भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन, अध्याय – 6 ( ख) राजा दाहिर सेन और राष्ट्रधर्म

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यही कारण है कि राजा दाहिर सेन को जब विदेशी शत्रु आक्रमणकारी अरबों के विषय में यह समाचार मिला कि वे सिन्ध पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं तो उन्होंने भी युद्ध का सामना करने की तैयारी करना आरम्भ कर दिया। वैसे भी भारत में मानवता के शत्रुओं से युद्ध करना धर्म युद्ध माना गया है। सिन्ध पर अरब आक्रमणकारी जिस उद्देश्य से भारत की ओर बढ़ते आ रहे थे, उनका वह उद्देश्य भी शत्रुता का ही था, जिसे राजा दाहिर सेन ने समझने में तनिक भी देर नहीं की। राजा दाहिर सेन को यह समाचार देवल के अपने सूबेदार से प्राप्त हुआ कि अरब जहाज पर सवार व्यापारियों ने किस प्रकार वहाँ उपद्रव किया था और वे किस प्रकार अपनी जान बचाकर भागने में सफल हो गए थे ? राजा ने समझ लिया कि अरब का खलीफा निश्चय ही इस घटना को बात का बतंगड़ बना कर भारत पर हमला करेगा। फलस्वरूप राजा ने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने के आदेश जारी कर दिए । जिससे सेना युद्ध के लिए सभी आवश्यक सामग्री जुटाने लगी।
 भारत के राजाओं की यह भी एक बहुत ही अद्भुत और वीरतापूर्ण परम्परा रही है कि जब देश - धर्म की रक्षा का प्रश्न आ उपस्थित होता था तो राजा युद्ध के मैदान के लिए अपने परिजनों को भी वैसे ही भेजता था जैसे आम प्रजाजन को युद्ध के मैदान के लिए भेजा जाता था। कहने का अभिप्राय है कि उस समय देश रक्षा के लिए राजा अपने किसी परिजन या पुत्र आदि को पीछे छोड़ने की बात नहीं सोचता था, अपितु उसे देश धर्म की रक्षा के लिए सबसे पहले बलिदान देने के लिए प्रेरित करता था। 
राजा यह प्रयास करता था कि जनता के लोग किसी राजकुमार या राजा के परिजन से यह प्रेरणा प्राप्त करें कि जैसे वे देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार रहते हैं वैसे ही हमें भी तैयार रहना चाहिए। राजाओं के इस प्रकार के आचरण से भारत के राजधर्म की यह भावना परिलक्षित होती है कि राजा के लिए अपना पुत्र हो या किसी सामान्य जन का पुत्र हो, सब एक समान थे । उसके दृष्टिकोण में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं था। भारत के राजधर्म की इस वीरतापूर्ण परम्परा का निर्वाह करते हुए राजा दाहिर सेन ने जब अपनी सेना को शत्रु सेना का सामना करने का आदेश जारी किया तो उन्होंने अपने पुत्र जयशाह उपनाम जयसिंह को उस सेना का सेनापति नियुक्त किया। 

राजकुमार जयशाह ने संभाला मोर्चा

राजकुमार जयशाह ने अपनी सेना के साथ युद्ध क्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। राजकुमार के भीतर अद्भुत वीरता, साहस, शौर्य और देशभक्ति का भाव उस समय हिलोरें ले रहा था। शत्रु की भुजाएं मरोड़ने और उसे छठी का दूध याद दिलाने के लिए राजकुमार जयशाह की भुजाएं फड़क रही थीं। उसे पता था कि यदि शत्रु पक्ष से पराजय का मुंह देखा तो उसका परिणाम क्या होगा ? निश्चय ही लोक में - अपयश की प्राप्ति ही इसका एक मात्र फल होगा । जिसे राजकुमार कतई प्राप्त करना नहीं चाहता था। 

अपयश कभी नहीं चाहिए जो हो सच्चा वीर ।
सेवा करता देश की वह हो करके गंभीर।।

राजकुमार अपयश से बचने के लिए प्रत्येक प्रकार के ऐसे उत्कृष्ट वीरतापूर्ण कृत्य को आज अपने शौर्य के साथ दिखा देने के लिए आतुर था जो उसे भारत के इतिहास में एक देशभक्त योद्धा का स्थान दिला सके। अतः राजकुमार अपनी वीरता का प्रदर्शन करने और देशभक्ति के भावों को हृदय में संजोये बड़ी तेजी से शत्रुपक्ष का सामना करने के लिए जा रहा था।
राजकुमार ने आज यह भली-भांति समझ लिया था कि देश की सीमाओं पर खड़े शत्रु का यदि विनाश नहीं किया गया तो इसका परिणाम उसके देश और धर्म के लिए बहुत ही घातक होगा।

शत्रु दल में मच गई भगदड़

 अतः वह हर स्थिति में शत्रु का विनाश करने का उद्देश्य लेकर आगे बढ़ता जा रहा था। बड़ी तेजी से राजकुमार जयशाह अपने सैन्य दल के साथ शत्रु पक्ष का सामना करने के लिए देवल बंदरगाह पर पहुँच गया। शत्रु दल ने राजकुमार की सेना पर पहला आक्रमण किया। इसके पश्चात घनघोर युद्ध आरम्भ हो गया। राजकुमार के सैनिक बहुत वीरता के साथ लड़ रहे थे। उन्होंने आज सूर्यास्त से पहले ही शत्रु दल को मैदान छोड़कर भाग जाने की मानो सौगंध उठा ली थी। क्योंकि उन्हें लगता था कि शत्रु के भारत भूमि को छूने मात्र से भी वह अपवित्र हो जाती है और ऐसा कोई व्यक्ति जो हमारी पवित्र भूमि को अपवित्र करता हो, हमारे रहते हुए भारत भूमि पर खड़ा नहीं रह सकता। भारत के सीमावर्ती राज्य सिन्ध के ये वीर सैनिक उस दिन सिन्ध की ओर से नहीं बल्कि भारत की ओर से लड़ रहे थे। इसलिए माँ भारती का शुभाशीष उनके साथ था। सारे देश की अंतरात्मा उनकी सफलता की कामना कर रही थी।
   माँ भारती के प्रति अपने कर्तव्य धर्म को समझ कर उन्होंने अपनी वीरता और शौर्य का ऐसा प्रदर्शन किया कि शत्रु दंग रह गया। शत्रु ने भी संभवत: ऐसे वीरतापूर्ण युद्ध का अबसे पहले कहीं सामना नहीं किया था। उसे आज पहली बार यह आभास हो रहा था कि किसी को लूटना, मारना या काटना कितना महंगा पड़ सकता है और बात जब भारत के शौर्य से भिड़ने की हो तो उसका तो सामना ही करना भी कितना कठिन है? भारत के शौर्य व पराक्रम को देखकर अरब के डाकू दल के पांव उखड़ गए । 
 शत्रु दल के अनेकों सैनिक धरती पर पड़े हुए या तो संसार से सदा के लिए विदा हो चुके थे या अपनी अंतिम सांसें गिन रहे थे ।उनकी दशा को देखकर अरब के सैनिकों को समझ आ गया कि यदि कुछ देर और यहाँ रहा गया तो वह भी नहीं बचने वाले। इसलिए उन्होंने एक बार फिर प्राण बचाकर भागने में ही अपना लाभ देखा। 

दुश्मन दल भगने लगा छोड़ युद्ध का खेत।
मुश्किल में पड़ी जान तो भाग चले निज देश।।

नैतिक रूप से शत्रु दल का मनोबल टूट चुका था। इसी समय शत्रु दल के सेनापति अब्दुल्लाह के बारे में भी शत्रु पक्ष में यह खबर बड़ी तेजी से फैल गई कि वह भी संसार से विदा हो चुका है, अर्थात भारत के वीर सैनिकों ने उसको भी दोजख की आग में डाल दिया है। ऐसी परिस्थिति में अब्दुल्लाह की सेना नेतृत्व विहीन हो चुकी थी। अब उसके पास मैदान छोड़कर भागने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं था। फलस्वरूप अब्दुल्लाह के बचे हुए सैनिक मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। भागती हुई अरब सेना पर नैतिकता और मर्यादाओं की सीमा में बंधी भारत की सेना ने पीछे से आक्रमण नहीं किया और उन्हें भाग जाने दिया। मैदान से वास्तव में वही भागता है जो कमजोर होता है और कमजोर वही होता है जिसकी अंतरात्मा निर्बल होती है, जो चोरी, डकैती, लूट और दूसरे अपराधों के वशीभूत होकर दूसरों पर आक्रमण करता है। उसकी अंतरात्मा निर्बल होती है और जो इस प्रकार के अपराधियों का सामना कर रहा होता है उनकी आत्मा में भीतर से अपने आप ही उत्साह और उल्लास का अमिट भाव उनका नेतृत्व कर रहा होता है। 

भारतीय वीरों को मिली बड़ी सफलता

  हर आदमी युद्ध के मैदान में अपनी अंतरात्मा से नेतृत्व ग्रहण करता है । यद्यपि लोग बाहरी नेतृत्व को खोजते हैं और सोचते हैं कि बाहरी नेतृत्व के बल पर ही सैनिक युद्ध क्षेत्र में लड़ते हैं। हमारा मानना है कि बाहरी नेतृत्व का सहयोग इसमें बहुत कम होता है। भीतरी नेतृत्व कहीं अधिक बलवान होता है । इसके समर्थन में ऐसे अनेकों उदाहरण भारतीय इतिहास से दिए जा सकते हैं जब हमारे मुट्ठी भर सैनिकों ने विदेशियों की बड़ी-बड़ी सेनाओं को समाप्त करने में सफलता प्राप्त की।
 भारत के शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन कर रहे सिंध के सैनिकों ने अपने राजकुमार के नेतृत्व में शत्रु सेना को मार भगाकर बहुत बड़ी जीत प्राप्त की थी। यद्यपि चुनौतियां अभी समाप्त नहीं हुई थीं।वे भविष्य में और भी कितनी भयंकर हो सकती हैं ? - यह देखना अभी शेष था, परन्तु उपलब्ध अवसर के बारे में यदि चिंतन किया जाए तो निश्चित रूप से वे पल हमारे सैनिकों के लिए प्रसन्नता और गौरव के पल थे। फलस्वरूप सभी सैनिकों ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए गर्व और गौरव की अभिव्यक्ति के साथ अपने राजकुमार का स्वागत किया। सभी सैनिकों ने अपने राजकुमार को एक जुलूस के रूप में लेकर राजधानी की ओर प्रस्थान किया। देश के लोगों ने भी अपने वीरों की वीरता का ह्रदय से स्वागत और सत्कार किया। मार्ग में अनेकों लोगों ने विजयी होकर लौटती राजकुमार की सेना का पुष्प वर्षा से स्वागत किया और देश धर्म के प्रति अपने सहयोग व समर्थन का आश्वासन दिया। बहनों ने आरतियां उतारकर अपने वीर सैनिक भाइयों का मनोबल बढ़ाया। चारों ओर देशभक्ति का ऐसा वातावरण बन गया था जिसे देखकर हर दिल में देश पर मर मिटने की भावना पैदा हो सकती थी । राजकुमार की जय, सिन्ध देश की जय, राजा दाहिर सेन की जय, मां भारती की जय, हर हर महादेव आदि के गगनभेदी नारों से आकाश गूंज उठा। सर्वत्र भारत माता के शूरवीरों की यशोगाथा का वर्णन हो रहा था और लोग अपने राजकुमार की झलक पाकर भी अपने आपको धन्य अनुभव कर रहे थे। 

उन वीर सपूतों की गाथा
अब सारा भारत गाता है,
देखकर उनके जज्बे को
हर व्यक्ति शीश नवाता है,।
अंतिम क्षण तक की देश की सेवा
नहीं दिखाई कायरता,
शत्रु के सीने चीर दिए
ना छोड़ा कोई अता पता।।

सर्वत्र राजकुमार जयशाह की जय जयकार हो रही थी। जब यह समाचार राजा दाहिर सेन को मिला तो उन्होंने भी राजकुमार जयशाह और उनके सैनिकों के स्वागत सत्कार की उचित तैयारियां करायीं। राजा ने विजयी होकर लौट रहे राजकुमार और उनके सैनिकों के स्वागत सम्मान के लिए राजधानी के मुख्य द्वार से राजभवन तक बड़ी भव्य तैयारियां कराईं। राजभवन के प्रवेश द्वार पर विशेष आरती उतारकर राजा ने राजकुमार और उनके सैनिकों का यथोचित सम्मान किया। इसके पश्चात राज भवन के भीतर इन सभी शूरवीरों की वीरता को सम्मानित करने के लिए एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
युद्ध क्षेत्र से भागा शत्रु पीछे मुड़कर देखने को तैयार नहीं था। क्योंकि उसकी पीठ पर जितनी चोट पड़ी थी, वह उससे भुलाये नहीं भूली जा रही थी। इस भागती हुई सेना के साथ कमी केवल यह रह गई थी कि हमारे विजयी योद्धा यदि इसका थोड़ा सा पीछा करके इसे समूल नष्ट कर देते तो अच्छा रहता। शत्रु का समूलोच्छेदन बहुत आवश्यक होता है। उधर शत्रु को अपनी राजधानी में घुसना कठिन दिखाई दे रहा था, क्योंकि उसे डर था कि जैसे ही उसके खलीफा को उसके खाली हाथ लौटने की सूचना मिलेगी वैसे ही उन पर वहाँ भी मार पड़ेगी।

राजभवन में भी हुआ भव्य स्वागत

  इधर हमारा राजकुमार जयशाह था जो पूरे उत्साह के साथ अपनी राजधानी में प्रवेश कर रहा था। हारने और जीतने वाले का बस यही अंतर होता है। हारने वाला जहाँ युद्ध के मैदान से हताश ,निराश और उदास होकर भागता है, वहीं वह भागते - भागते अपना ऐसा आश्रय स्थल भी ढूंढने का प्रयास करता है जहाँ लोग उसे सम्मान के साथ बैठा सकें ? जबकि जीतने वाला जहाँ उत्साह के साथ मैदान से घर के लिए प्रस्थान करता है वहीं उसे आश्रय देने वाले भी अनेकों होते हैं।  सर्वत्र उसकी जय जयकार होती है और जिन लोगों की जीवन रक्षा का संकल्प लेकर वह गया था जब वे लोग यह देखते हैं कि उनका जीवन अपने विजयी राजा , राजकुमार या योद्धा सेनापति के कारण आज सुरक्षित है तो वह भी फूले नहीं समाते और स्वाभाविक रूप से सड़कों पर आकर अपने विजयी, राजा, राजकुमार या योद्धा सेनापति का स्वागत फूल मालाओं से करने को आतुर हो उठते हैं।

ऐसे में जनसाधारण की इन फूलमालाओं पर राजा दाहिरसेन के पुत्र राजकुमार जयशाह का इस समय पूर्ण अधिकार था। फूल मालाओं के साथ लोगों का प्यार और सम्मान भी गुँथा हुआ था। जो आज अपने राजकुमार और उसके साथियों के गले में गुम्फित होकर लिपट जाना चाहता था।

जीत में वीर योद्धा मानू गुर्जर का योगदान

राजकुमार जयशाह की इस जीत में वीर योद्धा मानू गुर्जर का भी विशेष योगदान रहा था। मानू गुर्जर उस समय का एक ऐसा महान व्यक्तित्व था जिसने उन अरब आक्रमणकारियों को कठोर दंड दिया था जिन्होंने देवल (कराची ) की बन्दरगाह में अरब के समुद्री जहाजों के उन नागरिकों को मारकर सामान लूट लिया था जो वहाँ की सिन्धी हिन्दू स्त्रियों का अपहरण करके ले जाना चाहते थे । मानू गुर्जर जैसे योद्धा ने देश की नारियों के सम्मान को राष्ट्र की अस्मिता का प्रश्न बनाकर अपने लिए भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। वैसे यह भारतीय समाज और संस्कारों की प्राचीन परंपरा है कि नारी के सम्मान को अपना सम्मान समझना चाहिए , फिर चाहे नारी किसी भी जाति बिरादरी की क्यों न हो ? 
   वास्तव में हमारे लिए जाति बिरादरी तो बाद में आती है पहले तो हम नारी की एक मातृशक्ति के रूप में पूजा करते हैं।  अपनी इस परंपरा को मानू गुर्जर भली प्रकार जानते व समझते थे। इसलिए उन्होंने नारी के सम्मान के लिए उठ खड़े होकर शत्रु का सामना करना उचित माना था।एक विदेशी राक्षस हमारी धरती पर आकर यदि हमारी बहन बेटियों से कुछ कहता है या उनके सम्मान को चोट पहुँचाता है तो उनकी रक्षा करना प्रत्येक क्षत्रिय का कर्तव्य कर्म था । जिसे इस महान योद्धा मानू गुर्जर ने समझा और ऐसा अनिष्ट करने वाले विदेशी राक्षसों को कठोर दण्ड दिया । 

मानू गुर्जर ने मान बढ़ाया
भारत माँ के वैभव का,
बेशकीमती हीरा बन उभरा
भारत के यश और गौरव का।
सर्वत्र हुई चर्चा उसकी
उसके यश और पौरुष की,
यशोगान किया लोगों ने
उसके यौवन शैशव का।।

बाद में वही मानू गुर्जर महाराजा दाहिर का प्रधान सेनापति बना था। मानू गुर्जर इस महत्वपूर्ण पद पर अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर पहुँचा था। उसने अपने शौर्य और वीरता का प्रदर्शन उचित समय पर इस प्रकार किया था कि शत्रु दाँत तले उंगली दबा कर उनके सामने पीठ दिखा कर भाग गया था। सिन्ध के इतिहास में जहाँ राजा दाहिर सेन, राजकुमार जय शाह और उनके अन्य अनेकों नाम अनाम सैनिकों, अधिकारियों का विशेष उल्लेख किया जाना अनिवार्य है वहीं मानू गुर्जर जैसे महान वीर योद्धा का स्मरण करना भी बहुत आवश्यक है। क्योंकि इन लोगों के कारण ही भारत उस समय अपनी राष्ट्रीय अस्मिता व संप्रभुता की रक्षा करने में सफल हो पाया था। यह माना जा सकता है कि आज सिन्ध का वह क्षेत्र भारत के पास नहीं है परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं हो जाता है कि हम अपने तत्कालीन इतिहास के गौरवमयी पृष्ठों को ही फाड़ दें  या उनके बारे में यह मान लें कि उन पृष्ठों का इतिहास में ना तो कोई स्थान है और ना ही कोई योगदान है।    
     हमारा मानना है कि भारतवर्ष का इतिहास भी तब तक अपूर्ण ही रहेगा जब तक उसमें राजा दाहिर सेन, उनके पुत्र जयशाह और मानू गुर्जर जैसे वीर योद्धाओं का यशोगान ना हो। आज आवश्यकता भी इसी बात की है कि हम अपने इतिहास पर गहन शोध करें और उसमें उन योद्धाओं को उचित स्थान दें जिन्होंने समय विशेष पर देश की सीमाओं को अखण्ड बनाए रखने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया था या किसी भी विदेशी राक्षस आक्रमणकारी को समय पर उचित उत्तर देकर अपनी वीरता का लोहा शत्रु से मनवाया था। 

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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