मेजर जन. अशोक के. मेहता (अ.प्रा.)
वर्ष 2001 में अफगानिस्तान से खदेड़े जा चुके तालिबान के लिए मुल्क दुबारा फतह करना एक उपलब्धि है। यह वही तालिबान है, जिसने कभी अमेरिका के लिए कहा था : ‘बेशक अमेरिका के पास घड़ियां हैं, लेकिन वक्त हमारा होगा।’ अब स्थितियां घूम-फिर कर वापस उसी बिंदु पर आ गई हैं।
सत्ता में तालिबान की वापसी के पीछे पाकिस्तान का योगदान कम नहीं है। इससे भारत-पाक के बीच तनातनी की आग में घी पड़ना अवश्यंभावी है, पहले ही अनुच्छेद 370 हटाने की वजह से आपसी रिश्ते निम्नतम स्तर पर हैं। पाकिस्तान की हरचंद कोशिश भारत को अफगानिस्तान से परे रखने की रही है।
वर्ष 2007 में विदेश सचिव निरूपमा राव ने अपने पाकिस्तानी समकक्ष रियाज़ खान से समझौता वार्ता में अफगान मसले पर बात को 9वें स्थान पर रखने को राजी कर लिया था, लेकिन पाकिस्तानी सेना ने यह कहकर कभी अमल नहीं करने दिया कि ऐसा होने पर अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को वैधता मिल जाएगी।
पाकिस्तान ने अमेरिका को आश्वस्त कर अफगानिस्तान में भारत को हाशिए पर बनाए रखा। पहले-पहल राष्ट्रपति अशरफ गनी के पास जितनी शक्ति थी, उसके मुताबिक उन्हें भी भारत को बाहरी छोर पर रखना पड़ा था। इसी तरह पाकिस्तान के उकसावे पर रूस ने अपने नेतृत्व में अफगान समस्या का हल निकालने को जुटी तिकड़ी (चीन-पाकिस्तान-अमेरिका) के साथ भारत को यह बताकर स्थान नहीं दिया कि उसका तालिबान पर प्रभाव नगण्य है।
कालांतर में भारत-पाक के बीच संकटग्रस्त संबंधों का हल निकालने में अमेरिका, सोवियत संघ और यूके ने कई मर्तबा पेशकश की है लेकिन मध्यस्थता में तीसरे पक्ष को शामिल न करने की नीति और शिमला समझौते की लीक पर चलते हुए भारत-पाक ने पहले राजनयिक स्तर पर और बाद में पर्दे के पीछे संवाद बनाए रखा। आगे यह सिलसिला निचले स्तर यानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के मध्य चला। वर्ष 2004-07 के बीच सतिंदर लांबा–तारिक अज़ीज़ में चली गुप्त वार्ताओं के दौर ने अंततः कश्मीर समस्या पर चार-सूत्रीय फार्मूला निकाल लिया था, जो इस जटिल मसले पर दोनों मुल्कों के रुख से सबसे ज्यादा नजदीक था।
गुप्त वार्ता के भी कई रूपांतर देखने को मिले। मसलन, आईएसआई-रॉ के बीच सीधा संवाद, आईएसआई और भारतीय राष्ट्र सुरक्षा सलाहकार के बीच वार्ता। माना जाता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने पिछले साल लंदन में पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा से गुप्त भेंट की थी। इससे पहले बाजवा ने इस्लामाबाद में सुरक्षा समिति में पाकिस्तानी हुक्मरानों को दोनों मुल्कों के बीच रिश्तों को भू-राजनीतिक लीक पर रखने की बजाय भू-आर्थिक वाली अपनाते हुए कटु इतिहास को दफन करने की सलाह दी थी। अमेरिका में यूएई के राजदूत यूसुफ अल ओतर्बा ने स्वीकार किया है कि अंदरखाते मध्यस्थता चल रही है-उनका मतलब है, वे इसमें शामिल हैं-ताकि भारत-पाक से बीच स्वस्थ और व्यवहार्य रिश्ते बन सकें। 25 फरवरी को दुबई में डोभाल और आईएसआई के ले. जनरल फैज़ हमीद के बीच सीमा रेखा पर शांति स्थापना वाला समझौता हुआ था।
जब कभी दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्तों में आशान्वित करती आहट सुनाई देती है, वह अक्सर गुप्त वार्ताओं का परिणाम होती है। पाकिस्तान के मौजूदा अपेक्षाकृत युवा और बातूनी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने सार्वजनिक तौर पर माना है कि भारत ने गुप्त वार्ता के लिए कहा था, जिससे सीमा पर शांति स्थापित हो पाई। यह कदम प्रशंसनीय है, क्योंकि लद्दाख में चीनी सेना की घुसपैठ के बाद भारत के लिए एक साथ दो मोर्चों पर बने तनावों से बचना ज्यादा समझदारी है। ‘स्पाई स्टोरीज़-इनसाइड सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ रॉ एंड आईएसआई’ के सह-लेखकों एड्रियन लिवाय और कैथी स्कॉट क्लार्क का भी मानना है कि वर्ष 2018-19 से पहले गुप्त वार्ताएं होती रही हैं।
इनके मुताबिक, भारत ने आईएसआई की इस बात पर यकीन न करते हुए कि पुलवामा हमले के लिए वह जिम्मेवार नहीं है, बालाकोट पर हवाई कार्रवाई चुनी थी। यह जैश-ए-मोहम्मद है, जिसने पुलवामा, पठानकोट और उड़ी आतंकी हमलों को अंजाम दिया है, क्योंकि लश्कर-ए-तैयबा का सरगना हाफिज़ सईद घर में नज़रबंद होने की वजह से इतना सक्रिय नहीं था। कुछ समय के लिए उक्त लेखकों ने दोनों मुल्कों के बीच गुप्त दूत की भूमिका भी निभाई है। ऐसा उनका दावा है कि दोनों ओर के खुफिया विभागों के उच्चतम कर्ताधर्ताओं तक जो पहुंच उनकी है, वह अभूतपूर्व है।
पर्दे के पीछे चले संवाद से सौहार्द बनने को बढ़ावा मिला, प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान के राष्ट्रीय दिवस पर अपने समकक्ष इमरान खान को बधाई संदेश दिया था। इसके बाद जब वे कोविड संक्रमित हुए तो ‘शीघ्र स्वस्थ होने’ वाला संदेश भी भेजा था। इमरान खान ने भी मोदी को कहा है कि वे परिणाम-प्रदत्त संवाद बनाने के इच्छुक हैं। गुप्त वार्ताओं का एक बड़ा नतीजा यह था कि अप्रैल 2021 में पाकिस्तान ने भारत से कपास और चीनी खरीदने को सहमति दे दी थी। लेकिन कोई हैरानी नहीं कि इस योजना को यह कहकर खारिज कर दिया गया कि काबीना को यह मंजूर नहीं है। यह ठीक वैसा है जब वर्ष 2014-15 में खरीद-अनुबंध रद्द किया था, इनके पीछे कारण एक ही है-पाकिस्तानी सेना।
संबंध सामान्य बनाने को पहले अनुच्छेद 370 की बहाली जोड़कर पाकिस्तान ने खुद को गांठों में उलझा लिया है। जबकि दोनों मुल्क अपने-अपने नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर के इलाके को कानूनी नुक्तों के जरिए खुद में समाहित कर चुके हैं और नक्शे में अपना अंग दर्शाते हैं। पाकिस्तान के कब्जे में जम्मू-कश्मीर का जो 15 फीसदी भाग है, उसमें 85 प्रतिशत क्षेत्रफल गिलगित-बाल्टिस्तान का है, जिसे कभी उत्तरी अंचल पुकारा जाता था। इससे गिलगिल-बाल्टिस्तान पाकिस्तान का लगभग पांचवां अंचल बन गया है और पाकिस्तान में विलय हो चुका है।
भारत ने नये नक्शे में अक्साई चिन को अपना बताकर बर्रे का छत्ता छेड़ दिया है, जिसने समूची पूर्वी लद्दाख सीमा रेखा पर चीन को घुसपैठ कर इलाका कब्जाने की दावत दे डाली। इसके साथ ही, पाकिस्तान ने लाहौर में हाफिज़ सईद के घर के पास हुए बम धमाके और बलूचिस्तान में चीनी कामगारों को ले जा रही बस पर हमले के लिए रॉ पर इल्जाम लगाया है। आगे, आईएसआई ने वास्तविक नियंत्रण सीमा रेखा पर घुसपैठ मानव की बजाय ड्रोन से करनी शुरू कर दी है। तथापि, सिंधु नदी जल संधि आयोग की बैठक तीन साल बाद हुई है और भारत ने पाक खिलाड़ियों को वीज़ा जारी किए हैं।
कश्मीर पर चीन कहता आया है : ‘यह समस्या इतिहास की देन है, जिसे संयुक्त राष्ट्र चार्टर और सुरक्षा परिषद की घोषणाओं के तहत शांतिपूर्वक ढंग से सुलझाया जाना चाहिए।’ संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रैस ने भी वर्ष 2019 में भारत-पाक द्विपक्षीय सहमति के लिए शिमला समझौते की याद दिलाई थी, जिसमें कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर समस्या का अंतिम दर्जा संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अंतर्गत शांतिपूर्ण ढंग से तय किया जाए।
जाहिर है कश्मीर भारत का आंतरिक मामला नहीं है। घड़ी में तोला… घड़ी में माशा बनते भारत-पाक संबंध हालात सामान्य बनने की बाट जोह रहे हैं, जिसमें मय राजदूत और तमाम स्टाफ, दोनों मुल्कों के बीच पूर्ण राजनयिक संबंध पुनः स्थापित हों, वाघा और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर व्यापार फिर से बहाल हो और वर्ष 2015 में जो बृहद संवाद शुरू हुआ था, उसे पुनः जीवित किया जाए।
पाकिस्तान का इस बात पर अड़ना कि संबंध सामान्य बनाने के लिए भारत को पहले जम्मू-कश्मीर में किए गए संवैधानिक बदलाव पूर्व-स्थिति में लाने होंगे, और भारत का यह कहना कि वार्ता और आतंक साथ-साथ नहीं चल सकते, इससे जटिलताएं बढ़ती हैं। निडर होकर गुप्त संपर्क बनाने से अवश्य ही एक-दूजे के रुख पर बिना शर्तों और पूर्वाग्रहों वाली बातचीत की स्थितियां बनेंगी।
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