लगता है प्रधानमंत्री मोदी कुछ करना चाहते हैं पर बिना विरोध के सब कुछ करना चाहते हैं, जो किलोकतंत्र में सर्वथा असंभव है। अपनी कार्ययोजना को सही ढंग से सिरे चढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह भाजपा को एक मुस्कराता हुआ जनप्रिय अहंकार शून्य अध्यक्ष दें, जो पार्टी कार्यकर्ताओं, को ऊर्जान्वित कर सके। अमितशाह भाजपा की पसंद नही हैं वह मोदी की पसंद हैं। इसलिए पार्टी स्तर पर कोई भी कार्यकर्ता अपने अध्यक्ष के साथ सहयोग नही कर रहा है। यदि चाटुकारिता को और जय जयकार को सहयोग माना जा रहा हो, तो यह भाजपा की ‘फीलगुड’ तो हो सकती है पर वास्तविकता नही हो सकती। रोपे हुए पौधे विकास करते हैं और थोपे हुए नेता विनाश करते हैं। यह एक ऐसा सच है जिसे भाजपा को समझना चाहिए। अमितशाह अपने रौब से भाजपा की अध्यक्षता कर सकते हैं, परंतु वह आम भाजपायी कार्यकर्ता के प्रिय अध्यक्ष नही हैं। भूिम विधेयक पर वह देश के किसानों को अपने साथ नही ला पाये। क्योंकि उनका प्रचारतंत्र ढीला था। या यह कहिये कि पार्टी को वह किसानों के साथ जोडऩे में असफल रहे। सत्ता रूढ़ पार्टी के अध्यक्ष का दोहरा दायित्व होता है-एक तो वह पार्टी की नीतियों को सरकार से लागू कराता है, दूसरे वह सरकार के कार्यों को जनता की संसद के पटल पर ले जा ले जाकर पटकता है और उस पर जनता का आशीर्वाद प्राप्त करता है। अमितशाह इन दोनों बिंदुओं पर असफल रहे हैं।
व्हाटसएप और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध निश्चय ही अलोकतांत्रिक होगा, पर उसको राष्ट्रहित और जनहित में नियंत्रित किया जाना भी आवश्यक है। नैतिकता भी अपने आप में एक कानून है जो हमारे असीमित अधिकारों को मर्यादित कर हमें कत्र्तव्यपरायण बनाती है और समाज व राष्ट्र की मुख्य धारा के अनुकूल जीने के लिए प्रेरित करती है। इसीलिए यह कहा जाता है कि सडक़ पर अपने सर के ऊपर गोलाई में लाठी घुमाते हुए चलना आप का अधिकार है लेकिन आपकी लाठी की नोक किसी अन्य पथिक की नाक कोक्षतिग्रस्त न करे यह ध्यान रखना भी आपका कत्र्तव्य है। इसलिए सोशल मीडिया को अमर्यादित आचरण करने से रोकने के लिए कुछ सीमा तक मर्यादित करना आवश्यक है। सोशल मीडिया साम्प्रदायिकता को उग्र कर रहा है, नग्नता और अश्लीलता को बढ़ावा दे रहा है, इस पर उचित निगरानी आवश्यक है। पर इस निगरानी से पूर्व सोशल मीडिया को मानसिक रूप से तैयार करने के लिए सर्वप्रथम उसे नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाना आवश्यक है। उसे मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करके सरकार अपने साथ लाना चाहिए। इसके लिए भारतीय जनता पार्टी को अपने भीतर एक प्रकोष्ठ स्थापित कर उसे आंदोलनात्मक स्वरूप देना चाहिए। सुधार के लिए कानून तो बाद में आता है, पहले समझाना और सही रास्ते पर लाने के लिए नैतिक उपायों को भी अपनाना अपेक्षित होता है।
अब आते हैं आरक्षण पर। आरक्षण सचमुच एक बीमारी है। पर इस बीमारी का उपचार इसे समाप्त करना भी नही है और इसे विस्तार देना भी नही है। आरक्षण के नाम पर जिन लोगों ने आज तक लड़ाईयां लड़ लडक़र अपनी राजनीति जमाई है उनकी दुकानदारी अचानक बंद नही हो सकती और ना वह होने देंगे। इसके लिए आवश्यक है जनता को गरीबी के नाम पर संरक्षण दिया जाए। यह लंबी लड़ाई है जिसमें धीरे-धीरे जनता को अपने साथ लाया जाए। मोहन भागवत ने जो कुछ कहा है वह सही कहा है, पर सही समय नही देखा और बिहार में आग उगलने के लिए लालू को आनावश्यक ही एक हथियार दे दिया, दूसरे मोहन भागवत जैसे प्रमुख व्यक्ति से इस संवेदनशील मुद्दे पर बहस की शुरूआत नही होनी चाहिए थी। इसके लिए किसी चौथी पांचवीं पंक्ति के व्यक्ति से शुरूआत करानी चाहिए थी। उस पर लोगों की और विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रिया देखी जाती। तब आगे बढ़ा जाता, तो ठीक था। वर्तमान आरक्षण बाबा साहेब के सपनों के अनुकूल नही है और ना ही वह लोगों का भला कर पाया है-पर कैसे? पहले यह तो बताना और बताकर जनता का विश्वास जीतकर निर्धन दलित, शोषित को बिना जाति भेद के अपने साथ लगाया जाता, यह सफल राजनीतिज्ञ की पहचान है। मोदी ठीक हो सकते हैं-पर अमितशाह पर तो प्रश्न चिह्न बढ़ता ही जा रहा है?
मुख्य संपादक, उगता भारत