राजकुमार सिंह
धन बल और बाहु बल के शिकंजे में फंसी हमारी चुनाव प्रणाली अब लोकतंत्र को कितनी प्राण वायु दे पाती है, यह तो बहस और विश्लेषण का विषय है, लेकिन हमारी सत्ता राजनीति को इसी से प्राण वायु मिलती है। चुनाव समाप्त होते ही दूर के दर्शन बन जाने वाले राजनेता चुनावों की आहट के साथ ही मतदाताओं की परिक्रमा शुरू कर देते हैं तो राजनीतिक दल वोट बैंक की गणना। बेशक उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में विधानसभा चुनाव अभी लगभग छह महीने दूर हैं, लेकिन पिछले छह महीने से शुरू कवायद बताती है कि जनता का तो पता नहीं, पर राजनीतिक दलों-नेताओं का भविष्य चुनाव परिणामों पर ही टिका है। उत्तराखंड में जो कुछ हुआ, वह कुछ-कुछ दिल्ली की याद दिलाने वाला है। कभी दिल्ली में सत्ता बचाने के लिए भाजपा ने पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदले थे। फिर भी चुनाव परिणाम क्या आया, सभी जानते हैं। उत्तर प्रदेश की नेत्री शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री बना कर कांग्रेस ने 15 साल तक दिल्ली पर राज किया। उसके बाद सत्ता तो बदली, पर भाजपा के बजाय नवजात आम आदमी पार्टी के हाथ ऐसी गयी कि आसानी से निकलती नहीं दिख रही।
चुनावी राजनीति के कमोबेश वैसे ही दबाव में उत्तराखंड में भाजपा दिल्ली से भी तेज रफ्तार से तीन मुख्यमंत्री बदल चुकी है। लगभग चार साल तक मुख्यमंत्री रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह जिन तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया था, वह भाजपा की फजीहत कराने वाले ही ज्यादा साबित हुए। चार माह से भी कम समय में बेआबरू होकर वह तो उत्तराखंड की सत्ता के कूचे से निकल गये, पर इन नेतृत्व परिवर्तनों से भाजपा के दामन पर लगे दाग धोने की चुनौती अब युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी पर है। त्रिवेंद्र भी आलाकमान की पसंद थे और तीरथ भी, और अब धामी भी। मुख्यत: द्विदलीय राजनीति वाले जिस उत्तराखंड में हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन की परंपरा-सी है, वहां इतनी जल्दी मुख्यमंत्री बदल कर भाजपा आलाकमान ने राजनीतिक समझदारी दिखायी हो—ऐसा लगता तो नहीं। हां, भाजपा के लिए संतोष की बात यह है कि मुख्य मुकाबला जिस कांग्रेस से है, उसके आलाकमान की राजनीतिक समझदारी और प्रयोगवाद ने पंजाब में खुद अपनी सत्ता को खतरे में डाल दिया है। मुकाबला मुख्य विपक्षी दल आप तथा शिरोमणि अकाली दल-बसपा गठबंधन से है, लेकिन कांग्रेस आलकमान की मेहरबानी से तल्ख सार्वजनिक टकराव कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू में हो रहा है। यह अप्रत्याशित नहीं है। सिद्धू को जानने-समझने वालों को इसकी आशंका पहले से थी, पर आलाकमान को उन सिद्धू में ही कांग्रेस का भविष्य नजर आया, जिनका अपने ही कप्तान के विरुद्ध बगावत का जगजाहिर इतिहास है। हालात कुछ ऐसे बन गये हैं कि न निगलते बन रहा है और न ही उगलते। फिर भी सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक का दावा है कि उनके एजेंडा पर जनहित और प्रदेश हित ही सर्वोपरि हैं।
अब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें। देश की सत्ता का रास्ता लंबे समय तक उत्तर प्रदेश से ही निकलता रहा। बेशक वर्ष 2004 से 14 तक मनमोहन सिंह, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बदहाली के बावजूद प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह गठबंधन (संप्रग) राजनीति की बदौलत संभव हुआ। तकनीकी तौर पर नरेंद्र मोदी भी राजग सरकार के प्रधानमंत्री हैं, लेकिन पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा को अकेलेदम लोकसभा में बहुमत प्राप्त है तो उत्तर प्रदेश की ही बदौलत। मोदी का गृह राज्य भले ही गुजरात हो, पर उन्होंने लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश से ही लड़ा। इसका लाभदायक परिणाम यह निकला कि देश के सबसे बड़े राज्य में तीसरे स्थान पर पहुंची भाजपा ने ऊंची छलांग लगाते हुए न सिर्फ रिकॉर्ड लोकसभा सीटें हासिल कीं, बल्कि दशकों से सत्ता पर काबिज सपा-बसपा को हाशिये पर धकेलते हुए लखनऊ में सरकार भी बनायी। 403 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को 313 सीटें मिलना जितना आश्चर्यजनक था, उससे कम आश्चर्यजनक मुख्यमंत्री का चयन भी नहीं रहा। सामाजिक समीकरण के नाम पर तमाम दावेदार कतार में थे। कुछेक ने तो मीडिया में नाम चलने पर विशेष पूजा-अर्चना भी शुरू कर दी थी, लेकिन सत्ता सिंहासन मिला संन्यासी सांसद योगी आदित्यनाथ को। योगी गोरखपुर से भाजपा सांसद थे। हर चुनाव में आक्रामक लोकप्रिय प्रचारक भी रहे, लेकिन वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं—इसका अनुमान भी शायद बड़े-से-बड़े राजनीतिक पंडितों ने नहीं लगाया था। यह अलग बात है कि नाम की घोषणा होने पर इन पंडितों ने योगी को भाजपा का ट्रंप कार्ड साबित करने में देर नहीं लगायी।
मंडल-कमंडल की राजनीति वाले प्रदेश में योगी का राजतिलक बेहद जोखिमभरा दांव था। दल के अंदर सत्ता के दावेदारों की महत्वाकांक्षाएं भी आहत हुई ही होंगी। शायद इसीलिए दो उपमुख्यमंत्री भी बनाने पड़े। तटस्थ भाव से देखें तो कानून व्यवस्था से लेकर बिजली आपूर्ति तक कई क्षेत्रों में सुधार योगी राज में दिखायी पड़े, लेकिन जाति-धर्म के आधार पर राजनीतिकरण से ग्रस्त नौकरशाही से काम लेना किसी के लिए भी आसान नहीं होता। जाहिर है, संन्यासी सांसद से मुख्यमंत्री बने योगी के लिए भी यह आसान नहीं रहा। अपराधियों के खिलाफ सख्ती का दुरुपयोग कर फर्जी मुठभेड़ करने के आरोप सामने आये तो निरंकुश नौकरशाही की कारगुजारियां भी। इसके बावजूद योगी लगभग चार साल का राज निष्कंटक निकाल गये। बयान बहादुर के अलावा विपक्ष भी उन्हें किसी मुद्दे पर कठघरे में खड़ा नहीं कर पाया, न ही कोई जन आंदोलन खड़ा कर पाया, लेकिन कोरोना और किसान आंदोलन की दोहरी परीक्षा में योगी की राजनीतिक समझ और रणनीति, दोनों की सीमाएं उजागर हो गयी हैं। परिणामस्वरूप मतदाताओं द्वारा हाशिये पर धकेल दी गयी सपा-बसपा ही नहीं, उत्तर प्रदेश में लगभग अप्रासंगिक हो चुकी कांग्रेस भी योगी सरकार के विरुद्ध कुछ इस अंदाज में आक्रामक नजर आ रही है, मानो आने वाले चुनाव में सत्ता की दावेदार हो। यह महज दिखावटी परिदृश्य भी नहीं है, वरना उत्तर प्रदेश पिछले कुछ महीने से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के एजेंडा पर सबसे ऊपर नहीं होता।
उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन के समय ही उत्तर प्रदेश में भी ऐसी सरगर्मियां नजर आयीं, मानो वहां भी भाजपा आलाकमान ने योगी की विदाई का मन बना लिया हो। जाहिर है, चुनाव से पहले सामाजिक समीकरण बिठाने के दबाव में किया जाने वाला वह परिवर्तन भाजपा पर भारी भी पड़ सकता था। योगी का वह संकट तो टल गया, लेकिन कोरोना और किसान आंदोलन से उपजी राजनीतिक-सामाजिक चुनौतियों में भाजपा का चुनावी संकट बरकरार है। ब्राह्मण समुदाय लंबे समय तक उत्तर प्रदेश में सत्ता पर काबिज रहा। भाजपा का परंपरागत समर्थक वर्ग होने के बावजूद सत्ता में अपेक्षित हिस्सेदारी न मिलने से वह खफा है, तो नौ महीने से दिल्ली की दहलीज पर जारी किसान आंदोलन ने उस किसान वर्ग को भी भाजपा से विमुख कर दिया है, जिसने पिछले लोकसभा-विधानसभा चुनावों में मोदी के नाम पर उत्साह से वोट दिया था। कोरोना की दूसरी लहर में जिन राज्यों में नदियों में लाशें बहती दिखायी दीं और नदी किनारे अंत्येष्टियां हुईं, उनमें उत्तर प्रदेश अग्रणी है। इससे भी योगी और भाजपा की साख बेहतर तो हरगिज नहीं हुई। इसी का परिणाम है कि प्रचंड बहुमत से बनी सरकार को अगले साल शुरू में होने वाले चुनाव में कड़ी चुनौती मिलने के आसार नजर आ रहे हैं। बेशक यह चुनौती कितनी कड़ी और कारगर होगी—यह इस बात पर निर्भर करेगा कि विपक्ष किस हद तक मतभेद-मनभेद भुला कर एकजुट हो पायेगा, क्योंकि विभाजित विपक्ष का स्पष्ट अर्थ होगा—भाजपा को वॉकओवर।
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