वैदिक संपत्ति : संप्रदायप्रवर्तन

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गीता और उपनिषदों में मिश्रण

गतांक से आगे…

गीता भी तर्क से घबराती है।वह कहती है कि, ‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात संशयात्मा नष्ट हो जाती है। परंतु हम देखते हैं कि तर्कशास्त्र में संशय एक जरूरी विषय है जो सत्यासत्य के निर्णय में काम आता है। बिना संशय के तो किसी बात का निर्णय ही नहीं हो सकता और न कोई सत्य सिद्धांत पर पहुंच सकता है। परंतु उपनिषद के अनेक स्थल निस्संदेह बुद्धिविरुद्ध और जंगली है। उनके लिए तर्क से काम लेना समय खोना है।ऐसे विश्वास अवश्य तर्क की कसौटी से नहीं कसे जा सकते। इनसे अवश्य भ्रम होता है।यहां हम दो तीन बातें नमूने के तौर पर दिखलाते हैं छांदोग्य 616 एक में लिखा है। छान्दोग्य 6/16/1 में लिखा है कि –
हे सौम्य! राजकर्मचारी पुरुष को हाथ बांधकर लाते और कहते हैं कि इसने चोरी की है। राजा लोहे का परशु तप्त करा कर उसके हाथ में रखवाता है। यदि यह सचमुच चोर है, तो जल जाता है। हम देखते हैं कि आग से गर्म किया हुआ लोहे का गोला उठाने की चाल इस देश के मूर्खों में बहुत दिन तक रही है। यह बिल्कुल जंगली रिवाज है।अग्नि ऐसी चीज है जो चोर /साह सब को जलाती है।वह किसी को पहचानती नहीं।यदि वह आर्य-धर्म होता, तो धर्म-शास्त्रों में गवाही लेने, चेष्टा देखने और पता लगाने का जिक्र क्यों किया जाता ? आज भी उसी तरह परीक्षा होती है। पर जब यह सिद्धांत ही गलत है तब इसके द्वारा सत्य का निर्णय कैसे किया जा सकता है ? इसलिए यह रिवाज जंगली है, आसुर है और अज्ञानता का ज्वलंत प्रमाण है। दूसरी जगह छान्दोग्य 5/2/9 में लिखा है कि-

‘यदा कर्मसु काम्येषु सित्रयं स्वप्नेषु पश्यति।समृद्वि तत्र जानीयात्तसिमन्स्वप्ननिदर्शने’

अर्थात स्वपन में यदि स्त्री दिखाई पड़े, तो समझना चाहिए कि बहुत बड़ी समृद्धि होने वाली है। दूसरी जगह लिखा है कि – ‘पुरुषं कृष्णं कृष्णदांत स एनं हन्ति’ अर्थात् स्वपन में काले दांतो वाले काले पुरुष को देखें,तो समझना चाहिए कि मेरी मृत्यु निकट ही है। यह स्वपनपरीक्षा के वे विश्वास है, जिनकी और सेवा मूर्खों के पढ़े- लिखे लोगों का ध्यान भी नहीं जा सकता।

क्रमश:

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन उगता भारत

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