हरीश रावत
हेमवती नंदन बहुगुणा और पर्यावरणविद सुंदर लाल बहुगुणा अक्सर कहते थे, ‘पेड़ों के कटने से पहाड़ों की चट्टानें खिसक जाती हैं, मिट्टी बहकर नीचे चली जाती है, जल स्रोत्र सूख जाते हैं और जड़ी-बूटियां नष्ट हो जाती हैं। पेड़ों के कटने से ही बारिश में कमी आ रही है, जिसका खेती पर बुरा असर हो रहा है। पहाड़ को खुशहाल बनाना है तो जल और जंगल को खुशहाल करना होगा।’
इस सिलसिले में ‘राष्ट्रीय जल नीति 2012’ की याद आती है, जो आज भी प्रभावी है। इसके तहत जल संसाधनों की सुरक्षा, संरक्षण, वृद्धि, प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता और अंतर-राज्य, अंतर-क्षेत्रीय जल बंटवारे और क्लाइमेट चेंज जैसे सवाल आते हैं। पानी पर राज्यों के तनाव को देखते हुए जल नीति पर सहमति बनाना एवरेस्ट चढ़ने के समान दुरूह कार्य था। कावेरी जल विवाद, पंजाब-हरियाणा-दिल्ली, राजस्थान के बीच जल विवाद, इंद्रा सागर डैम को लेकर आंध्र प्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के बीच विवाद, केन-बेतवा को लेकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में विवाद इसके उदाहरण हैं। प्रत्येक राज्य अपने जल अधिकारों को लेकर चौकन्ना रहता है। वहीं पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान की दिलचस्पी भी हमारी जल नीति में है। इन देशों के साथ भी हमारे पानी के सवाल उलझे हुए हैं।
भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है। हमारे पास दुनिया के उपयोग योग्य जल का केवल 4 प्रतिशत हिस्सा है। हमारे पास दुनिया का केवल 2.4 प्रतिशत भू-भाग है, जहां जंगल, पहाड़ से लेकर सभी मानवीय क्रियाएं होती हैं। चुनौती बहुत बड़ी है। 4 प्रतिशत जल और 2.4 प्रतिशत भूमि के बल पर हमें 18 प्रतिशत आबादी की भोजन, आवास, विकास कार्य, वस्त्र, पेयजल, खेती, मल सफाई और पर्यावरणीय जरूरतों को पूरा करना है। इस दिशा में राज्यों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
भारत में कुल बारिश का 80 प्रतिशत हिस्सा मॉनसून के 4 महीनों में बरसता है। दुनिया में भारत ही एकमात्र देश है, जहां बरसाती पानी का 90 प्रतिशत हिस्सा हर जगह से निकलकर नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है। ऐसे में यह जरूरी है कि भारत मॉनसूनी बारिश का 50 प्रतिशत हिस्सा भूगर्भीय जलाशयों, जल समेटों और तालाबों में इकट्ठा करे, साथ ही बरसाती नदियों के जल को गैर-बरसाती नदियों में डाले।
देश के कुछ भाग अत्यधिक मॉनसून वर्षा वाले हैं, जैसे नॉर्थ-ईस्ट और बीच हिमालय का क्षेत्र। यहां के मॉनसूनी जल को गैर-मॉनसूनी क्षेत्रों में पहुंचाना एक बड़ा राष्ट्रीय कार्य है। बाढ़ और सूखा, दोनों के यही जवाब हैं। देश के लिए जरूरी है कि हम वर्षा जल संचय का एक व्यापक राष्ट्रीय कार्यक्रम तैयार करें। देश के प्रख्यात वैज्ञानिक कस्तूरीरंगन ने हाल ही में जल उपलब्धता और वितरण पर चिंताजनक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के 60 प्रतिशत लोग जल की कमी से जूझ रहे हैं। हर साल लगभग 2 लाख लोग जल के अभाव में मर जाते हैं। जल की गुणवत्ता के क्षेत्र में दुनिया के 122 देशों के सर्वेक्षण में हम 120वें स्थान पर हैं। देश में उपलब्ध 70 प्रतिशत जल दूषित हो चुका है और यह लगातार बढ़ ही रहा है। निरंतर घटता भूजल स्तर कई राज्यों की खेती आधारित व्यवस्था को ध्वस्त कर देगा। पंजाब के कई क्षेत्रों में यह संकट दिखने लगा है। वर्ष 2030 तक जल की मांग दो गुना हो जाएगी, उस स्थिति के मुकाबले की रणनीति तो बन रही है, मगर जमीन पर ऐसा कुछ होते हुए दिखाई नहीं दे रहा है। एक सन्नाटा पसरा हुआ है। कभी-कभार कुछ इलाकों से आने वाले पेयजल संकट के समाचार इस सन्नाटे को तोड़ते हैं।
अच्छी बात है कि जंगलों में चाल-खाल बनाने का 2015 में शुरू हुआ अभियान अभी भी चल रहा है। मगर उत्तराखंड का कल्याण खुशहाली की प्रतीक जल बूंदों के संग्रहण में है। वॉटर हार्वेस्टिंग के नारे को जन अभियान में बदलने में जल बोनस आकर्षक और महत्वपूर्ण कारक बन सकता है। हर गांव, हर घर खुद इस अभियान का हिस्सा बन सकते हैं। पेयजल संकट का भी समाधान इस तरह से संभव है।