राजकुमार जयशाह से पराजित हुए अरब सैनिकों ने बहुत ही निराश, हताश और उदास अरब सैनिकों ने जाकर खलीफा को अपनी पराजय का संदेश सुनाया। जिसे सुनकर खलीफा को पसीना आ गया । जब अरब के लुटेरे दलों की सर्वत्र जय जयकार हो रही थी, तब एक भारत ही ऐसा देश था जिसकी धरती पर आकर अरबों को बार-बार पराजय का मुँह देखना पड़ रहा था। अबसे पहले भी कई आक्रमणों में अरब आक्रमणकारियों को किसी प्रकार की उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं हुई थी। इसलिए खलीफा को जब यह समाचार प्राप्त हुआ कि इस बार भी उसकी सेना को पराजय का ही मुँह देखना पड़ा है तो वह बहुत अधिक दुःखी हो उठा।
मार पराजय की मिली और अरब हुए बेहाल।
गहरा जख्म दिल पे लगा सिर पे चढ़ गया काल।।
इस बार खलीफा प्रतीक्षा में था कि उसकी सेना के सैनिक निश्चय ही उसके लिए हिंदुस्तान से बेशकीमती तोहफे ले जाकर उसे भेंट करेंगे। उसने नहीं सोचा था कि इस बार भी कटे हुए सिरों की एक गुमनाम सी कहानी ही वे आकर उसे सुनाएंगे । कटे हुए सिरों की गुमनाम कहानी की जानकारी जैसे ही खलीफा के देशवासियों को हुई तो उसके देश में मौत का सा सन्नाटा छा गया। अपनी सेना की पराजय की दुर्गति को खलीफा और हजाज पचा नहीं पा रहे थे। तब उन्होंने नए षड़यंत्र और कुचक्रों पर विचार करना आरंभ किया।
भारत में मन्यु की धारणा
भारतीय वांग्मय में हमारे ऋषियों ने यह स्पष्ट किया है कि क्रोध तब आता है जब कोई आपके स्वार्थ में बाधा उत्पन्न करता है या स्वयं बाधक बन जाता है। अब खलीफा और हजाज के लिए उनके भारत विजय अभियान के सपने को साकार होने देने में दाहिर सेन एक बाधा बन चुके थे। जिन पर उनका क्रोधित हो उठना स्वाभाविक था। इस क्रोध की व्याख्या करते हुए इस्लामिक विद्वान इसे खलीफा और हजाज की वह जुनूनियत कहते हैं जो उन्हें भारत विजय के लिए निरंतर प्रेरित करती रही थी। इधर हम भारतीय हैं कि अपने देशभक्त राजा की देशभक्ति के जुनून को भुलाकर खलीफा और उसके सैनिकों के जुनून के गुण गाने लगते हैं । हम यह तनिक भी नहीं सोचते कि जिस देश के लोगों ने विदेशी आक्रमणकारियों को अब तक लगभग 10 बार बुरी तरह पराजित किया था वे भी महान हो सकते हैं या उन्हें भी देशभक्ति का जुनून हो सकता है?
ये लोग क्रोध को विनाशकारी नहीं मानते और यह भी नहीं मानते कि ऐसा क्रोध जो अनेकों लोगों की हत्या का कारण बने, किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता। इनकी मोटी बुद्धि इन्हें यह निर्णय नहीं लेने देती कि क्रोध तब तक उचित है जब तक वह मानवता के हित में हो। सात्विक क्रोध को हमारे यहां पर 'मन्यु' कहा गया है। उस क्रोध को किन परिस्थितियों में किन व्यक्तियों पर अभिव्यक्त करना चाहिए ? - इस पवित्र दृष्टिकोण को खलीफा, हजाज और उनके समर्थक लेखक कभी समझ नहीं पाए, ना समझ पाएंगे। भारत के महान योद्धाओं ने अब तक जितने भर भी अरब आक्रमणकारियों को पराजित किया था वे सारे के सारे सात्विक मन्यु अर्थात क्रोध के उपासक थे। वे हमारे देश पर आक्रमण करने वालों को या देश की मान मर्यादा का अपमान करने वाले लोगों को किसी भी कीमत पर छोड़ने वाले नहीं थे। ऐसे में यदि गुणगान करने की आवश्यकता है तो हमारे महान योद्धाओं के 'मन्यु' का गुणगान होना चाहिए।
दुष्ट दलन है वीरता पापों का करे अंत ।
मन्यु सबको चाहिए चाहे राजा हो या संत।।
भारत में महर्षि मनु जैसे विद्वानों ने निर्धारित किया है कि दूसरों का धन हड़पने की इच्छा, निषिद्ध कर्म (मन जिन्हें करने से मना करें) करने का प्रयास ,देह को ही सब कुछ मानना,कठोर वचन बोलना,झूठ बोलना,निंदा करना,बकवास (बिना कारण बोलते रहना) चोरी करना,तन, मन, कर्म से किसी को दु:ख देना,पर-स्त्री या पुरुष से संबंध बनाना – यह 10 ऐसे पाप हैं जो काम और क्रोध से जन्म लेते हैं । यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने काम और क्रोध को जीतने को प्राथमिकता दी। खलीफा और हजाज का मजहब काम और क्रोध को खुला छोड़कर शांति बनाए रखने की बात करता था, जो कि सर्वथा असम्भव कार्य था। काम और क्रोध को यदि खुला छोड़ोगे तो उपरोक्त दस पाप निश्चित रूप से होंगे।
काम और क्रोध के बारे में भारत के दृष्टिकोण को भुलाकर विश्व ने ईसाइयत और इस्लाम के इस दृष्टिकोण को जबसे अपनाना आरंभ किया है कि इन दोनों को खुला छोड़ दो, तब से ही संसार में कामज और क्रोधज पापों में वृद्धि हुई है । आज का संसार भी इसी लिए कष्ट अनुभव कर रहा है कि लोग कामज और क्रोधज पाप की अग्नि में भुन रहे हैं । काम और क्रोध को नियंत्रण में लेकर इन पापों से मुक्ति पाने की और कोई भी नहीं सोच रहा। बस, इस्लाम और ईसाइयत की संसार को सबसे बड़ी देन यही है।
हमारा कहने का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक गंभीर इतिहासकार को या इतिहास लेखक को इतिहास लिखते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस पात्र के विषय में वह लिख रहा है उसके काम और क्रोध से जन्मे इन पापों को वह पाप ही माने। इन्हें किसी भी दृष्टिकोण से उचित ठहराने का प्रयास ना करे। यदि इसके उपरांत भी कोई इतिहासकार या इतिहास लेखक ऐसा कार्य करता है तो निश्चय ही वह इतिहास लेखन के अपने पवित्र धर्म का निर्वाह करने में चूक कर रहा होता है।
संस्कृति रक्षक राजा दाहिर सेन
ऐसे में यदि निष्पक्ष होकर विचार किया जाए तो खलीफा और उसके लोग इस समय काम और क्रोध से जन्मे पापों के वशीभूत होकर मानवता की हत्या कराने पर उतारू हो गए थे, इसलिए उन्हें पापी कहना ही उचित होगा। यह लोग अधर्म ,अन्याय और अत्याचार की राह पर चल रहे थे। जबकि उधर हमारा राजा दाहिर सेन था जो पाप से सर्वथा विमुख था और वह अधर्म ,अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध एक वीर योद्धा की भांति युद्ध क्षेत्र में खड़ा हुआ था। कामज क्रोधज पापों के वशीभूत हुए जितने भी अरब आक्रमणकारियों के तूफान भारत की ओर आ रहे थे उन सबका वह न केवल सामना कर रहा था बल्कि उनका विनाश भी कर रहा था। इसलिए राजा दाहिर सेन को भारतीय संस्कृति का रक्षक माना जाना चाहिए। भारत की तो स्पष्ट मान्यता है कि :-
कामज क्रोधज पाप के होकर के वशीभूत ।
जो नर दुनिया में रहे – होता वही कपूत।।
इतिहास के बारे में कुछ लोगों की मान्यता यह भी है कि यह विजेताओं का लिखा जाता है । हमारा मानना है कि इतिहास विजेताओं का नहीं अपितु छली, कपटी ,षड्यंत्रकारी ,अत्याचारी, पापाचारी लोगों के द्वारा लिखवाया जाता है। ऐसा इतिहास लिखने वाले लेखक पापाचारी लोगों के पापाचरण को नैतिक और उचित सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार ऐसा इतिहास उन चाटुकारों के द्वारा लिखा जाता है जो चंद सिक्कों में अपनी अंतरात्मा का सौदा कर लेते हैं । वास्तव में उनका ऐसा कार्य मानवता के विरुद्ध किया जाने वाला निंदनीय कृत्य होता है। हमारी यह स्पष्ट मान्यता है कि ऐसे इतिहास को इतिहास नहीं माना जाना चाहिए।
इतिहास लेखन में कमी
इतिहास लेखन के समय प्रत्येक इतिहासकार या लेखक को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जिस समय का वह इतिहास लेखन कर रहा है, उस समय डाकू दल का नेतृत्व कौन कर रहा था और डाकू दल के विनाश के लिए कौन व्यक्ति संकल्पित हुआ खड़ा था ? यदि इस दृष्टिकोण से न्यायसंगत तथ्यों के आधार पर इतिहास लेखन किया जाएगा तो पता चलेगा कि खलीफा और उसकी विचारधारा के पोषक लोग डाकू दल के सदस्य हैं, जबकि राजा दाहिर सेन और उसकी विचारधारा के पोषक लोग डाकू दल का विनाश करने के लिए संकल्पित हुए खड़े हैं। तब प्रत्येक इतिहासकार और लेखक की लेखनी राजा दाहिर सेन की जय बोलने से पीछे नहीं हटेगी ।क्योंकि तब उसे सच का पता चल जाएगा और वह अपने इस लेखनी धर्म को भी पहचान जाएगा कि उसे अपनी लेखनी के माध्यम से उन स्मारकों को संवारना चाहिए जो मानवता की रक्षा के लिए अपने -अपने समय में संघर्ष करते रहे।
जो लोग डाकूदल को सच्चा मानव, उदार,धर्म प्रेमी, मानवता प्रेमी आदि विशेषणों से सम्मानित कर उनका पक्ष पोषण करते हैं ,वे लोग मानवता की बहुत बड़ी हानि कर रहे होते हैं। क्योंकि यह वही लोग होते हैं जो एक ओर तो आज के डाकू को न्यायालयों के माध्यम से दंडित करने की वकालत करते हैं और दूसरी ओर इतिहास की अदालत में खड़े डाकुओं को छोड़ने का पाप करते हैं। यह कभी नहीं हो सकता कि एक हाथ से आप डाकुओं को पकड़ने की बात करें और दूसरे हाथ से उन्हें छोड़ने का पाप करें।
डाकू दल की आरती यह लेखन का पाप।
वीरों का अपमान है देश के संग है घात।।
दोहरे मापदंड और दोहरे मानदंडों को अपनाने से काम नहीं चलेगा। यदि आज आप किसी ऐसे व्यक्ति को चोर, डकैत, पापी बलात्कारी ,अत्याचारी कहते हो जो दूसरों के माल को लूटता है, दूसरों की महिलाओं के साथ अत्याचार करता है या निरपराध लोगों की हत्याएं करता है तो इतिहास की अदालत में खड़े पापियों को भी आपको डाकू या पापी कहना ही पड़ेगा।
यदि भारत के इतिहास लेखकों ने इस दृष्टिकोण को अपनाकर इतिहास लिखना आरंभ कर दिया तो सारे डाकू, सारे पापी और सारे अत्याचारी व बलात्कारी इतिहास की जेलों में सड़ रहे होंगे और जिन निरपराध देशभक्त लोगों को इतिहास की जेलों में सड़ाकर मारने का षड्यंत्र रचा गया है, वे सारे ससम्मान बरी होकर हमारे लिए वंदनीय पुरुष के रूप में प्रकट होंगे। ऐसे लोगों में सबसे प्रमुख नाम होगा राजा दाहिर सेन का।
खलीफा ने की घोषणा
इतिहास के ऐसे वन्दनीय पुरुष महाराजा दाहिर सेन की वीरता और देशभक्ति इस समय खलीफा और उसके लोगों की नजरों में चुभ रही थी । वह काम और क्रोध से जन्मे पापों के पक्षाघात से पीड़ित हो उठे थे। अब खलीफा को एक ही बात नजर आ रही थी कि जैसे भी हो राजा दाहिर सेन को जिंदा या मुर्दा मेरे सामने लाया जाए। उसने एक प्रकार से अपने देश में अपने अनुयायियों के लिए यह घोषणा ही कर दी कि जो भी राजा दाहिर सेन को जिंदा या मुर्दा पकड़कर लाएगा उसके उस को 'उचित सम्मान' दिया जाएगा ।
जिन परिवारों के घरों के युवा अब तक भारत पर हुए हमलों में काम आ चुके थे, उनके परिजनों, परिचितों, मित्रों व संबंधियों को खलीफा की ऐसी घोषणा से बहुत बड़ी शांति से अनुभव हुई । उन्हें लगा कि अब उनके मरे हुए परिजनों का प्रतिशोध लिया जाएगा। इस प्रकार खलीफा की ऐसी घोषणा से उसे नया डाकू दल तैयार करने में सहायता मिली।
अबकी बार और अरब सेना का सेनापति कौन होगा? कौन हमारे सैनिकों का नेतृत्व करेगा ? इस बात को लेकर खलीफा और उसके निकटस्थ लोग बड़े चिंतित थे। खलीफा ने अपना यह विचार अपने दरबार में भी रख दिया था कि इस बार अरब सेना का सेनापतित्व कौन करेगा ? खलीफा के इस विचार को लेकर उसके दरबार में मंथन प्रक्रिया बड़ी तेजी से चल रही थी। इस बार खलीफा और उसके दरबारी लोग नए सेनापति के बारे में बहुत अधिक सावधान और सजग थे । उन्हें यह पता था कि यदि इस बार भी भारत से सेना पिटकर आई तो उन्हें बहुत अधिक अपमान का सामना करना पड़ेगा। लोग फिर उनकी बातों पर विश्वास करना छोड़ देंगे।
दरबारियों के सामने कई लोगों के नाम उभरकर आए। जिनसे यह अपेक्षा की जा सकती थी कि वे राजा दाहिर सेन को जीवित या मृतावस्था में खलीफा के सामने ला सकते हैं? इस महान कार्य के लिए जितनी तेजी से कोई नाम उभरकर सामने आता था उतनी ही तेजी से वह नेपथ्य में चला जाता था। कई ऐसे उतावले और भावुक लोगों ने भी अपने नाम दरबार में रख दिये या चलवा दिए जो भारत को लूट कर लाने का श्रेय लेना चाहते थे , पर वास्तव में वह इस योग्य नहीं थे। खलीफा ने स्वयं ही ऐसे लोगों के नाम निरस्त कर दिए। इस बार वह किसी भी हल्के व्यक्ति को भारत पर आक्रमण करने के लिए भेजना नहीं चाहता था। क्योंकि खलीफा को भारत के शौर्य और साहस का इस समय तक पूरा ज्ञान और भान हो चुका था।
अधिकांश लड़ाके हो गए पूरी तरह बलहीन ।
भारत के महा तेज ने कर दिया था दमहीन।।
वैसे एक सच यह भी है कि अरब देश के अधिकांश तथाकथित लड़ाके अब इस स्थिति में नहीं रह गए थे कि वह भारत के विजय अभियान के लिए चलने वाले डाकू दल का नेतृत्व करने को सहज रूप से तैयार हों। क्योंकि पिछले अनुभव उनके लिए बड़े ही कड़वे रहे थे।
मोहम्मद बिन कासिम को किया गया चयनित
712 ई0 में अरब शासक हजाज (अल हज्जाज) ने भारत पर आक्रमण करने का यह बड़ा काम अपने भतीजे और दामाद मोहम्मद बिन कासिम को सौंपा।
मुहम्मद बिन कासिम उस समय 17 वर्ष की अवस्था का था। इतनी कम अवस्था में ही उसमें मुस्लिम सांप्रदायिकता सिर चढ़कर बोल रही थी। मुस्लिम विद्वानों के द्वारा ही यह कहा जाता है कि एक मुसलमान का 8 वर्ष का बालक जितना सांप्रदायिक होता है, उतना हिंदू 80 वर्ष का भी नहीं होता। मोहम्मद बिन कासिम काफिरों से उतनी ही घृणा करता था, जितना उसका मजहब उसे बताता था। उसे काफिरों का खून बहाने में बड़ा आनन्द आता था। उसका यह है गुण उसके चाचा और ससुर ने भली प्रकार परख लिया था। यही कारण था कि इस बार भारत पर हमला करने का दायित्व उसी के कंधों पर डाला गया।
अरबों के अबकी बार के आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम ने ने संभाल लिया और अब वह भारत पर आक्रमण की तैयारी में जुट गया । अरब सेना का सेनापति बनने का उसका सबसे बड़ा गुण यह था कि वह हज्जाज का दामाद था। उसका दूसरा गुण यह था कि वह अत्यंत निर्दयी, क्रूर और अत्याचारों के बीच खिलखिलाकर हंसने वाला व्यक्ति था, अर्थात उसे नरसंहार करने में आनंद की अनुभूति होती थी। किसी भी मुस्लिम आक्रमणकारी के भीतर निर्ममता, क्रूरता और काफिरों के भीतर के प्रति निर्दयता का भाव होना उसके सेनापतित्व का सबसे अच्छा गुण माना जाता रहा है। अरबी या मुस्लिम इतिहासकारों ने अपने ऐसे सेनापतियों के इस प्रकार के गुणों को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने सेनापतियों के ऐसे व्यक्तित्व का गुणगान करते हुए ऐसा संदेश दिया है कि इन गुणों के चलते वह बहुत ही अधिक बलशाली, शक्ति संपन्न, वीर ,साहसी और मानवता के प्रति आस्था रखने वाला व्यक्ति था। यद्यपि मोहम्मद बिन कासिम अभी किशोरावस्था में ही था, परंतु वासना का भूत उसके सिर पर चढ़कर बोलता था । उसने भारत में आने के पश्चात अनेकों हिन्दू ललनाओं के साथ बलात्कार किए और कई हिन्दू वीरांगनाओं के सामने अपनी बेगम बनाने का प्रस्ताव रखा, परन्तु किसी भी हिन्दू वैदिक महिला ने अपने भारतवर्ष के सम्मान का सौदा उसके हाथों नहीं किया।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत
One reply on “भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन, अध्याय – 7 (क ) तूफान से पहले की शान्ति”
खेद सहित कहना पड़ता है कि इस इतिहास की जनलरी से हम वंचित हैं । ईश्वर करे आपकी ओजस्विनी लेखनी से क्रांतिज्वाला ओर संगठन की प्रेरणा मिले।