‘‘भारतीय समाज की जटिलता-जाति व्यवस्था’’
पी.डी. ओस्पेंस्की ने ‘‘ए न्यू मॉडल ऑफ दी यूनीवर्स’’ पृष्ठ 509 पर लिखा है: ‘‘मनुष्यों का चार वर्णों में वर्गीकरण एक आदर्श समाज व्यवस्था है। इसका कारण यह है कि वास्तव में यह एक स्वाभाविक वर्गीकरण है। चाहे लोग इसे चाहें या न चाहें, चाहे वे इसे मानें या न मानें मगर वे चार वर्गों में विभाजित हैं। समाज में ब्राह्मण है। क्षत्रिय हैं, वैश्य हैं और शूद्र हैं। कोई भी मानवीय कानून कैसी भी दार्शनिक गुत्थियाँ कोई अप्राकृतिक विज्ञान और किसी प्रकार का आतंक इस सत्य को नष्ट नहीं कर सकता। मानव समुदायों का विकास और सामान्य क्रिया कलाप तभी सम्भव है जबकि इस स्वाभाविक चतुर्विध् वर्गीकरण को माना और क्रियान्वित किया जाये।’’
महर्षि मनु और मनु प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था के विषय में उपरोक्त टिप्पणी अक्षरश: सत्य है। हमने वर्ण का अर्थ जाति से निकाला है। वास्तव में ऐसा अर्थ किया जाना हमारी अज्ञानता का परिचायक है। वत्र्तमान भारतीय समाज में जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति आदि दलित, शोषित समाज को इंगित करती सामाजिक व्यवस्था हमें दीख रही है, इसका लेशमात्र भी सम्बन्ध् मनु की वर्ण व्यवस्था से नहीं है। ‘सवर्ण’ शब्द का अर्थ सामान्यत: ब्राह्मण आदि से लिया जाता है, जबकि ऐसा नहीं है। मनु प्रतिपादित व्यवस्था में चार वर्ण हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। समाज का प्रत्येक व्यक्ति इन वर्णों में से किसी न किसी को अपने लिए अवश्य चुनता है। इसीलिए वह सवर्ण है। चुनना ही वर्ण है। और जो चुन सका वह सवर्ण हो गया। यदि किसी ने अपने लिए चर्मकार का व्यवसाय चुन लिया तो वह भी सवर्ण हो गया।
डॉ. अम्बेडकर ने भी ‘जाति प्रथा उन्मूलन’ में पृष्ठ 119 पर ऐसा की मत व्यक्त किया है ‘‘वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो।’’ आज हम समाज में ‘सवर्ण’ शब्द को कुछ विशेष लोगों के लिए एक गाली के रूप में प्रयुक्त होता देख रहे हैं। यह हमारे चिन्तन में आयी गिरावट का परिणाम है। इसके उपरान्त भी एक खुशी की बात ये है कि हमारे शूद्र भाईयों के लिए ‘अवर्ण’ जैसा कोई शब्द सामाजिक व्यवस्था के वत्र्तमान व्याख्याकारों ने नहीं गढ़ा है। कुल मिलाकर उन्हें भी सवर्ण ही माना जा रहा है। क्योंकि जब वह भी अवर्ण नहीं हैं तो सवर्ण स्वयं ही हो गये और है भी ऐसा ही। भारतीय समाज में दलित, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग आदि की धारणायें मनु प्रतिपादित नहीं है। यहाँ तक कि जाति व्यवस्था भी उनकी देन नहीं है। डॉ. अम्बेडकर ने ‘‘मनु का विरोध् क्यों?’’
में लिखा है ‘‘अकेला मनु न तो जाति व्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था।’’
जातिवाद का वत्र्तमान स्वरूप समाज के उन कथित ठेकेदारों की देन है जिन्होंने अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए समाज को अपने ढंग से चलाने का प्रयास किया और अपनी पूजा को ही भगवान की पूजा बनाने का कुचक्र चलाया। निश्चित रूप से यह ब्राह्मण समाज ही था। इस जटिल व्यवस्था का दुरूपयोग ब्रिटिश सरकार ने भारत में 1910 की जनगणना के समय किया। उस समय की रिपोर्ट में भारत के हिन्दू समाज को विखण्डित करने का प्रयास किया गया। हिन्दुओं को तीन भागों में विभाजित किया गया। जनजातियाँ और दलित वर्ग। भारतीय समाज की एकता की चादर का नाम अभी तक ‘हिन्दू’ था जिसे तीन भागों में विभाजित करने की पहल की गयी। भारत के समाज को विदेशी शासकों की पराधीनता से मुक्त कराने के लिए जो जातियाँ सैकड़ों वर्ष से संघर्षरत थीं उन्हें जंगली जातियाँ या जनजातियाँ मान लिया गया। दुर्भाग्य ये है कि मध्यकाल में हमारी स्वाधीनता के लिए संघर्षरत इन जातियों को हम आज तक जनजाति का या पिछड़ी जाति का ही स्थान दे रहे हैं। स्वाधीनता के उपरान्त अंग्रेजों की यह व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए थी।
मानव समाज के लिए यह अत्यन्त शर्मनाक अवस्था है कि उसके किसी वर्ग या समुदाय के लोगों को आप मन्दिर प्रवेश, शिक्षा-प्रवेश या कुओं तक पर जाने से रोक दें। यह कलंकित परिवेश अशोभनीय है। इस परिवेश को समाप्त करने के लिए भारतीय समाज को जातिविहीन बनाना शासन का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए था। इसीलिए संविधान ने जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए विशेष व्यवस्था की। किन्तु वत्र्तमान राजनीतिज्ञों ने इस व्यवस्था का गुड़-गोबर कर दिया है। आज की राजनीति जातिवाद के भंवर जाल में फ ंस चुकी है। जिन लोगों से जातिवाद की विघटनकारी मनोवृत्ति को समाप्त करने की अपेक्षा की जाती थी वही जातिवाद को अपना एक अस्त्र बनाकर राजनीति कर रहे हैं। भारतीय समाज की यह दु:खती रग है जिसमें भारत की आत्मा की आवाज का सुना नहीं जा रहा है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज जैसे लोगों ने और उनकी पवित्र संस्था आर्यसमाज ने महर्षि मनु की वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक परिभाषा को स्थापित कर तदानुसार समाजोत्थान की भावना पर बल दिया था। जिसे डॉ. अम्बेडकर ने भी सराहा ‘‘मैं मानता हूँ कि स्वामी दयानन्द व अन्य कुछ लोगों में वर्ण के वैदिक सिद्घान्त की जो व्याख्या की है, वह बुद्घिमता पूर्ण है और घृणास्पद नहीं है। मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्चित करने का निर्धारक तत्व है। वह केवल योग्यता को मान्यता देती है।’’
जातिगत आरक्षण दलित को दलित बनाता है, उसे जातिगत आधार प्रदान करता है। उसे आप समाज की जटिलताओं का विरोधी तो बना सकते हैं, लेकिन उन जटिलताओं से बाहर निकालकर उसे समाज का उपयोगी अंग नहीं बना सकते। समाज की जटिलताओं का विरोधी होना समाज में वर्ग संघर्ष को बढ़ाता है। जबकि हमें वर्ग संघर्ष को ही तो रोकना है। इसके लिए जाति-वर्ण की सही व्याख्या को अपनाने तथा हिन्दू समाज को वर्ग विहीन बनाने की आवश्यकता है।
मुख्य संपादक, उगता भारत