बिखरे मोती : चिता किनारे तक रहें,रूप सृजन श्रंगार
चिता किनारे तक रहें,
रूप सृजन श्रंगार।
मृत्यु ऐसा सत्य है,
करें भीगी आँख स्वीकार॥1494॥
व्याख्या:- न जाने किस डोरी में बंधा हुआ मनुष्य जीवन पर्यन्त कठपुतली की तरह नाचता है किन्तु जैसे ही मृत्यु का क्रूर झपट्टा लगता है, तो सब क्रियाएं गतिशून्य हो जाती हैं।उसके रूप श्रृंगार और सृजन की कहानी भी चिता की लाल पीली लपटों में सदा-सदा के लिए समाहित हो जाती है, रहती है तो केवल मात्र दो मुट्ठी राख रहती है।मृत्यु का क्षण दार्शनिक होता है।शाश्वत होता है। इसे एक न एक दिन सभी को भीगी आँखों से स्वीकार करना पड़ता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उसका जीवन सत्कर्म, सत् चर्चा और सत् चिन्तन में बीते। यही श्रेयस्कर है।
हृदय में जब भी उठें,
प्रभु-भक्ति की हिलोर।
कोयल की तरह कुहुक तू,
हो जा आत्मविभोर॥ 1492॥
व्याख्या:- जीवन में ऐसे क्षण बड़ी मुश्किल से आते है जब चित्त रूपी मानसरोवर में प्रभु-भक्ति की हिलोरें तरंगित होने लगे। ऐसी चित्तावस्था को प्रभु-प्रेरणा ही समझना चाहिए। उस प्रेरक की प्रेरणा समझना चाहिए। समझो प्रभु ने तुम्हें अपना साज बनाया है, भक्ति का ऋतुराज (बसंत) आया है। जिस प्रकार कोयल बसन्त ऋतु में वृक्षों की नूतन कोपलें पौधों के रंग-बिरंगे और सुगंधित पुष्पों की भीनी खुशबू, पर्वत शिखरों के बीच फेले सन्नाटे को तोड़ते हुए सरिता और झरने का कलख पक्षियों की चाचहाट, शान्त और एकान्त किसी ऋषि की कुटिया तथा घिरी और घुमावदार घाटियों से गुजरती हुई बटिया, नीले अम्बर में उगता हुआ सूर्य,निर्जन वन प्रकृति की नीरवता और सुरम्यता में चार- चांद लगाते हैं तथा शीतल मन्द पवन अपनी मनमोहक सुगन्ध से वातावरण में मादकता का रस घोलते है। प्रकृति की ऐसी अनुपम छटा को देखकर कोयल मस्त हो जाती है,आत्मविभोर हो जाती है और अपने आप को रोक नहीं पाती है, कुहकने लगती है, पर्यटकों को मीठा संगीत सुनाती है। ठीक इसी प्रकार प्रभु-भक्ति का बसन्त जब ह्रदय में खिले तो प्रभु की प्रेरणा मानना चाहिए और कोयल की भांति प्रभु-भक्ति में लीन हो जाना चाहिए, आत्मविभोर हो जाना चाहिए। इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाना चाहिए।
क्रमशः
प्रोफेसर विजेंदर सिंह आर्य