हमारे देश में हजारों भूमिपुत्र आज भी केवल बारिश के पानी के सहारे खेती करने पर निर्भर रहते हैं। इसके पीछे कारण साफ है वर्तमान में खेती लाभ का धंधा नहीं है। जितनी उपज मिलती है, उसके अनुपात में लागत और मेहनत का आंकलन किया जाए तो उससे ऊपर ही होती है। यानी किसान को कुछ भी नहीं मिलता। आज किसान मजबूरी में खेती करने के लिए बाध्य हो रहा है। क्योंकि खेती के अलावा उसके पास जीविकोपार्जन का अन्य माध्यम नहीं है।
वर्तमान में हमारे देश में कई प्रदेशों में खेती की स्थिति इतनी विकराल हो गई है कि किसान जीवन को समाप्त करने जैसा कदम उठाने लगा है। महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश की बात की जाए तो दोनों ही प्रदेश इस मामले में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ करते दिखाई देते हैं। सबसे बढ़ा सवाल यह है कि पूरे देश का पेट भरने वाले किसान आज खुद क्यों मरने की हालात में पहुंचा है। इसके लिए हमारी सबकी सोच भी जिम्मेदार है। वर्तमान में भारत में जिस प्रकार से अर्थ आधारित जीवन की कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ है, तब से हमारे देश के युवा नौकरी की तलाश में गांव से पलायन करने लगे हैं। उन्हें जीवन में केवल पैसा चाहिए। हम जानते हैं कि पहले के समय में कृषि युक्त भूमि लोगों की प्रतिष्ठा का आधार होती थी, आज उसका स्थान नौकरी ने ले लिया है।
मॉनसून हमारे किसानों के लिए सदियों से जुए जैसा ही रहा है। आसमानी बारिश से सिंचाई के समुचित साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण अब मजबूरन छोटे किसानों को रास्ते बदलने पड़ रहे हैं। बाजार में कीमतें आसमान छू रही हैं और छोटे के किसानों के पास नकदी की कमी है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि किसान के अन्य किसी प्रकार का आय का स्रोत नहीं है। जो फसल किसान उगाता है, उसे तुरंत बेच देता है, क्योंकि उसे अपना कर्जा उतारना होता है। इसके बाद सारी फसल का लाभ वे व्यापारी ही उठाते हैं, जो फसल के खरीदार होते हैं। किसान को इसका सीधा लाभ कभी नहीं मिल पाता। सोचने वाली बात यह भी है कि किसान अपने उत्पाद को लेकर बाजार में जाता है, तो उसे बाजार भाव के अनुकूल दाम नहीं मिलते। स्थिति यह है कि धान जैसी प्रमुख फसल की भी उचित कीमत नहीं मिल पाती है। उसका भाव भी बीते कई सालों से यथावत बना हुआ है। यह विडंबना ही है कि पर्यावरण प्रदूषण के कारण अब समय पर मॉनसून नहीं आता और न किसानों को समय पर सिंचाई से साधन मिल पाते हैं। इसके लिए किसान सहित सारा समाज भी दोषी है। हम जाने अनजाने में अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का विनाश करते जा रहे हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से मानव जीवन के साथ एक खिलवाड़ भी है। पेड़ पौधों को काटने के कारण हम मानसून की गति को तो प्रभावित कर ही रहे हैं, साथ ही कई प्रकार की बीमारियों को भी आमंत्रित कर रहे हैं। हम जानते हैं कि आज के समय में कई बीमारियां ऐसी हैं, जिन अशुद्ध वायु और अशुद्ध खानपान का प्रभाव है। अगर हम पर्यावरण के लिए अभी से सचेत नहीं हुए तो आने वाला समय और भी ज्यादा खतरनाक ही होगा। हालांकि, सरकार ने किसानों के नाम पर अनेक परियोजनाओं की शुरुआत की है, लेकिन वह भी मॉनसून की बारिश की तरह सिर्फ पानी का छिडक़ाव के समान है। सरकार को किसानों की दशा सुधारने के लिए कुछ न कुछ पहल जरूर करनी होगी। जल प्रवाहित करने वाली नदियों के संरक्षण और संवर्धन पर जोर देना होगा। जिस दिन भारत में फसल सिंचाई के साधन फलीभूत होंगे, उस दिन सही मायने में भारत कृषि प्रधान देश की परिभाषा को सार्थकता प्रधान करेगा।
पहले के जमाने में किसान धान और गेहूं जैसी प्रमुख फसलों पर अपना जीवन-यापन करता था, लेकिन आज केवल खेती के सहारे जीवन चलाना संभव नहीं है। किसानों ने अपनी खेती को इतना जहरीला बना दिया है कि उसका सीधा प्रभाव खेती की उपज पर तो पढ़ ही रहा है, साथ ही स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है। खेती में लाभ नहीं मिलने के कारण किसान परेशान है। ऐसी स्थिति में उन्हें शहरों की ओर रुख करना पड़ रहा है। वहीं, कुदरती कहर झेल रहे किसान फसल को उपजाने में जितनी राशि खर्च करते हैं, उन्हें उस अनुपात में राशि की वापसी भी नहीं होती। ऐसे में यदि सीमांत और छोटा किसान खेती करना न छोड़े, तो आखिर वह करे क्या ?
रासायनिक खेती भी है कारण
हम यह बात भली भाँति जानते हैं कि भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारी खेती बहुत ही उन्नत थी। चारों दिशाओं में लहलहाते खेत भी बहुत व्यक्तियों ने देखे हैं। फिर ऐसा कौन सा कारण है कि हमारी खेती वर्तमान में ऐसी स्थिति में पहुंच गई कि हमारे किसान रोने के लिए मजबूर हो गए। कई जगह कृषि भूमि बंजर हो गई है, और कई जगह बंजर होने के कगार पर है। इसके पीछे का कारण केवल रासायनिक खेती हैं। हालांकि कई स्थानों पर जैविक खेती की तरफ किसानों ने रुख किया है, जिसके अपेक्षित परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं। इसलिए यह जरूरी है कि किसानों अभी से ही जैविक खेती की ओर प्रवृत होना होगा। तब ही हमारा देश कृषि प्रधान के तमगे को बचा पाएगा।