मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे, मेसेडोनिया[i] में हुआ था और बारह वर्ष की आयु में उन्हें अहसास हुआ कि “उन्हें ईश्वर बुला रहा है”। 24 मई 1931 को वे कलकत्ता आई और यही की होकर रह गई। कोलकाता आने पर धन की उगाही करने के लिए मदर टेरेसा ने अपनी मार्केटिंग आरम्भ करी। उन्होंने कोलकाता को गरीबों का शहर के रूप में चर्चित कर और खुद को उनकी सेवा करने वाली के रूप में चर्चित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करी। वे कुछ ही वर्षों में “दया की मूर्ति”, “मानवता की सेविका”, “बेसहारा और गरीबों की मसीहा”, “लार्जर दैन लाईफ़” वाली छवि से प्रसिद्द हो गई। हालाँकि उन पर हमेशा वेटिकन की मदद और मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की मदद से “धर्म परिवर्तन” का आरोप तो लगता रहा । गौरतलब तथ्य यह है कि इनमें से अधिकतर आरोप पश्चिम की प्रेस[ii] या ईसाई पत्रकारों आदि ने ही किये थे[iii][iv]। ना कि किसी हिन्दू संगठन ने, जिससे संदेह और भी गहरा हो जाता है[v]। अपने देश के गरीब ईसाईयों की सेवा करने के स्थान पर मदर टेरेसा को भारत के गरीब गैर ईसाईयों के उत्थान में अधिक रूचि होना क्या ईशारा करता है? पाठक स्वयं निर्णय कर सकते है।

मदर टेरेसा को समूचे विश्व से, कई ज्ञात और अज्ञात स्रोतों से बड़ी-बड़ी धनराशियाँ दान के तौर पर मिलती थी। सबसे बड़ी बात यह थी की मदर ने कभी इस विषय में सोचने का कष्ट नहीं किया की उनके धनदाता की आय का स्रोत्र एवं प्रतिष्ठा कैसी थी। उदहारण के लिए अमेरिका के एक बड़े प्रकाशक रॉबर्ट मैक्सवैल, जिन्होंने कर्मचारियों की भविष्यनिधि फ़ण्ड्स में 450 मिलियन पाउंड का घोटाला किया[vi]। उसने मदर टेरेसा को 1.25 मिलियन डालर का चन्दा दिया। मदर टेरेसा मैक्सवैल की पृष्ठभूमि को जानती थी। हैती के तानाशाह जीन क्लाऊड डुवालिये ने मदर टेरेसा को सम्मानित करने बुलाया। मदर टेरेसा कोलकाता से हैती सम्मान लेने गई। जिस व्यक्ति ने हैती का भविष्य बिगाड़ कर रख दिया। गरीबों पर जमकर अत्याचार किये और देश को लूटा। टेरेसा ने उसकी “गरीबों को प्यार करने वाला” कहकर तारीफ़ों के पुल बांधे थे। मदर टेरेसा को चार्ल्स कीटिंग से 1.25 मिलियन डालर का चन्दा मिला था। ये कीटिंग महाशय वही हैं जिन्होंने “कीटिंग सेविंग्स एन्ड लोन्स” नामक कम्पनी 1980 में बनाई थी और आम जनता और मध्यमवर्ग को लाखों डालर का चूना लगाने के बाद उसे जेल हुई थी[vii]। अदालत में सुनवाई के दौरान मदर टेरेसा ने जज से कीटिंग को माफ़ करने की अपील की थी। उस वक्त जज ने उनसे कहा कि जो पैसा कीटिंग ने गबन किया है क्या वे उसे जनता को लौटा सकती हैं? ताकि निम्न-मध्यमवर्ग के हजारों लोगों को कुछ राहत मिल सके, लेकिन तब वे चुप्पी साध गई।

यह दान किस स्तर तक था इसे जानने के लिए यह पढ़िए। मदर टेरेसा की मृत्यु के समय सुसान शील्ड्स को न्यूयॉर्क बैंक में पचास मिलियन डालर की रकम जमा मिली। सुसान शील्ड्स वही हैं जिन्होंने मदर टेरेसा के साथ सहायक के रूप में नौ साल तक काम किया। सुसान ही चैरिटी में आये हुए दान और चेकों का हिसाब-किताब रखती थी। जो लाखों रुपया गरीबों और दीन-हीनों की सेवा में लगाया जाना था। वह न्यूयॉर्क के बैंक में यूँ ही फ़ालतू पड़ा था[viii]?

दान से मिलने वाले पैसे का प्रयोग सेवा कार्य में शायद ही होता होगा इसे कोलकाता में रहने वाले अरूप चटर्जी ने अपनी पुस्तक “द फाइनल वर्डिक्ट” पढ़िए[ix]। लेखक लिखते हैं ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका Lancet के सम्पादक डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण “अनल्जेसिक दवाईयाँ” तक वहाँ उपलब्ध नहीं थी और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे”। मिशनरी में भर्ती हुए आश्रितों की हालत भी इतने धन मिलने के उपरांत भी उनकी स्थिति कोई बेहतर नहीं थी। मिशनरी की नन दूसरो के लिए दवा से अधिक प्रार्थना में विश्वास रखती थी। जबकि खुद कोलकाता के महंगे से महंगे अस्पताल में कराती थी। मिशनरी की एम्बुलेंस मरीजों से अधिक नन आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य करती थी। यही कारण था की मदर टेरेसा की मृत्यु के समय कोलकाता निवासी उनकी शवयात्रा में न के बराबर शामिल हुए थे।

मदर टेरेसा अपने रूढ़िवादी विचारों के लिए सदा चर्चित रही। बांग्लादेश युद्ध के दौरान लगभग साढ़े चार लाख महिलायें बेघर हुई और भागकर कोलकाता आईं। उनमें से अधिकतर के साथ बलात्कार हुआ था जिसके कारण वह गर्भवती थी। मदर टेरेसा ने उन महिलाओं के गर्भपात का विरोध किया और कहा था कि “गर्भपात कैथोलिक परम्पराओं के विरुद्ध है और इन औरतों की प्रेग्नेन्सी एक “पवित्र आशीर्वाद” है। मदर टेरेसा की इस कारण जमकर आलोचना हुई थी[x]।

मदर टेरेसा ने इन्दिरा गाँधी की आपातकाल लगाने के लिये तारीफ़ की थी और कहा कि “आपातकाल लगाने से लोग खुश हो गये हैं और बेरोजगारी की समस्या हल हो गई है”[xi]। गाँधी परिवार ने उन्हें इस बड़ाई के लिए “भारत रत्न” का सम्मान देकर उनका “ऋण” उतारा। भोपाल गैस त्रासदी भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, जिसमें सरकारी तौर पर 4000 से अधिक लोग मारे गये और लाखों लोग अन्य बीमारियों से प्रभावित हुए। उस वक्त मदर टेरेसा ताबड़तोड़ कलकत्ता से भोपाल आईं, किसलिये? क्या प्रभावितों की मदद करने? जी नहीं, बल्कि यह अनुरोध करने कि यूनियन कार्बाईड के मैनेजमेंट को माफ़ कर दिया जाना चाहिये[xii]। और अन्ततः वही हुआ भी, वारेन एंडरसन ने अपनी बाकी की जिन्दगी अमेरिका में आराम से बिताई। भारत सरकार हमेशा की तरह किसी को सजा दिलवा पाना तो दूर, ठीक से मुकदमा तक नहीं कायम कर पाई।

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी। बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की परी)। इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है। जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम है। जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान इसी कारण से मिले[xiii]।

ईसाईयों के लिए यही मदर टेरेसा दिल्ली में 1994 में दलित ईसाईयों के आरक्षण की हिमायत करने के लिए धरने पर बैठी थी। तब तत्कालीन मंत्री सुषमा स्वराज ने उनसें पूछा था की क्या मदर दलित ईसाई जैसे उद्बोधनों के रूप में चर्च में जातिवाद का प्रवेश करवाना चाहती है[xiv]। महाराष्ट्र में 1947 में देश आज़ाद होते समय अनेक मिशन के चर्चों को आर्यसमाज ने खरीद लिया क्यूंकि उनका सञ्चालन करने वाले ईसाई इंग्लैंड लौट गए थे। कुछ दशकों के पश्चात ईसाईयों ने उस संपत्ति को दोबारा से आर्यसमाज से ख़रीदने का दबाव बनाया। आर्यसमाज के अधिकारीयों द्वारा मना करने पर मदर टेरेसा द्वारा आर्यसमाज के पदाधिकारियों को देख लेने की धमकी दी गई थी। कमाल की संत? थी[xv]।

मदर टेरेसा जब कभी बीमार हुईं तो उन्हें बेहतरीन से बेहतरीन कार्पोरेट अस्पताल में भर्ती किया गया। उन्हें हमेशा महंगा से महंगा इलाज उपलब्ध करवाया गया। यही उपचार यदि वे अनाथ और गरीब बच्चों (जिनके नाम पर उन्हें लाखों डालर का चन्दा मिलता रहा) को भी दिलवाती तो कोई बात होती, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। एक बार कैंसर से कराहते एक मरीज से उन्होंने कहा कि “तुम्हारा दर्द ठीक वैसा ही है जैसा ईसा मसीह को सूली पर हुआ था, शायद महान मसीह तुम्हें चूम रहे हैं। तब मरीज ने कहा कि “प्रार्थना कीजिये कि जल्दी से ईसा मुझे चूमना बन्द करे”।

मदर टेरेसा की मृत्यु के पश्चात भी चंदा उगाही का कार्य चलता रहे और धर्मान्तरण करने में सहायता मिले इसके लिए एक नया ड्रामा रचा गया। पोप जॉन पॉल को मदर को “सन्त” घोषित करने में जल्दबाजी की गई। सामान्य रूप से संत घोषित करने के लिये जो पाँच वर्ष का समय (चमत्कार और पवित्र असर के लिये) दरकार होता है, पोप ने उसमें भी ढील दे दी। पश्चिम बंगाल की एक क्रिश्चियन आदिवासी महिला जिसका नाम मोनिका बेसरा था।उसे टीबी और पेट में ट्यूमर हो गया था। बेलूरघाट के सरकारी अस्पताल के डॉ. रंजन मुस्ताफ़ उसका इलाज कर रहे थे। उनके इलाज से मोनिका को काफ़ी फ़ायदा हो रहा था और एक बीमारी लगभग ठीक हो गई थी। अचानक एक दिन मोनिका बेसरा ने अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उसका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया। मिशनरी द्वारा मोनिका बेसरा के ठीक होने को चमत्कार एवं मदर टेरेसा को संत के रूप में प्रचारित करने का बहाना मिल गया। यह चमत्कार का दावा हमारी समझ से परे है। जिन मदर टेरेसा को जीवन में अनेक बार चिकित्सकों की आवश्यकता पड़ी थी। उन्हीं मदर टेरेसा की कृपा से ईसाई समाज उनके नाम से प्रार्थना करने वालो को बिना दवा केवल दुआ से, चमत्कार से ठीक होने का दावा करता होना मानता है। अगर कोई हिन्दू बाबा चमत्कार द्वारा किसी रोगी के ठीक होने का दावा करता है तो सेक्युलर लेखक उस पर खूब चुस्कियां लेते है। मगर जब पढ़ा लिखा ईसाई समाज ईसा मसीह से लेकर अन्य ईसाई मिशनरियों द्वारा चमत्कार होने एवं उससे सम्बंधित मिशनरी को संत घोषित करने का महिमा मंडन करता है तो उसे कोई भी सेक्युलर लेखक दबी जुबान में भी इस तमाशे को अन्धविश्वास नहीं कहता[xvi]।

जब मोरारजी देसाई की सरकार में सांसद ओमप्रकाश त्यागी द्वारा धर्म स्वातंत्रय विधेयक के रूप में धर्मान्तरण के विरुद्ध बिल पेश हुआ[xvii]। तो इन्ही मदर टेरेसा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इस विधेयक का विरोध किया और कहाँ था की ईसाई समाज सभी समाज सेवा की गतिविधिया जैसे की शिक्षा, रोजगार, अनाथालय आदि को बंद कर देगा। अगर उन्हें अपने ईसाई मत का प्रचार करने से रोका जायेगा। तब प्रधान मंत्री देसाई ने कहाँ था इसका अर्थ क्या यह समझा जाये की ईसाईयों द्वारा की जा रही समाज सेवा एक दिखावा मात्र है। उनका असली प्रयोजन तो धर्मान्तरण हैं। देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री का उत्तर ईसाई समाज की सेवा के आड़ में किये जा रहे धर्मान्तरण को उजागर करता है[xviii]।

इस लेख को पढ़कर हिन्दुओं का धर्मान्तरण करने वाली मदर टेरेसा को कितने लोग संत मानना चाहेंगे?

डॉ विवेक आर्य

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