जनहित याचिकाएं ना बने निजी हित साधने का हथियार
अनूप भटनागर
समाज के कमजोर और न्याय तक पहुंच से वंचित तबकों के हितों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा अस्सी के दशक में शुरू की गयी जनहित याचिका, जो पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन के नाम से ज्यादा चर्चित है, प्रणाली आज जनता के मौलिक अधिकारों की रक्षा और इनके प्रति उदासीन कार्यपालिका और भ्रष्ट नौकरशाही को कटघरे में लाने के लिए एक कारगर हथियार बन चुकी है। लेकिन दुरुपयोग के चलते न्यायालय ने कई मामलों में इसे पॉलिटिकल इंटरेस्ट लिटिगेशन या प्राइवेट इंटरेस्ट लिटिगेशन बताते हुये खारिज भी कर दिया। फलत: उच्चतम न्यायालय ने ऐसी याचिकाओं पर कड़ा रुख अपनाना शुरू कर दिया है। अब अगर न्यायालय को पहली नजर में लगता है कि अमुक जनहित याचिका पब्लिसिटी या प्राइवेट हित के लिए है तो वह उसे खारिज ही नहीं कर रहा बल्कि याचिकाकर्ताओं पर जुर्माना भी लगा रहा है।
कई बार याचिकाकर्ता किसी विषय के बहुत अधिक विवादास्पद होने पर सिर्फ अखबार की खबरों के आधार पर ही आधी-अधूरी जानकारी के साथ जनहित याचिका दायर कर रहे हैं। कई मामलों में एक निश्चित अवधि के लिए याचिकाकर्ताओं पर ऐसी याचिका दायर करने पर रोक भी लगाई गई है। मौलिक अधिकारों की रक्षा के नाम पर संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के अंतर्गत दायर होने वाली जनहित याचिकाओं में कमी नहीं आई है।
इस समय उच्चतम न्यायालय में ही 2880 से ज्यादा ऐसी याचिकाएं लंबित हैं। इनमें से पर्यावरण की रक्षा और प्रदूषण संबंधी कुछ जनहित याचिकाएं तो 1984-85 से न्यायालय में लंबित हैं। इनमें लगातार फैसले और अंतरिम आदेश आते रहते हैं। जुलाई के अंत तक पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में पीआईएल की श्रेणी में सबसे ज्यादा 1312 मामले लंबित थे।
देश के संविधान या किसी कानून में जनहित याचिका परिभाषित नहीं है। यह व्यवस्था नागरिकों को संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की व्याख्या की देन है। इस व्याख्या ने मौलिक अधिकारों के दायरे का भी विस्तार किया है और निजता के अधिकार, भोजन का अधिकार और स्वास्थ्य सुविधा के अधिकार को इसी के दायरे का हिस्सा माना है। कोरोना वैश्विक महामारी में कामगारों से लेकर पेगासस जासूसी कांड और पर्यावरण से लेकर रैन बसेरों की स्थिति जैसे मामले जनहित याचिकाओं के कारण ही सुर्खियों में आये हैं। इन मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप के कारण कार्यपालिका तथा नौकरशाही को इस ओर तत्परता से कदम उठाने पड़े।
जनहित याचिकाओं की शुरुआत 1980 के दशक में बिहार की जेलों में विचाराधीन कैदियों की अमानवीय स्थिति और भागलपुर जेल में कैदियों की आंख फोड़ने की घटना शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाए जाने के साथ हुई थी। इनके अलावा पूर्व नौकरशाह और सैन्य अधिकारी, जनप्रतिनिधि, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और आम जनता भी जनहित याचिका दायर करती रहती है। इनमें से अनेक मामलों में उन्हें सफलता मिली है। लोकपाल की नियुक्ति, देश में पुलिस सुधार से लेकर लोकपाल कानून का सृजन और लोकपाल, सीवीसी तथा सीबीआई प्रमुख के पदों पर नियुक्ति जैसे अनेक मुद्दों पर इस प्रक्रिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जनहित याचिकाओं के माध्यम से बोफोर्स तोप सौदे, राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद, 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कोयला खदान आवंटन, बंधुआ मजदूर, जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों का होना, मानसिक रोगी अस्पतालों में रोगियों की दुर्दशा, कोरोना महामारी में अस्पतालों में जान गंवाने वाले व्यक्तियों के शवों के प्रति अनादर मुद्दे शामिल हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाहुबल, धनबल से मुक्त कराने, अदालत से दोषी ठहराये जाने की तारीख से सांसदों-विधायकों की सदस्यता खत्म होने और सांसदों-विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मुकदमों की तेजी से सुनवाई जैसी व्यवस्था भी जनहित याचिकाओं की देन हैं।
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