1857 की क्रांति और स्वामी दयानन्द* राजीव दीक्षित जी की जुबानी।


दीक्षित जी कहते हैँ मैंने 3,4 वर्ष अपने भारतीय अधिकारी साथियों के साथ इंग्लैंड के इंडिया हाऊस और पुरातत्व संग्रहालय मे 1857 के स्वाधीनता आंदोलन के प्रपत्र देखे हैं। 1857 स्वतंत्रता संग्राम के पाँच मुख्य केंद्र थे।मेरठ,दिल्ली, कानपुर, झाँसी और बिठूर।
बिठूर तांत्याटोपे का गांव था। वहाँ अंग्रेज़ो ने तीन वर्ष में पैंतालीस हजार सैनिक मौत के घाट उतार दिये। तांत्या टोपे को भी धोखे से मरवा दिया। 8अप्रैल 1857 को कल्कत्ता में मंगलपांडे को फांसी दे दी।
महर्षि स्वामी दयानन्द का मेरठ की क्रांति धरा से बहुत गहरा संबंध था। मेरठ महर्षि की क्रांति भूमि है। वहीं से महर्षि ने स्वाधीनता आन्दोलन का बिगुल बजाया। 10 मई 1857 को मेरठ में स्वाधीनता क्रांति का जन्म दयानन्द जी की ही देन थी। महर्षि इस मेरठ क्रांति के नींव के पत्थर थे। ऐसा विद्वान , वीर सन्यासी मिलना दूभर है।
दीक्षित जी कहते हैं_”लंदन की लाइब्रेरी में मैंने स्वयं देखा और पढ़ा है कि LIU की भारत में , भारतीयों और महर्षि पर गहरी नजर थी। LIU ही मेरठ में प्रतिदिन क्रांति की कार्यवाही भेजता था कि एक साधु गाँव में कहाँ कहाँ जाता था। ये सब रिपोर्ट यहाँ लाइब्रेरी मौजूद हैं।
1855 से लेकर 1945 तक के प्रपत्र मैंने देखे है। अंग्रेज़ स्वामी जी के पीछे पीछे लगे रहते थे।स्वामी जी गांव गांव नगर नगर में धर्म की रक्षा तथा राष्ट्र रक्षा का उपदेश देते थे। अंग्रेजों ने बोर्ड बना रखा था कि स्वामी जी को कैसे बांधकर रखा जाये।
स्वामी जी संस्कृत भाषा में बोलते थे जिसे वे लोग समझते नहीं थे ।लंदन में संस्कृत के विद्वानों से अर्थ पूछा करते थे कि यह साधु संस्कृत भाषा में क्या कहता है।
महर्षि दयानन्द के जीवन का 1857 से लेकर 1860 तक का इतिहास नहीं मिलता है यह LIU की रिपोर्ट पर आधारित है । इन तीन , चार वर्षों में महर्षि ने क्रांति की अलख ज्वाला जलायी है।अपने अभिलेखों से पूर्व महर्षि ने हजारों बार स्वराज शब्द का प्रयोग किया है।
सिन्धिया ने अंग्रेज़ों से संधि करके महारानी लक्ष्मीबाई को मरवा दिया था। रानी से अंग्रेज़ों की तीन लड़ाई हुई हैं तीनों में अंग्रेज हारे वह एक लौह नारी थी। निस्वार्थ और दृढ़ थी रानी ने माना था कि संघर्ष मैंने महर्षि से सीखा है।
अंग्रेज महर्षि से बुरी तरह भयभीत थे।
विक्टोरिया ने डलहौजी से कहा दयानन्द कोई महत्वपूर्ण संगठन बनाने वाला है —वह आर्यसमाज है, महर्षि ने स्वराज्य की बात कही है। इसलिए हमने अल्पसंख्यकों को इनसे तोड़ा है।विक्टोरिया ने 1868 में ही आर्यसमाज को कमजोर करना तय कर लिया था।….नहीं तो बहुत बड़ी बगावत शुरू होने वाली है। निरंकारी –जैन — बौद्ध सब आर्यसमाज के साथ हैं अतः इस संगठन को तोड़ो। हिन्दू समाज बंटकर कमजोर होगा।

दीक्षित जी कहते हैं –समय है –आर्यसमाज को पहल कर देनी चाहिए। तभी भारत के युद्ध का असली इतिहास सामने आयेगा।इसी इतिहास से भारत के युवक भविष्य का निर्माण करेंगे।
अंग्रेजों ने आर्यसमाज से डरकर आरक्षण और अल्पसंख्यकों का बँटवारा कर भारत को अपनी आंतरिक लड़ाई में फँसा दिया।देश का भविष्य खतरे में खेल रहा है इससे बचने का एक ही मार्ग है…..लंदन के प्रपत्रों के आधार पर अपना असली इतिहास लिखना । भारत के प्रपत्र वहाँ इतने हैं, जिनसे कम से कम 2500 इतिहास पुस्तकें लिखी जा सकती हैं।
लंदन के प्रपत्रों के आधार पर दीक्षित जी कहते हैं दिल्ली यमुना पर लौहपुल के पास जो पोस्टऑफिस था यह क्रांतिकारियों का अड्डा था। और मेरठ की क्रांतिधरा का संचालक केवल अकेला महर्षि दयानन्द था , जो दिल्ली में यहीं ठहरता था।

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