर्श रूप हैं। वर्तमान के सभी देशवासी वैदिक धमिर्यों की ही सन्तानें व सन्ततियां हैं। यह भी सत्य है कि बाद में विदेशी विधर्मियों के डर, आतंक व प्रलोभनों आदि के कारण उन्होंने अपने मत परिवर्तन किये हैं। अब समय बदल चुका है अतः उन्हें पुनर्विचार करना चाहिये। श्री कृष्ण जी का आदर्श महापुरुष का सर्वश्रेष्ठ जीवन होने के कारण सभी देशवासियों को उनको अपना आदर्श मानकर उनके जीवन का अनुकरण करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने श्री कृष्ण जी को आप्त पुरुष बताते हुए कहा है कि उन्होंने जन्म से मृत्यु पर्यन्त कोई बुरा काम नहीं किया। 18 पुराण ग्रन्थों को वह प्रमाणिक ग्रन्थ नहीं मानते थे। पुराण की अधिकांश बाते न तो बुद्धिसंगत ही हैं और न ही प्रमाणिक। अतः सभी को कृष्ण जी के महाभारत ग्रन्थ वाले स्वरूप को ही स्वीकार करना चाहिये और उनके जीवन पर लिखे पं. चमूपति, डा. भवानीलाल भारतीय, लाला लाजपतराय, पं. सन्तराम बीए तथा स्वामी जगदीश्वरानन्द जी के महाभारत ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य