इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का नाम भी भारतीय डाक टिकटों से मिटाने का प्रयास किया जा रहा है। शिक्षा क्षेत्र में जिस तरह के निर्णय लिए गए हैं, वह भी विध्वंसकारी स्थिति है। इतिहास की किताबों को नए सिरे से लिखा जा रहा है। इन नई पुस्तकों में उन लोगों को मिटाया जा रहा है, जिनका हमें आजादी दिलाने में अहम योगदान रहा था। इस बात में कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सीमांत गांधी के नाम से जाने जाने वाले अब्दुल गफ्फार खान और मौलाना अबुल कलाम आजाद, जो बहादुरी के साथ मुस्लिम लीग के विरुद्ध खड़े रहे, का इनमें शायद ही कहीं कोई जिक्र मिलेज् भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रिश्तों को लेकर अगर किसी को रत्ती भी संदेह था, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब उसे भी दूर कर दिया है। उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के कई अहम मंत्रियों को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के समक्ष प्रस्तुत करके अपने-अपने मंत्रालय की गतिविधियों का ब्यौरा उनके समक्ष रखने की इजाजत दी। हालांकि मोदी स्वयं भी इस बात को अच्छे से जानते थे कि इस खबर का प्रसारण न्यूज चैनलों पर धुआंधार ढंग से होगा। इसके बावजूद वह संघ की समन्वय बैठक में जाने से जरा भी न हिचके। आरएसएस के अनुषांगिक राजनीतिक दल भाजपा में राजनीतिक करियर की शुरुआत करने से पहले वह उत्कट प्रचारक रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने अब तक आरएसएस से अपने रिश्तों को कभी खुले तौर पर जाहिर नहीं होने दिया है, क्योंकि आज भी औसत भारतीय ने आरएसएस को स्वीकार नहीं किया है। यह वही सवाल है जो कभी जनता पार्टी से जन संघ का नाता टूटने का कारण बना था। भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ ने जनता पार्टी के साथ जुडऩे के लिए आरएसएस से खुद को दूर रखने का वादा किया था। गांधीवादी विचारधारा के वाहक जयप्रकाश नारायण को इसने भरोसा दिलाया था कि पार्टी आरएसएस से अपना नाता तोड़ लेगी। हालांकि इन दोनों के संबंध नहीं टूटे और इस तरह से जयप्रकाश नारायण के साथ विश्वासघात हुआ। मुझे याद है कि एक बार मैंने जेपी से पूछा था कि उन्होंने जन संघ और जनता पार्टी के विलय की इजाजत क्यों दी, जबकि बीते समय में जन संघ आरएसएस से अपने संबंधों को तोड़ नहीं पाया है। जवाब में उन्होंने मुझे बताया कि इस मामले में मैं गच्चा खा गया था। इससे पहले जन संघ के नेताओं ने मुझे विश्वास में लिया था कि सरकार गठित हो जाने के पश्चात जब संगठनात्मक कार्य शुरू हो जाएगा, उसके पश्चात जन संघ का आरएसएस के साथ कोई वास्ता नहीं रह जाएगा। जेपी ने बताया कि इस विश्वासघात के लिए मैं व्यक्तिगत तौर पर निराश महसूस कर रहा हूं। यह वास्तविकता हो सकती है, लेकिन इस प्रक्रिया में जन संघ पंथनिरपेक्ष के तौर पर विश्वास हासिल करने में सफल हो गया। जेपी की इस गलती की एक बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ी और जन संघ का भारतीय जनता पार्टी के रूप में उदय हुआ। यह भाजपा आज देश में पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल हो पाई है। कांग्रेस को इस स्थिति का लाभ उठाना चाहिए था। लेकिन वंश के मोह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया की अपने पुत्र राहुल गांधी को इस वंश का उत्तराधिकारी बनाने की लालसा ने पूरी संभावनाओं पर ही पानी फेर दिया। यही कारण है कि इन चुनावों में कांग्रेस ने अपने विश्वसनीय मुस्लिम वोट बैंक को भी खो दिया। यह पूरा समुदाय या तो क्षेत्रीय पार्टियों के पक्ष में सरक गया है या फिर खुद को मुस्लिमों का एकमात्र प्रतिनिधि घोषित करने ओवैसी को समर्थन देने को दिखावा कर रहा है। मुस्लिम समुदाय अब दोबारा संकीर्ण राजनीति को नहीं अपनाना चाहता। फिर भी इस विचार को अपनाने के अलावा इसके पास कोई और चारा रहा भी तो नहीं है, क्योंकि सांस्कृतिक संगठन का चोला उतारकर संघ अब खुलकर भाजपा का मार्गदर्शन कर रहा है। हालांकि संघ स्वयं चुनाव नहीं लड़ सकता, फिर भी इसके लिए यह कोई चिंता का विषय नहीं हैं, क्योंकि वह भलीभांति जानता है कि भाजपा भी चुनावों में जीत के लिए आरएसएस के काडर पर ही निर्भर है। फिर भी मुझे टेलीविजन चैनलों पर यह देखकर काफी कष्ट हुआ कि किस कद्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संघ के सर्वेसर्वा मोहन भागवत से मिले और अपने कुछ मंत्रियों को भी यहां पेश किया। माना कि देश की जनता ने मोदी सरकार को बहुमत दिया है, लेकिन उन्होंने कभी अपने प्रचार अभियान में इस बात का जिक्र नहीं किया कि जब उनकी पार्टी सत्ता में आएगी, तो संघ का इस हद तक दखल रहेगा। वास्तव में मोदी ने अपने चुनावी अभियान में अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिमों को इस बात के लिए आश्वस्त करने का प्रयास किया था कि पार्टी का अतीत चाहे जो भी रहा हो, लेकिन भविष्य में पार्टी एक ही एजेंडे पर काम करेगी और वह है ‘सबका साथ, सबका विकास’। कई जन सभाओं में तो मोदी ने यहां तक कहा था कि उनकी सरकार मुस्लिमों की संरक्षक सरकार होगी। सच कहा जाए तो जिस प्रकार की उनकी अब तक की कार्यशैली रही है, उसमें किसी तरह का भेदभाव नहीं हुआ है। इसके बावजूद संघ ने शैक्षणिक संस्थानों के भगवाकरण की कवायद शुरू की है और इनमें अहम पदों पर अपने कार्यकर्ताओं को नियुक्त किया है, वह साफतौर पर दिखाई दे रहा है। इससे यही प्रतीत होता है कि किस तरह से मोदी संघ का एजेंडा, भले ही धीमी गति से, लेकिन नियमित रूप से लागू करने में लगे हुए हैं। इसका एक उदाहरण यह देखने को मिलता है कि किस तरह से गिने-चुने मुस्लिमों को ही मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी सिर्फ एक ही मुस्लिम चेहरे को जगह दी गई है और वह भी कोई महत्त्वपूर्ण मंत्रालय नहीं है। कहीं न कहीं यह महसूस होता है कि सरकार के भीतर और बाहर मृदु रूप में हिंदुत्व को ही शामिल किया गया है। आरएसएस के हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य फिलहाल कुछ दूर दिखाई दे रहा है, फिर भी मोदी सरकार का साढ़े तीन साल का कार्यकाल अभी शेष है। मोदी और सरसंघचालक मोहन भागवत, जो कि अब सार्वजनिक तौर पर भी मिलने लगे हैं, संघ मुख्यालय द्वारा तैयार की गई योजना के अनुसार काम कर रहे हैं।भाजपा और इसकी ही विचारधारा के जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की अपनी कोई स्वतंत्र विचारधारा नहीं है। ये केवल उसी सक्रिप्ट का पालन करते हैं, जो नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय द्वारा तैयार की जाती है। इसके विभिन्न रूप-रंग हैं। कभी यह मांस पर प्रतिबंध के रूप में दिखाई देता है, कभी ड्रेस कोड के निर्धारण से, कभी पाठशालाओं में संस्कृत भाषा को अनिवार्य रूप में पढ़ाए जाने और कभी विद्यालयों की सुबह के एकत्रीकरण में किसी विशेष प्रार्थना को गाए जाने के रूप में यह दर्शन देता रहा है। दिल्ली स्थित नेहरू स्मारक में कुछ बुनियादी बदलाव करना भी इसी सोच की उपज है। दुखद यह कि अब स्वतंत्रता संग्राम की मूल भावना और बहुलवादिता के दर्शन के साथ छेड़छाड़ की जा रही है।
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