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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

मुगल वंश से पहले ही हो गया था कश्मीर का पीड़ादायक धर्मांतरण

kashmir dharmantaranमुल्ला मौलवी हो गये थे जैनुल के विरोधी

राजा जैनुल और श्रीभट्ट की समादरणीय जोड़ी जब कश्मीर में दो विपरीत दिशाओं में बहती सरिताओं-हिंदुत्व और इस्लाम को एक दिशा देने का अदभुत और प्रशंसनीय कार्य कर रही थी, तभी कहीं ‘शैतान’ उन अनोखे और प्रशंसनीय कार्यों को नष्ट करने के लिए उनकी जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य भी कर रहा था। इस शैतान का उल्लेख इस्लामिक साहित्य में अक्सर मिलता है। इतिहास का सच है कि जब सृजन अंगड़ाई लेता है तो विध्वंस भी उसी समय सजग हो जाता है। वह नही चाहता है कि सृजन अपने उद्देश्य में सफल हो। संभवत: सृजन और विध्वंस के इस सनातन संघर्ष का नाम ही सुरासुर संग्राम है। मानव के अंत:करण में सुरी और आसुरी दोनों प्रकार की वृत्तियां होती हैं। जिनमें शाश्वत संघर्ष चलता रहता है। मानव समाज चूंकि मानवों का एक समूह या समुदाय होता है, इसलिए व्यक्ति का प्रभाव या उसके भीतर के संसार का प्रभाव उसके बाह्य संसार पर भी स्पष्ट दिखाई दिया करता है। इसलिए मानव समाज में भी सुरी-आसुरी वृत्तियां ज्यों की त्यों अपना प्रभाव दिखाती हैं। जैनुल और श्रीभट्ट के साथ भी यही हुआ। जैनुल का मानवतावादी और सहिष्णु व्यवहार मुल्ला मौलवियों को अप्रिय लग रहा था। वह नही चाहते थे कि हिंदू समाज के प्रति राजा इतना मानवीय हो जाये। इसलिए उनके भीतर की आसुरी वृत्तियां अपना संसार बन-बुन रही थी और सृजन को विध्वंस में परिवर्तित करने हेतु सक्रिय थीं।

पुत्र ने त्याग दिया पिता की नीतियों को

ऐसी परिस्थितियों में जैनुल का पुत्र हैदरशाह 1474 ई. में जब कश्मीर का शासक बना तो उसने अपने पिता की उदारवादी नीतियों को त्यागने का निर्णय लिया। वह अपने मुल्ला-मौलवियों और उन्हीं जैसे परामर्शदाताओं के जाल में फंस गया जैसे लोग जैनुल से पूर्ववर्ती कश्मीर के शासकों को अनुचित परामर्श देकर भ्रमित किया करते थे। इसलिए जैनुल जैसे उदारवादी शासक के काल में जिस प्रकार का मानवतावादी परिवेश कश्मीर में बना था वह पुन: विकृत होने लगा।

राजतरंगिणी के भाष्यकार डा. रघुनाथ सिंह का कहना है :-

‘‘जैनुल आबेदीन के काल में क्रूरता का दर्शन नही मिलता। परंतु उसके अत्यंत दुर्बल हो जाने पर पुत्रों की राज्यलिप्सा के कारण, क्रूरता ने भी पदार्पण किया। आदमखां का उसके अनुज हाजी खां से शूरपुर में संघर्ष हुआ तो शूरपुर में बारात लेकर आये बारातियों को निरपराध मार दिया गया।’’ (1, 1, 64)

फिर जिहाद की जिद हावी हो गयी

बिल डयूरेण्ट अपनी पुस्तक ‘दि स्टोरी ऑफ सिविलिजेशन’ में लिखता है-‘‘इतिहास में इस्लाम द्वारा भारत की विजय के इतिहास की कहानी संभवत: सर्वाधिक रक्तरंजित है। यह एक अति निराशाजनक कहानी है, क्योंकि इसका प्रत्यक्ष आदर्श यही है कि सभ्यता जो इतनी बहुमूल्य और महान है जिसमें स्वतंत्रता संस्कृति तथा शांति का इतना कोमल मिश्रण है कि उसे कोई भी बर्बर, विदेशी आक्रमणकत्र्ता अथवा भीतर ही पनप या बढ़ जाने वाले आततायी किसी भी क्षण नष्ट भ्रष्ट व समाप्त कर सकते हैं।’’

जिहाद का आदर्श कुरान की आयत

कुरान सूरा 8 आयत 12 में आया है कि एक बार अल्लाह ने फरिश्तों के समक्ष कहा-‘‘मैं तुम्हारे साथ रहूंगा। मुसलमानों को साहस दो। उनकी हिम्मत बढ़ाओ, मैं गैर मुसलमानों के हृदयों में भय भर दूंगा। उनके सिरों को तोड़ दो, उनके एक एक अंग को भंग कर दो।’’

स्वाभाविक है कि जब ऐसी आयतें नये राजा को समझायी गयीं होंगी तो उसको अपने पिता पर भी क्रोध आया होगा और उसने समझा होगा कि पिता भी ‘काफिर’ हो गया था। ऐसी स्थिति में नये शासक ने अपने पिता की नीतियों को पूर्णत: परिवर्तित कर दिया और हिंदुओं के प्रति पूर्व जैसी कठोरता को ही शासन की नीतियों का एक अंग बना दिया। इस्लाम की जिस प्रगतिशील और उदार छवि को उभारने का प्रयास जैनुल ने किया था, उसे निरर्थक बताकर हैदरशाह ने जब अपनी क्रूर नीतियों को लागू कर कश्मीर पर शासन करना आरंभ किया तो उसने इतिहासकार जदुनाथ सरकार की पुस्तक ‘ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ का यह कथन अक्षरश: सत्य सिद्घ कर दिया-‘‘एक धर्म इस्लाम जिसके अनुयायियों को लूट और वध या हत्या को धार्मिक कत्र्तव्य सिखाया जाता हो, मानव विकास के साथ सहगामी नही हो सकता।’’

(तृतीय आवृत्ति खण्ड तृतीय पृष्ठ 168)

आगे जदुनाथ कहते हैं -‘‘मुस्लिम राज्यावस्था ने विश्वासियों का एक ऐसा वर्ग बनाया जिसका युद्घ के अतिरिक्त अन्य कोई काम ही नही है। युद्घ ही एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। उनके लिए शांति बेरोजगारी और पतन है।’’ (वही पुस्तक पृष्ठ 169)

विवेकानंद ने कहा था…

कैलीफोनिर्या के शैक्सपीयर क्लब में 3-2-1900 ई. को बोलते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था-‘‘मुसलमान सर्वाधिक असभ्य बर्बर और घोर पंथवादी हैं। उनका आदर्श वाक्य है-‘अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका पैगंबर है।’ इसके परे जो कुछ भी है, वह केवल बुरा ही नही है, उसे तुरंत नष्ट कर दिया जाना चाहिए, एक क्षण की भी सूचना दिये बिना उन सभी मनुष्यों और स्त्रियों को जो उसमें एकदम वैसा ही विश्वास नही करते हर हालत में मार देना चाहिए, प्रत्येक पुस्तक जो उससे भिन्न शिक्षा देती है जला दी जानी चाहिए। पैसिफिक से लेकर अटलाण्टिक तक पूरे पांच सौ वर्षों तक सारे विश्व में रक्तपात होता रहा। यह है मौहम्मदवाद।’’ (कम्पलीट वक्र्स खण्ड-4 पृष्ठ 126)

इसी सोच ने भडक़ाई कश्मीर में जिहाद की आग

ऐसी सोच और दूषित इतिहास की परंपरा ने कश्मीर के शासक को जिहादी बना दिया और बड़े यत्न से श्रीभट्ट जिन हिंदुओं को कश्मीर में पुन: लेकर आया था, उनके लिए कश्मीर पुन: कारावास बनने लगा।

अत्याचारों की कहानियों की झलक

‘हमारी भूलों का स्मारक: धर्मांतरित कश्मीर’ के विद्वान लेखक ने श्रीवर कृत राजतरंगिणी के आधार पर लिखा है-‘‘जैनुल आबेदीन के पश्चात क्रूरता अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी थी। हैदरशाह का विश्वास पात्र भ्रत्यपूर्ण नामक एक नापित था। वह लोगों का अंग विच्छेद करवा देता था, यह उसके लिए एक साधारण बात हो गयी थी। उसने ठक्कुर आदि जैनुल आबेदीन के विश्वासपात्रों को आरों से चिरवा दिया था। राह चलते लोगों को अनायास पकडक़र पांच-पांच, छह-छह को एक साथ सूली पर चढ़वा दिया। वैदूर्य और भिषग को दूषक तथा परपथगामी जानकर हाथ, नाक और ओष्ठ पल्लव कटवा दिये। शिख, नोनक आदि संभ्रांत पांच छह व्यक्तियों की जीभ, नाक व हाथ कटवा दिये। लोग इतने आतंकित हो गये थे कि भय से स्वयं वितस्ता व झेलम में डूबकर भीम व जज्ज के समान प्राण विसर्जन कर देते थे। (भीम एवं जज्ज इन दोनों लब्धप्रतिष्ठित पंडितों ने नदी में छलांग लगाकर आत्महत्या की थी) राजा स्वयं भी इन क्रूर हत्याओं के लिए प्रेरणा देता था।

उसने हसन आदि की हत्या का आदेश दिया। उन्हें प्रात: काल युक्तिपूर्वक लाकर वध कर देना चाहिए। हसन जिसने राजा का तिलक किया था वह तथा मेट काक आदि पांच-छह व्यक्ति राजदरबार में बहुमूल्य आसन पर बैठे राज्यादेश की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय राजा ने अचानक उनका वध करवा दिया। विष व्यसनी और गुणी अहमद जब राजगृह में लिख रहा था उसी समय अकस्मात उसे मार डाला गया। राज प्रासाद के प्रांगण में अहमद आदि उच्च पदाधिकारी एवं मंत्रीगण मारे गये। उनका शव उनके कुटुम्बिकों को नही दिया गया। अनाथ सदृश उन लोगों को चाण्डालों ने रात्रि में वहां से ले जाकर प्रद्युम्नगिरि के पादमूल में भूगर्त कब्र में निवेशित कर ईंटों से ढक दिया था।’’

ब्राह्मणों को भी झेलना पड़ा अत्याचार

राजतरंगिणी से हमें यह भी पता चलता है कि नये शासक ने ब्राह्मणों को भी अत्यंत उत्पीडि़त किया। बहुत से ब्राह्मणों के हाथ नाक कटवा दिये थे। श्रीभट्ट के कारण भट्ट जाति पर अत्याचारों का क्रूर चक्र चलाया गया। इस प्रकार की कार्यवाहियों में केवल प्रतिशोध की भावना थी और इसके अतिरिक्त हिंदुओं के प्रति जातीय विद्वेष का भाव था, जो मुस्लिम शासक और शासक वर्ग के लोगों के हृदय में बड़ी गहराई से बैठा था। जैनुल राजा ने अपने शासन काल में हिंदुओं को जो भूमि दी थी, वह नये शासक ने पुन: छीन ली।

‘‘ऐसे क्रूर अत्याचारों को छिपाते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अंत: वासी लोगों ने केवल माक्र्सवादियों की स्वभावगत विशिष्टता, प्रोत्साहित ढोंग भरे उत्साह के अंतर्गत उपनिवेश काल से पूर्व अर्थात मुस्लिम शासनकाल में साम्प्रदायिक सौहार्द और मिश्रित संस्कृति के झूठ को अमर बास्थायी बनाने का भरसक प्रयास किया है। रोमिला थापर, विपिन चंद्र, इरफान हबीक प्रभृति लोगों ने जो आई.सी.एच.आर. (भारतीय इतिहास संबंधी अनुसंधान की परिषद) की आरामदायक शैक्षणिक पदवियों पर अभी हाल तक विराजिते थे, नेहरू वंशीय वा परंपरा वाले राजनीतिज्ञों को प्रसन्न करने के लिए इन लोगों ने क्या नही किया?

इन लोगों ने अनेकों आततायी बर्बर तथा पथभ्रष्ट शासकों को वास्तव में पंथ निरपेक्ष व उदार संभवत: हिंदू  राजाओं से भी अधिक परोपकारी व समतावादी घोषित कर दिया है।’’

संदर्भ : भारत में जिहाद पृष्ठ 17

इसलिए भुला दिये गये श्रीभट्ट और जैनुल

इतिहासकारों की इसी प्रकृति के कारण जैनुल और श्रीभट्ट की आदर्श परंपरा को इतिहास में उचित स्थान नही मिल पाया। जबकि हैदरशाह जैसे अनेकों शासकों को उदार और हिंदू मुस्लिम एकता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण सिद्घ करने का प्रयास किया गया है। इस प्रकार की मिथ्या बातों से इतिहास सबके लिए और विशेषत: युवा वर्ग के लिए सर्वाधिक निराशाजनक ग्रंथ बनकर रह गया है। जैनुल के पुत्र हैदरशाह ने कश्मीर पर केवल एक वर्ष ही शासन किया पर एक वर्ष में ही वह कश्मीर को पुन: ‘उजड़ा हुआ चमन’ बना गया। वसंत को अत्याचारों का पतझड़ नष्ट कर गया, पापाचार का पाला मार गया और अनाचार की ऐसी बाढ़ आई कि कश्मीर का चरित्र ही नष्ट होकर रह गया। सर्वत्र अशांति का वातावरण पुन: आच्छादित हो गया और दो संप्रदायों के मध्य जिस विश्वास को स्थापित करने का जैनुल और श्रीभट्ट ने प्रयास किया था उसे गहरा झटका लगा। दोनों समुदाय पुन: एक दूसरे से छिटक कर दूर जा पड़े।

हिंदू पुन: असहाय हो गया और उसे जिन प्रशासकीय पदों पर नियुक्ति मिल गयी थी, वे सब भी उनसे पुन: छीन ली गयीं।

हैदरशाह की क्रूरता का किया गया सामना

जब एक वर्ष में ही इतने भयानक अत्याचारों का सामना करने के लिए हिंदुओं को पुन: विवश होना पड़ा तो स्थिति की भयावहता के दृष्टिगत कुछ पंडितों ने साहस कर हैदरशाह की क्रूरता का सामना करने का निश्चय किया। वह स्वतंत्रता चाहते थे और अमानवीय अत्याचारों को मानवता विरोधी सिद्घ कर शासन को पुन: लोकतांत्रिक बनाने का प्रयास कर रहे थे। जिससे कि भारत की पुराने समतावादी समाज का निर्माण करने वाली शासन व्यवस्था कश्मीर में स्थापित हो सके और प्रत्येक व्यक्ति को उसके जीवन और सम्मान की सुरक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त हो सके।

अपनी योजना के अनुसार पंडितों ने विद्रोह का बिगुल तो फूंक दिया, पर इन असहाय लोगों के विद्रोह में वह तेज और क्षमता नही थी जो हैदरशाह के क्रूर शासन का सामना कर सके। इसलिए यह विद्रोह शीघ्र ही दबा दिया गया।

दबा दिया गया संघर्ष

मुस्लिम इतिहासकार हसन लिखता है-‘‘जब पंडितों के धैर्य का पैमाना भर गया तो वे अब एक साथ उठ खड़े हुए। कभी सिकंदर ने जिन हिंदू मंदिरों को तोडक़र उनके मसाले से मस्जिदें बनवायीं थीं, उनमें से कुछेक को इन क्रुद्घ पंडितों ने आग लगा दी। इस विद्रोह को तलवार के जोर से समाप्त कर दिया गया। असंख्य लोग नदी में डुबो दिये गये। लूटमार को रोकने वाला कोई नही था।’’

इस प्रकार कश्मीर का गौरवमयी इतिहास और इतिहास की परंपराओं को मिटाने के लिए पुन: शासकीय दमनचक्र आरंभ हो गया। यहां लोग सदियों से क्षमतामूलक और समष्टिवादी संस्कृति का निर्माण कर रहे थे, और बौद्घ व हिंदू मिलकर एक साथ रह रहे थे, और अब उनके  इन प्रयासों पर पूर्ण विराम लग गया।  भारतीय संस्कृति के उन महान शिल्पियों का सारा पुरूषार्थ कुछ काल में ही व्यर्थ कर दिया गया जिन्होंने आसिन्धु सिन्धु पर्यन्ता किस्तीर्ण हिंदुस्थान की पावन धरा पर युग-युगों तक शासन करते हुए यहां अपने उद्यम से संस्कृति का एक भव्य भवन निर्मित किया था। सृजन की सब इच्छा तो करते हैं कि वह दीर्घायु हो, पर सृजन की अपेक्षित सुरक्षा से सब बचते हैं, इसलिए अधिकांशत: ऐसा होता है कि विध्वंस के समक्ष सृजन दुर्बल सिद्घ हो जाता है और विध्वंस अपना काम कर जाता है।

एक वर्ष में ही बदल गया सारा परिवेश

एक वर्ष पश्चात ही कश्मीर पुन: वहीं खड़ा था जहां वह सिकंदर और अलीशाह के शासन काल में खड़ा था। एक वर्ष का विध्वंस जैनुल और श्रीभट्ट के सारे सृजनशील प्रयासों पर पानी फेर गया। कश्मीर का बंधुत्व भाव पूर्णत: नष्ट हो गया। एक वर्ष में ही चौबीस हजार हिंदुओं को पुन: धर्मांतरित कर मुस्लिम बना लिया गया।

फिर सूर्योदय हुआ?

हैदरशाह की मृत्यु के पश्चात हसन खां राज्यसिंहासन पर विराजमान हुआ। यह हैदरशाह की अपेक्षा एक सहिष्णु शासक था। इसलिए उसने राज्यसिंहासन पर बैठते ही जैनुल कालीन उदारता और सहिष्णुता को अपने शासन की नीतियों का मूलोद्देश्य बनाने का प्रयास किया। वह संस्कृत का विद्वान था और इसलिए उसने भारतीय दर्शन शास्त्रों का भी अच्छा अध्ययन किया था। फलस्वरूप उस पर भी हिंदू प्रेम का रंग चढ़ा था। सुल्तान के इस प्रकार के हिंदू प्रेम से पुन: उसके विरोधी षडय़ंत्र रचने लगे।

हसन खां हैदरशाह की अपेक्षा उदार तो था, परंतु वह जैनुल की भांति प्रजावत्सल और दूरदृष्टा शासक नही था। उसमें शराब पीने का व्यसन बहुत था। जिसके कारण वह रात-रात भर शराब पीता रहता था नर्तकियों के नृत्य का आनंद लेता रहता था। फलस्वरूप वह दिन में शासन के कार्यों की ओर उचित और अपेक्षित ध्यान नही दे पाता था।  इससे उसके दरबार में सैय्यदों को अपना वर्चस्व स्थापित करने का अवसर उपलब्ध हो गया। उन लोगों ने दरबार में कुछ ऐसे मुस्लिमों की एक श्रेणी तैयार कर ली जो हिंदुओं का धर्मांतरण कर उन्हें उत्पीडि़त करने में विश्वास रखती थी। नये सुल्तान का विवाह एक रूपवती लडक़ी से करा दिया गया, जो कि नसीरा नामक एक प्रसिद्घ सैय्यद की पुत्री थी। इसके पश्चात नसीरा ने सुल्तान पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

इस स्थिति पर डा. रघुनाथ सिंह (राज. 3, 107 से 108 और 130 से 133) लिखते हैं:-‘‘हसन शाह के समय क्रूरता और भी तीव्र हो गयी, हसनशाह ने जैनुल आबेदीन के पुत्र बहराम खां की आंखें फोड़ दीं। बहराम खां की आंखों पर पहले रूई रखी गयी, तत्पश्चात लोहे की शालिका आंखों में घुसा दी गयी। उस समय किसी दिन के राजसुख भोगने वाले बहरामखां को जो पीड़ा हुई उसका वर्णन करने में श्रीवर अपने को असमर्थ पाता है। अभिमन्यु प्रतिहार की प्रेरणा पर हसनशाह ने बहराम खां का नेत्रोत्याटन कराया था। कुछ ही समय के पश्चात यह अभिमन्यु प्रहार भी सुल्तान का पथाजन बन गया और बंदी बना लिया गया।

‘‘किसी को भी कारागार में रख देना साधारण बात थी। क्रोधित होकर सुल्तान हसन ने अवतार सिंह आदि को बिना न्याय किये कारागार में डाल दिया। अनेक प्रतिहार गण सुल्तान का कोप भाजन होने पर कारागार में डाल दिये गये। तत्पश्चात उनकी आंखें फोड़ दी गयीं। दो वर्ष जेल में रहकर वे भी बहराम खां की भांति मारे गये। बहराम खां का पुत्र युसूफ था। वह निर्दोष था पिता के कारण, राजवंशीय होने के कारण वह भी बंदी बना लिया गया। वह निर्दोष होते हुए भी मार डाला गया। अधिकारियों एवं मंत्रियों को भी इसी प्रकार बिना विचारे कारागार में डाल दिया जाता था।’’

सुल्तान असफल रहा

इस प्रकार हसनशाह के काल में सूर्योदय एक भ्रम बनकर रह गया। कठमुल्लावाद और सैय्यदवाद के भ्रमजाल में सुल्तान उलझ गया और वह जिस उद्देश्य को लेकर राज्यसिंहासन पर बैठा था, वह कहीं मध्य में ही छूट गया। ‘राजतरंगिणी’ से ही हमें ज्ञात होता है कि उसके काल में संपत्ति हरण एक सामान्य बात थी। सुल्तान असंतुष्ट होने पर किसी भी दिन प्रिय पात्रों, मंत्रियों एवं सामंतों की संपत्ति बिना विचार किये हरण कर लेता था। सुल्तान किसी के सम्मुख उत्तरदायी नही होता था। वह पूर्णत: निरंकुश था। मंत्री भी सत्ता पाकर निरंकुश हो जाते थे। विरोधियों किंवा जिन पर किंचित मात्र भी शंका होती थी, उन्हें तुरंत निर्वासित कर दिया जाता था।’’

हिंदू फिर करने लगे पलायन

ऐसी परिस्थितियों में हिंदुओं ने कश्मीर से पुन: पलायन करना आरंभ कर दिया। वह अपनी सुरक्षा के प्रति कश्मीर में तनिक भी निश्ंिचत नही थे। अपना सम्मान और सुरक्षा दोनों उन्हें संकटमय जान पड़ रहे थे। अत: कश्मीर से पलायन ही उनके लिए एकमात्र विकल्प था। जो हिंदू कश्मीर में ही रहे उन्होंने स्वयं को संकीर्णताओं की कई सीमाओं में रहने के लिए अभिशप्त कर लिया। वह विवश थे और विवशता का जीवन ऐसे बंधनों में रहकर काट लेना चाहते थे जो उन्होंने स्वयं ही अपने चारों ओर खड़े कर लिये थे।

हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल

हिंदुओं के प्रति सैय्यदों के अत्याचारों का सामना करने में जब हिंदू स्वयं को अक्षम और असमर्थ अनुभव कर रहे थे, तब कुछ उदारवादी मुस्लिमों और उनके संगठनों ने हिंदुओं का साथ देने का निश्चय किया। इन मुस्लिमों का नेता जहांगीर मांगे था। उसने राजा को बताया कि सैय्यदों को उनके क्रूर कृत्यों के कारण पूर्व में देश निकाला भी दे दिया गया था। इन लोगों से आप किसी प्रकार की निष्ठा की अपेक्षा ना करें, ये लोग राज्य के अभिलाषी हैं। ये समय आने पर आपके राज्य को नष्ट कर डालेंगे। अत: इनसे बचाव आवश्यक है।

हिंदुओं की सुरक्षा को लेकर जहांगीर मांगे जिस प्रकार अपने अनेकों मुस्लिमों के साथ बाहर आया उससे हिंदुओं का साहस कुछ बढ़ा। इस जहांगीर मांगे को ‘चाक्कजाति’ के लोगों ने भी अपना समर्थन दिया और समय आने पर ये लोग सैय्यदों के विरूद्घ विद्रोह कर बैठे।

हिंदू ही हुए सर्वाधिक क्षतिग्रस्त

कश्मीर के हिंदू यद्यपि समझ रहे थे कि जहांगीर मांगे और चाक्कजाति के लोग उनका साथ दे सकते हैं, पर समय और परिस्थतियों की प्रतिकूलता को समझकर वे किसी प्रकार के विवाद का या विद्रोह से स्वयं को दूर रखना ही उचित मान रहे थे। पर जब विद्रोह हो ही गया तो मुस्लिम को अपने अत्याचारों का शिकार न बनाकर सैय्यदों ने हिंदुओं को ही अपनी वासना और अत्याचारों का शिकार बनाया।

चाक्कलोग शिया और सुन्नी दोनों समुदायों में विभक्त थे। इसलिए उनमें से कुछ लोग हिंदुओं का समर्थन कर रहे थे और उन्हें संरक्षण देने के पक्षधर थे तो कुछ ऐसे भी थे कि जो हिंदू विरोधी मानसिकता से ग्रस्त थे।

जस्टिस जियालाल कलिम ने ‘द हिस्ट्री ऑफ कश्मीरी पंडित’ में चाक्कजाति के अत्याचारों के विषय में लिखा है-

‘‘चाक्क शासकों के आदेश पर प्रतिदिन एक हजार गौओं की निर्विरोध हत्या होती थी। अंधकार ग्रस्त सूर्य की भांति, ब्राह्मणों पर बल प्रयोग किया जाता था। जीवन यापन के साधन नही रहे, इनके लिए। भस्म वन के हिरनों की तरह ब्राह्मण भी देश में नही रहे। देश त्यागने के पश्चात ब्राह्मणों को कभी तो सतर्क रहना पड़ता था, कभी उपहास व तिरस्कार का पात्र बनना पड़ता था।

मुसलमान इतिहासकारों द्वारा समर्थित यह उल्लेख एक चश्मदीद गवाह का है।’’

धर्मांतरित मूसा रैणा ने किया हिन्दू नाश

मुगल वंश से पूर्व कश्मीर का अंतिम मुस्लिम सुल्तान फतहशाह था। उसने अपने काल में हिंदू विनाश का क्रम पूर्ववत जारी रखा। इसके काल में एक धर्मांतरित मुस्लिम नेता मूसारैणा का उदय हुआ जो स्वयं कभी हिंदू था। उसने हिंदुओं को मुस्लिम बनाने के अनेक क्रूर उपाय किये। मुहम्मद दीन फाक ने ‘हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’ में लिखा है-‘‘शिया प्रचारक शमसुद्दीन ईराकी, मूसा रैणा सहित दुगनी प्रचार भावना के साथ कश्मीर में धर्म प्रचार करके लौटा। जब शांतिमय शिक्षाओं से काम न चला तो शक्तिशाली उपायों से काम लिया गया।

हालांकि फतहशाह स्वयं एक सुन्नी मुसलमान था। कहते हैं कि अनेक सुन्नियों को बलपूर्वक शिया धर्म में लगाया गया और कईयों को मार गिराया गया। परंतु पंडित लोग उसकी कुदृष्टि के विशेष लक्ष्य बने। अनेक मार डाले गये। असंख्य पंडितों को घरबार छोडक़र कश्मीर से बाहर की ओर भागना पड़ा। लगभग 28000 पंडितों को बलपूर्वक शिया मुसलमान बनाया गया। ंिहंदुओं की संपत्ति छीन ली गयी।’’

फतहशाह ने इस मूसा रैणा को प्रधानमंत्री बना दिया। जिससे उसने और भी क्रूरता से हिंदुओं का वध करना अथवा धर्मांतरण करना आरंभ किया। हिंदुओं ने उसके सामने अपनी प्राणों की भिक्षा भी मांगी यह उस पर कुछ भी प्रभाव नही हुआ।

इस प्रकार मुगल वंश के आने तक कश्मीर का अधिकांश रूप में धर्मांतरण किया जा चुका था। समय की क्रूर परिक्रमा थी यह, जो अपना एक चक्र पूर्ण कर चुकी थी।

क्रमश:

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