‘‘यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि विपिन चंद्रपाल उन थोड़े से लोगों में से थे जिन्होंने अपने भाषणों के और ‘न्यू इंडिया’ तथा ‘वंदेमातरम्’ के लेखों के द्वारा उस समय के युवकों में जादू कर दिया था।’’
ये कितने दु:ख की बात है कि जिस कांग्रेस का इतिहास लेखक यह कह रहा है कि ‘वंदेमातरम्’ के लेखों के द्वारा उस समय के युवकों में विपिन चंद्रपाल जैसे लोगों ने जादू कर दिया था, उसी कांग्रेस को ‘वंदेमातरम्’ कहने या कहाने को अनिवार्य करने में कष्ट अनुभव होता रहा है। यह ठीक है कि विपिन चंद्रपाल ‘वंदेमातरम्’ समाचार पत्र में जब लिखते थे तो उनका सारा चिंतन ‘वंदेमातरम्’ की भावना के निकट ही घूमता था, जो लोगों में आग लगाता था और लोग देशभक्ति की भावना से मचल उठते थे। उसी ‘वंदेमातरम्’ से किसी को भी यदि आज आपत्ति है और उनकी सोच आज भी किसी ‘अधिनायक’ की पूजा करने तक ही सीमित है तो सचमुच उनकी बुद्घि पर तरस आता है।
अब हम हिंदू समाज के विभिन्न संगठनों पर विचार करते हैं। हिंदू समाज उस समय विभिन्न जातीय संगठनों-सभाओं में विभक्त था। जिससे उसके भीतर एकता का भाव परिलक्षित नही हो पा रहा था। जबकि उस समय राष्ट्रीय एकता का भाव विकसित करना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता थी। उस समय ब्राह्मण सभा, क्षत्रिय सभा, जाट सभा, कायस्थ सभा, गुरू -सिंह- सभा जैसी कितनी ही सभाएं थीं जो भारत के हिंदू समाज को खंडित कर रही थीं, इस समाज को अखण्ड बनाने के लिए एक दिशा और दशा में कार्य करना समय की आवश्यकता थी। इसलिए हिन्दू समाज के महान व्यक्तित्व और पंजाब विश्वविद्यालय के अनन्यतम संस्थापक बाबू नवीनचंद्र राय और राय बहादुर चंद्रनाथ मित्र ने इस दिशा में चिंतन करना आरंभ किया। इन दोनों महानुभावों की योजना थी कि सारे हिंदू समाज को एक मंच पर लाया जाए। अपनी इसी सोच और चिंतनशील शैली के कारण इन दोनों महानुभावों ने रामचंद्रजी महाराज के सुपुत्र लव की राजधानी लाहौर में बैठकर सन 1882 में हिंदू सभा की स्थापना की। इस सभा से सात वर्ष पूर्व आर्य समाज की स्थापना हुई थी, और इसके तीन वर्ष पश्चात कांग्रेस की स्थापना की गयी। हमारा मानना है कि कांग्रेस के जन्म में आर्य समाज और हिंदूसभा जैसी संस्थाओं का जन्म लेना भी एक कारण था। कुछ सीमा तक कांग्रेस इन दोनों राष्ट्रवादी संस्थाओं की प्रतिक्रिया थी। आगे चलकर इन तीनों ने ही भारतीय राजनीति और समकालीन इतिहास की धारा को बड़ी गहराई से प्रभावित किया। कांग्रेस की नीतियों से इन दोनों संस्थाओं का मौलिक मतभेद होने के कारण ३६ का आंकड़ा बना रहा, कांग्रेस के भीतर ‘राजभक्ति’ झलकती रही और इन दोनों संस्थाओं के भीतर ‘राष्ट्रभक्ति’ झलकती रही। संपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम ऐसी द्वंद्वात्मक परिस्थितियों के पालने में झूलता रहा। अर्थात ‘राष्ट्रभक्ति’ और ‘राजभक्ति’ के मध्य मल्ल युद्घ चलता रहा। स्पष्ट है कि राष्ट्रभक्ति ‘वंदेमातरम्’ कहने वालों की विचारधारा भी प्रतिनिधि थी, तो ‘वंदेमातरम्’ से किनारा करने वाले लोगों के लिए राजभक्ति ही अपने लिए सब कुछ थी। जो लोग आज भी ‘वंदेमातरम्’ का विरोध कर रहे हैं वह कौन सी राजभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं, यह अब स्पष्ट होना चाहिए। बहुत समय के बाद राष्ट्रभक्ति की धारा शासन की नीतियों में और राजभवनों में बैठे लोगों के माध्यम से बहती हुई दिखाई दे रही है। निश्चय ही यह शुभसंकेत है।
(समाप्त)
मुख्य संपादक, उगता भारत