व्योमेश चन्द्र जुगरान
उत्तराखंड में बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री समेत 51 संबंधित मंदिरों के मैनेजमेंट के निमित्त बना चारधाम देवस्थानम बोर्ड राज्य सरकार के गले की फांस बनता जा रहा है। इन मंदिरों से जुड़े पुजारियों, तीर्थपुरोहितों का गुस्सा सातवें आसमान पर है। मंत्र पढ़ने वाले उनके शालीन मुखों से आमरण अनशन और आत्मघात जैसी उग्रता सुनाई दे रही है। पूजा कर्म कराने वाली बाहों पर महीनों से काली पट्टी चढ़ी है। गंगोत्री और यमुनोत्री धाम में उनका बेमियादी धरना दो माह पार कर चुका है। चुनावी साल में प्रतिपक्ष भी आग में घी डालने में पीछे नहीं है। हालात को भांपते हुए नए सीएम पुष्कर सिंह धामी ने इस सारे मसले पर एक उच्चस्तरीय समिति बनाने का निर्णय लिया है और इसकी सिफारिशें आने तक नई व्यवस्था को स्थगित रखने का भरोसा दिलाया है। लेकिन इस विवाद को सुलझाना आसान नहीं होगा।
नए कानून के तहत देवस्थानम बोर्ड को बहुत शक्तिशाली संस्था के रूप में स्थापित किया जा चुका है। गढ़वाल मंडल के कमिश्नर इसके सीईओ होंगे। मुख्यमंत्री बोर्ड के अध्यक्ष और धर्मस्व मंत्री उपाध्यक्ष रहेंगे। पदेन सदस्यों के तौर पर राज्य और केंद्र सरकार के सचिव-स्तरीय अधिकारियों के अलावा सनातन मतावलंबी तीन सांसद और छह विधायक, दानदाताओं के रूप में उद्योग जगत से जुड़ी तीन हस्तियां, टिहरी राजपरिवार का एक सदस्य और वंशानुगत पुजारियों के तीन प्रतिनिधि बोर्ड में शामिल किए गए हैं।
सरकार इस फैसले को मंदिरों की व्यवस्था में सुधार और तीर्थयात्रियों के लिए बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता से जोड़कर पेश कर रही है। उसकी दलील है कि उत्तराखंड जैसे विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले राज्य में सुगम तीर्थयात्रा सरकार की अहम जिम्मेदारी है। लेकिन सरकार की बातें पुजारी समुदाय के गले नहीं उतर रहीं। उसका आरोप है कि बोर्ड बनाकर सरकार ने उसके पुश्तैनी तीर्थाधिकारों और चारधाम यात्रा से जुड़ी प्राचीन परंपराओं पर प्रत्यक्ष हमला बोला है। पुजारियों का कहना है कि 2018 में लिए गए इतने अहम निर्णय से पहले सरकार ने उन्हें पूछा तक नहीं!
देवस्थानम बोर्ड के खिलाफ प्रदर्शन हुआ तेज, केदारनाथ के तीर्थपुरोहित ने पीएम मोदी को खून से लिखा खत
निस्संदेह आपदा प्रभावित और विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले उत्तराखंड में तीर्थस्थलों का प्रबंधन और श्रद्धालुओं की सुरक्षा गंभीर विषय है, मगर क्या इसके लिए मंदिरों पर सरकारी वर्चस्व का ऐसा शिकंजा जरूरी है? हालांकि शासकीय वर्चस्व तो ‘श्री बदरीनाथ मंदिर अधिनियम-1939’ के रूप में पिछले 80 बरसों से चला आ रहा है। इस अधिनियम के तहत तत्कालीन यूपी शासन ने मंदिर के प्रबंधन हेतु एक समिति बनाने का प्रावधान किया था। ऐसी समिति यानी ‘बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति’ का अध्यक्ष बरसों से सत्तारूढ़ दल का कोई नुमाइंदा और कार्यकारी अधिकारी एसडीएम स्तर का अफसर ही होता आया है। यह जरूर है कि पुराने अधिनियम के अनुपालन में सरकारों ने बदरीनाथ के रावल यानी मुख्य पुजारी के पूजाधिकार और स्थानीय समुदायों के पारंपरिक तीर्थाधिकारों से कभी छेड़छाड़ नहीं की। मगर यह पुरानी प्रणाली अनेक अवगुणों और विवादों के कारण अधोगति का शिकार होती चली गई और इसमें सुधार के लिए ठोस कदम कभी नहीं उठाए जा सके। इस नाते पहली नजर में देवस्थानम बोर्ड का गठन समयानुकूल और सही फैसला लगता है।
चूक यह हुई कि सरकार ने सदियों से इन मंदिरों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक वारिसों यानी तीर्थपुरोहितों एवं पुजारियों को विश्वास में लिए बिना इकतरफा निर्णय ले लिया। साथ ही, इन तीर्थस्थलों से जुड़े लगभग तीन दर्जन अन्य मंदिरों पर भी हकदारी जता दी। ऐसे में पुजारियों समेत एक बड़े वर्ग का कुपित होना स्वाभाविक है। अब सरकार की ‘श्रापमुक्ति’ भी आसान नहीं लगती। राज्य में बहुत कम अंतराल में तीन-तीन मुख्यमंत्रियों के बदले जाने के घटनाक्रम के पीछे देवस्थानम बोर्ड भी एक वजह रहा है। इसकी तस्दीक इससे भी होती है कि नवनियुक्त मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पद संभालने के फौरन बाद देवस्थानम बोर्ड की अहम बैठक ली। बैठक में कुछ निर्णय पुजारियों का आक्रोश कम करने के इरादे से भी लिए गए। मसलन, चारों धामों में गर्भगृह से पूजा का लाइव प्रसारण नहीं होगा। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के समय से यह चर्चा जोरों पर थी कि कोविड महामारी के कारण ठप पड़ी यात्रा के विकल्प में राज्य सरकार गर्भगृह में जारी नियमित पूजा का लाइव प्रसारण करेगी ताकि विश्व भर के श्रद्धालु घर बैठे ही देवदर्शन कर सकें। पुजारियों को ऐसे किसी प्रसारण पर सख्त ऐतराज था। बैठक में जोशीमठ में वेद अध्ययन केंद्र स्थापित करने और केदारनाथ धाम में पूजा व यात्रा व्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए मास्टर प्लान के मुताबिक सलाहकार नियुक्ति करने जैसे निर्णय हुए। चालू वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए देवस्थानम बोर्ड के बजट को भी मंजूरी दी गई। इन निर्णयों से साफ है कि सरकार फैसला पलटने को राजी नहीं है।
देवस्थानम बोर्ड के विरोध में तीर्थपुरोहित ने अनोखे अंदाज में जताया विरोध
पूर्व मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने जरूर हरिद्वार में साधु-संतों और तीर्थपुरोहितों को आश्वासन दे डाला था कि सरकार देवस्थानम बोर्ड के निर्णय पर पुनर्विचार करेगी। इस आश्वासन के बाद विरोध कुछ ठंडा पड़ा था मगर नेतृत्व परिवर्तन होते ही दोनों पक्ष एक बार फिर आमने-सामने डट गए।
उत्तराखंड की तीर्थयात्रा परंपरा में स्थानीयता का भारी योगदान है। लोगों के परंपरिक हक-हकूक इससे जुड़े रहे हैं। 1634 में गढ़वाल के राजा ने बदरीनाथ के मुख्य पुजारी के रूप में आद्य शंकराचार्य की जन्मस्थली केरल से नंबूदरी ब्राह्मण को नियुक्त कर रावल परंपरा की शुरुआत की थी। मूर्ति को छूने और पूजा का एकछत्र अधिकार रावल का था। कालांतर में स्थानीय लोगों, खासकर डिमरियों और नौटियालों को भी रावल के सहायक के रूप में पूजा का अधिकार दिया गया। इसके साथ ही स्थानीय समुदायों को वृत्ति ग्रहण करने के वंशानुगत अधिकार भी हासिल हुए। लेकिन नए देवस्थानम बोर्ड को लेकर पुजारी समुदाय आशंकित हैं। इन आशंकाओं का समाधान सरकार की जिम्मेदारी है। वह यदि तीर्थाटन के बदलते स्वरूप के मद्देनजर नूतन व्यवस्थाएं बनाना चाहती है तो उसे सुनिश्चित करना होगा कि ये न सिर्फ सदियों से चली आ रही सनातनी परंपराओं को परिमार्जित करने वाली हों, बल्कि कसौटियों के ‘पहाड़’ पर भी खरी उतरें।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।