नताशा लिंडस्टेड
अफगानिस्तान को लंबे समय से सोवियत संघ/रूस, ब्रिटेन, अमेरिका, ईरान, सऊदी अरब, भारत और निश्चित रूप से पाकिस्तान से लगातार हस्तक्षेप का सामना करना पड़ा है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण संबंध जगजाहिर हैं।
पिछले 20 वर्षों में तालिबान को बाहर करने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में खरबों डॉलर झौंक दिए हैं, यह एक ऐसा प्रयास था जो स्पष्ट रूप से असफल रहा। लेकिन देश की सामरिक भौगोलिक स्थिति और क्षेत्र की राजनीति (तालिबान के समर्थन सहित) पर एक नज़र हमें बताती है कि यह परिणाम होना ही था। अफगानिस्तान रणनीतिक रूप से मध्य और दक्षिण एशिया के बीच स्थित है- तेल और प्राकृतिक गैस से समृद्ध क्षेत्र। यह विभिन्न जातीय समूहों के इसे पैतृक मातृभूमि बनाने के प्रयासों से भी जूझता रहा है। पश्तून आबादी (और कुछ हद तक बलूच आबादी) इसमें विशेष रूप से शामिल हैं।
इन और अन्य कारणों से, अफगानिस्तान को लंबे समय से सोवियत संघ/रूस, ब्रिटेन, अमेरिका, ईरान, सऊदी अरब, भारत और निश्चित रूप से पाकिस्तान से लगातार हस्तक्षेप का सामना करना पड़ा है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण संबंध जगजाहिर हैं। 1947 में जब पाकिस्तान ने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की, तो संयुक्त राष्ट्र में इसके गठन के खिलाफ मतदान करने वाला अफगानिस्तान एकमात्र देश था। कुछ तनाव अफ़गानिस्तान के डूरंड रेखा को मानने से इनकार करने से उत्पन्न हुआ- 1893 में जल्दबाजी में खींची गई 1600 मील की सीमा जिसने हजारों पश्तून जनजातियों को बांट दिया।
दोनों देशों में पश्तून एक अलग राष्ट्र, जो उत्तरी पाकिस्तान से गुजरेगा, बनाने की मांग न कर बैठें इस डर से पाकिस्तान लंबे समय से अफगानिस्तान को इस्लामी देश बनाने की मांग करता रहा है। वह अफगानिस्तान के लिए पश्तून के मुकाबले एक इस्लामी पहचान का समर्थन करके भारत के खिलाफ रणनीतिक पकड़ मजबूत करना चाहता है। पाकिस्तान ने 1994 में तालिबान को सशक्त बनाने में मदद की और वह अफगानिस्तान का सबसे अधिक सक्रिय हमसाया रहा है। अपनी शीर्ष ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के माध्यम से, उसने तालिबान के संचालन को नियंत्रित किया है, तालिबान सेनाओं में सेवा करने के लिए लड़ाकों की भर्ती की है और योजना बनाने तथा आक्रमण करने में मदद की है।
यह कभी-कभी प्रत्यक्ष युद्ध सहयोग में भी शामिल रहा है। तालिबान के लिए आईएसआई का समर्थन पश्तून राष्ट्रवाद को मिटाने के अपने उद्देश्य में निहित था। लेकिन ऐसा करने से पाकिस्तान के लिए एक बड़ी समस्या पैदा हो सकती है, क्योंकि तालिबान शासन के कारण अफगान नागरिकों का पाकिस्तान में पलायन हुआ है। अफगान सरकार के अनुसार, पाकिस्तान सरकार के भीतर कुछ ऐसे तत्व हैं, अर्थात् आईएसआई, जो अभी भी तालिबान और अफगानिस्तान में चल रही अस्थिरता का समर्थन करते हैं। लेकिन उसकी एक वजह यह हो सकती है कि पाकिस्तान के अफगानिस्तान में अन्य समूहों के साथ अच्छे संबंध नहीं हैं, इसलिए उसके पास तालिबान का समर्थन करने के अलावा कोई चारा नहीं है। पाकिस्तान की सरकार के लिए, सबसे खराब स्थिति एक लंबा संघर्ष है, जिससे पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर शरणार्थियों का आगमन हो सकता है।
ईरान के साथ अफगान के संबंध
अफगानिस्तान के साथ ईरान, जो इसकी पूर्वी सीमा पर है, के संबंध क्षेत्रीय कारणों और अमेरिका के साथ इसके संबंधों के चलते जटिल हैं। एक शिया देश के रूप में, ईरान के तालिबान के साथ लंबे समय से वैचारिक मतभेद रहे हैं। 1990 के दशक में, तालिबान से खतरे का मुकाबला करने के लिए, उसने अमेरिका को भी शामिल करके गठबंधन बनाने की मांग की थी। लेकिन दो दशक बाद, ईरान के साथ अमेरिकी संबंध अब तक के सबसे निचले स्तर पर हैं, जिससे तालिबान से निपटने के तरीके पर ईरान के रुख पर असर पड़ा है। ईरान अपनी चालें सोच समझकर चल रहा है। वह अफगान सरकार और तालिबान दोनों का समर्थन कर रहा है ताकि दोनों बंटे रहें और कतर, जो तालिबान का राजनीतिक कार्यालय है, ने भी तालिबान के साथ ईरान के संबंधों में मदद की है।
रूस ज्यादातर अफगानिस्तान के साथ अपनी सीमा पर अस्थिरता को रोकने और अफगानिस्तान को अमेरिकी प्रभाव से मुक्त रखने के लिए चिंतित है। 1990 के दशक से मास्को तालिबान सहित अफगानिस्तान में विभिन्न समूहों के साथ संबंध विकसित कर रहा है, इसके बावजूद इसमें संदेह है कि वह तालिबान के आतंकवादी समूहों को समर्थन देगा। 2015 में इस्लामिक स्टेट के उदय के बाद ये संबंध और प्रगाढ़ हुए। अफगानिस्तान में आईएस को हराने की लड़ाई में रूस ने देखा कि तालिबान के हित उसके अपने हितों से मेल खाते हैं। ऐसी खबरें भी आईं कि रूस अफगान तालिबान को हथियार दे रहा था और वहां सीधे अमेरिकी प्रयासों को कमजोर कर रहा था, यहां तक कि अमेरिका और सहयोगी सैनिकों को मारने के लिए इनाम भी दे रहा था।
इस बीच, चीन ने तालिबान के साथ हमेशा सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा है। चीन की मुख्य चिंता भारत और अमेरिका के खिलाफ रणनीतिक मजबूती हासिल करने के लिए अपने प्रभाव को पश्चिम की ओर बढ़ाना है। फिलहाल, तालिबान के उदय को अफगानिस्तान के पड़ोसियों के खिलाफ अल-कायदा जैसे समूहों की आतंकवादी गतिविधियों में वृद्धि से जोड़ा नहीं गया है- इस क्षेत्र से अमेरिका के निकलने के बाद यही सबसे बड़ी चिंता थी। तालिबान के उत्थान की अनिवार्यता को भांपते हुए, तालिबान के साथ अफगानिस्तान के लगभग सभी पड़ोसियों, भारत को छोड़कर, के साथ अवसरवादी गठबंधन बन गए हैं।
भारत ज्यादातर तालिबान के साथ जुड़ने का अनिच्छुक रहा है, लेकिन हाल ही में कतर के सहयोग से संपर्क शुरू किया गया है। हालांकि, नई दिल्ली ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह काबुल के हिंसक तख्तापलट का समर्थन नहीं करेगी। अफगानिस्तान के वरिष्ठ अधिकारियों ने चेतावनी दी है कि तालिबान की जीत के परिणामस्वरूप विभिन्न आतंकवादी समूहों की ताकत बढ़ जाएगी यदि तालिबान उन्हें हमले करने के लिए एक आधार स्थापित करने की अनुमति देता है। देखना होगा अफगानिस्तान में हालात और क्या-क्या मोड़ लेते हैं। फिलहाल तो पूरी दुनिया में अफगानिस्तान के हालात को लेकर चिंता देखी जा रही है।