जनप्रतिनिधियों के आपराधिक रिकॉर्ड की और केसों की सुनवाई में अब तेजी आनी ही चाहिए
प्रस्तुति – श्रीनिवास आर्य (एड़वोकेट)
सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों और विधायकों के विरूद्ध लंबित आपराधिक मामलों के जांच एजेंसियों द्वारा धीमी गति से होने वाले अन्वेषण पर एक बार फिर से नाराजगी जताते हुए इस बात की आवश्यकता निरूपित की है कि जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों की जांच तेजी से होनी चाहिए। शीर्ष अदालत की यह नाराजगी और टिप्पणी लोकतंत्र के व्यापक हित में है। जांच एजेंसियों को चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट को ध्यान से सुनें और अपनी कार्य पद्धति में तत्काल सुधार करें। मुख्य न्यायाधीश वी. रमन्ना, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की खंडपीठ जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों की जांच कर रही है। बेंच ने इस बात पर दुख जताया है कि डेढ़- दो दशक से बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं और केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) एवं प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जैसी एजेंसियां कुछ नहीं कर रही हैं। विशेषकर ईडी तो सिर्फ संपत्तियां जब्त कर रही है।
खंडपीठ ने कहा कि यह विडंबना ही है कि अनेक मामलों में आरोप पत्र तक पेश नहीं किये गये हैं। महाभियोजक तुषार मेहता को कोर्ट ने निर्देश दिया कि वे सीबीआई एवं ईडी के निदेशकों से बात करें और पूछें कि समय पर जांच पूरी करने के लिए उन्हें और कितने अधिकारियों की आवश्यकता है। न्यायालय ने फिर से स्पष्ट किया कि दुर्भावनापूर्ण तरीके से किये गये मुकदमे वापस लेने में कोई बुराई नहीं है परंतु इसके लिए उच्च न्यायालय की अनुमति आवश्यक है। बेंच ने मुकदमों को लटका कर न रखने के भी निर्देश दिये। यह बात सामने लाई गई कि धनशोधन नियंत्रण कानून से संबंधित 78 मामले पिछले 21 वर्षों से लंबित हैं और सीबीआई के 37 मामले अभी तक लटके हुए हैं। ये सभी सांसदों और विधायकों के खिलाफ चल रहे हैं।
इस मायने में शीर्ष अदालत की इस टिप्पणी को गंभीरता से लिए जाने की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान भारत का एक बड़ा संकट हमारी राजनीति का अपराधीकरण है। बड़ी संख्या में सांसद और विधायक ही नहीं बल्कि राजनीति में शामिल होने वाले निचले स्तर तक के कार्यकर्ता-नेता विभिन्न तरह के अपराधों में शामिल होते हैं। कहा जाए तो अपराधी होना योग्यता का पैमाना बन गया है नरेन्द्र मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने उम्मीद जताई थी कि जनप्रतिनिधियों पर चल रहे आपराधिक मुकदमों पर एक वर्ष में सुनवाई पूरी हो जानी चाहिए। दिक्कत यह है कि हमारी न्यायपालिका पहले से ही प्रकरणों के बोझ से दबी हुई है। ऊपर से जांच एजेंसियां वक्त पर अन्वेषण पूरा नहीं करतीं इससे कोर्ट के हाथ बंध जाते हैं। इस लेटलतीफी का फायदा उठाकर ज्यादातर राजनैतिक दलों ने अनेक अपराधी तत्वों को संसद और विधानसभाओं तक पहुंचाया है। सच्चाई तो यह है कि ज्यादातर सियासी दलों को इस तरह के आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं की सख्त जरूरत होती है क्योंकि ये धनबल और बाहुबल से संपन्न होते हैं।
चुनाव जीतने और जिताने में ये लोग माहिर होते हैं। सभी दलों का लक्ष्य संसद और विधानसभाओं ही नहीं, स्थानीय निकायों में भी अपने अधिकतम नेताओं को पहुंचाना होता है। येन केन प्रकारेण चुनाव जीतना ही सबका उद्देश्य होता है ताकि समाज और सत्ता पर पकड़ बनी रहे सके। ज्यादातर विधायिकाओं में अपराध में फंसे लोगों का बोलबाला है जिन पर छोटे-मोटे अपराधों से लेकर हत्या और बलात्कार तक के आरोप लगे हुए हैं। जब तक इन संस्थानों को अपराधियों से मुक्त नहीं किया जायेगा, तब तक अपराधमुक्त समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
इस प्रकार कानून तोड़ने वाले कानून बनाने का अधिकार पा जाते हैं जो लोकतंत्र के लिए बेहद शर्मनाक है। देश की निर्वाचन प्रणाली में सुधार की कई बार कोशिशें की गईं लेकिन राजनैतिक स्वार्थों के चलते देश राजनीति को अपराधमुक्त नहीं बना सका है। सत्ता, धन, शक्ति और पद पाने की आकांक्षाओं के चलते देश की राजनीति अपराध के दलदल में फंसी हुई है। इसका एक बड़ा कारण जांच एजेंसियों की यही सुस्त गति है। इसलिए उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए ये निर्देश काफी महत्वपूर्ण हैं। विधायिका और कार्यपालिका को चाहिए कि कोर्ट के इस निर्देश का कड़ाई से पालन करें। जब तक राजनीति और निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपराधी प्रवृत्ति के होंगे तब तक एक लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण नहीं हो सकता।
स्मरण हो कि 10 अगस्त को ही एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने चुनावी उम्मीदवारों का आपराधिक रिकार्ड सार्वजनिक न करने के कारण भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस सहित 8 राजनीतिक दलों पर 1 से 5 लाख रुपयों का जुर्माना लगाया था। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना, जस्टिस विनीत सरन एवं न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने केन्द्र सरकार और सीबीआई जैसी केन्द्रीय एजेंसियों के प्रति उस फैसले के दौरान भी नाराजगी जतलाई थी। राजनीति और समाज को अपराधों से मुक्त करने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट के ये फैसले दूरगामी असर दिखा सकते हैं; लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि जांच एजेंसियां अपना काम तेजी से करें।