भारत की विदेशनीति को हमेशा सतर्क रहने की आवश्यकता
राकेश अचल
भारत के पास एक मौका था 15 अगस्त को तालिबानियों से अपने भावी रिश्तों के संकेत देने के, लेकिन इस मौके का इस्तेमाल सरकार ने जानबूझकर नहीं किया। मुमकिन है कि ऐसा किसी रणनीति के तहत किया गया हो, लेकिन विदेशनीति को लेकर हमेशा सतर्क रहने की जरूरत होती है। दुर्भाग्य से अब तक ऐसी सतर्कता कहीं नजर नहीं आ रही। यहां तक कि सरकार ने इस मसले पर अनौपचारिक विचार-विमर्श के लिए विपक्ष के साथ अब तक एक चाय मीटिंग भी नहीं रखी।
अफगानिस्तान में हो रही उठापटक अपनी जगह पर है लेकिन हमारे इस पड़ोसी मुल्क ने भारत की विदेश नीति के लिए एक अग्निपरीक्षा जरूर खड़ी कर दी है। अफगानिस्तान में खूनी सियासत करने वाले तालिबानी सत्ता पर आखिरकार काबिज हो गए हैं। दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व की दुनिया अफगानिस्तान के दुर्गम पहाड़ों में फटे इस सियासी ज्वालामुखी से निकले लावा से अपने आपको महफूज रखने की कोशिश में लगी हुई है, लेकिन सबसे ज्यादा पशोपेश में भारत है। भारत की प्रतिक्रिया पर दुनिया की नजर है। नजर इसलिए है क्योंकि भारत इस इलाके में चीन के बाद दुनिया की बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है।
अफगानिस्तान में अमरीकी सेनाओं की वापसी के फौरन बाद यह सब शुरू हुआ। दुनिया समझ नहीं पा रही है कि अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी अमेरिका का कोई ‘खेल’ है या कोई परिस्थितिजन्य सियासी तब्दीली। अमेरिका बीते बीस साल से अफगानिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के लिए बन्दूक और टैंकों के बल पर तालिबान को रोके हुआ था। यह अमेरिका का मानवीय चेहरा था या उसकी सियासत, अब तक साफ़ नहीं हुआ है क्योंकि अमेरिका एक बार फिर से अपने एक हजार सैनिक अफगानिस्तान भेज रहा है। अमेरिका ने दोबारा अपनी कुमुक अमरीकी दूतावास और वहां मौजूद अमेरिकियों की सुरक्षा के लिए भेजे हैं या फिर वहां मौजूद अपने अफगानी समर्थकों की सकुशल निकासी के लिए- यह स्पष्ट नहीं है?
अफगानिस्तान में तालिबान आंधी की तरह लगभग पूरे अफगानिस्तान की सत्ता पर छा गया। पूरा अफगानिस्तान बन्दूक के बूते पर तालिबान ने हथिया लिया। सत्ता परिवर्तन के लिए तालिबान को किसी ने जनादेश नहीं दिया। तालिबान जनादेश के बजाय बन्दूक के बल पर अफगानिस्तान को इस्लामिक देश बनाने पर आमादा है। दुनिया में इस्लामिक देशों की कमी नहीं है किन्तु तालिबान अफगानिस्तान को सबसे अलग बनाना चाहता है। अपना ख्वाब पूरा करने के लिए तालिबान बीते बीस वर्षों से इन्तजार कर रहा था। आज का अफगानिस्तान 43 साल पहले के इस्लामिक अफगानिस्तान से भी ज्यादा भयावह है। विगत 40 साल में अफगानिस्तान में तालिबान और गैर तालिबानियों के बीच सत्ता संघर्ष चलता रहा। अफगानिस्तान में गैर तालिबानी शक्तियों ने विदेशियों की इमदाद से दुर्गम पहाड़ों के बीच लोकतंत्र का पौधा रोपा था, उसे सींचा भी किन्तु उसे वटवृक्ष कोई नहीं बना पाया। न रूसी, न चीनी और न ही अमेरिका। भारत ने भी बीस-बीस साल में अफगानिस्तान में अधोसंरचना खड़ी करने में अकूत पूंजी निवेश किया क्योंकि उसे यह ख्याल था ही नहीं कि तालिबान दोबारा लौटेगा।
तालिबान भारत के लिए सीधी कोई चुनौती खड़ी नहीं करता, किन्तु उसकी मानसिकता बाजरिये पाकिस्तान और चीन भारत के लिए हमेशा से एक गंभीर खतरा बनी रही है। आज यह खतरा हदें पार कर रहा है। अब सवाल किया जा रहा है कि भारत अफगानिस्तान के नए और रूढ़िवादी निजाम के साथ कैसे रिश्ते बनाकर आगे बढ़ेगा? एक तरफ दुनिया में मानवाधिकारों का हिमायती भारत है और दूसरी और मानवाधिकारों का दुश्मन तालिबान। वह तालिबान जो अपनी महिलाओं और बच्चियों का दुश्मन है, जो अपनी महिलाओं और बच्चों को जानवरों की तरह रखना चाहता है। ऐसे तालिबान से क्या भारत के रिश्ते बने रह सकते हैं? क्या भारत सरकार में इतनी ताकत है कि वह तालिबान की नई सरकार को मान्यता न देकर भी अपने सामरिक, वैदेशिक और आर्थिक रिश्तों की सुरक्षा कर सके?
अफगानिस्तान में राष्ट्रपति अशरफ गनी अपनी अवाम को अधर में छोड़कर भाग गए। उनमें देश के लिए शहादत देने की कूबत नहीं थी। गनी के नेतृत्व वाली सरकार गिर चुकी है। गनी ने सफाई दी है कि लोगों को खून-खराबे से बचाने के लिए उन्हें देश छोड़ना पड़ा है। दुनिया में बहुत से देशों के प्रमुखों ने तख्तापलट के बाद दूसरे देशों में शरण ली है। गनी का नाम भी ऐसे लोगों की फेहरिस्त में जुड़ गया है। मजे की बात यह है कि गनी भागकर भारत नहीं आये। भारत में भी उन्हें राजनीतिक शरण मिल सकती थी। वे जानते थे कि भारत में शरणार्थियों की स्थिति दूसरे देशों के मुकाबले बेहतर नहीं है। भारत में चीन के शरणार्थी दलाई लामा की पूरी जिंदगी हो गई लेकिन न तिब्बत आजाद हुआ और न तिब्बत पर भारत ने कोई खुला रुख अपनाया।
मान्यता है कि अफगानिस्तान का कंधार दरअसल गांधार है, जहां की गांधारी थी। गांधारी यानि भारत के दृष्टिहीन राजा धृतराष्ट्र की पत्नी, लेकिन इस रिश्तेदारी से अलग भी भारत के साथ अफगानिस्तान की रिश्तेदारियां रही हैं। दोस्ती की और अदावतें भी। अफगानिस्तान हर दौर में भारत से जूझता ही रहा। अफगानिस्तान ने दिल्ली की अधीनता भी स्वीकार की और दिल्ली को अपने अधीन करने के लिए अनथक जंग भी लड़ीं। कोई कैसे भूल सकता है कि अफगान से मिलकर बाबर, नादिर शाह तथा अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली पर आक्रमण किए। अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अंग थे।
मौजूदा दौर में अफगानिस्तान भारत के साथ दोस्ताना रिश्ते बनाना चाहेगा। यह अफगानिस्तान की विवशता है और आवश्यकता भी। भारत के सामने भी यही स्थिति है। भारत की मजबूरी यह है कि अभी अफगानिस्तान में भारत का बहुत बड़ा पूंजी निवेश फंसा हुआ है। भारत की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि उसका रिश्ता हमारे स्थायी शत्रु पाकिस्तान और विस्तारवादी चीन से भी है। भारत तालिबान को खुश किये बिना अपना मकसद पूरा नहीं कर सकता। भारत सरकार की मुश्किल यह भी है कि तालिबान को न छोड़ सकता है और न बहुत देर तक उसका हाथ पकड़े रह सकता है।
अफगानिस्तान की पल-पल की खबरें सभी टीवी-अखबारों में देख ही चुके हैं इसलिए उनके विस्तार में जाने का कोई अर्थ नहीं है। अब भारत की स्थिति उस सांप जैसी है जो मुंह में छछूंदर लिए हुए है, जिसे वह न लील सकता है और न उगल सकता है। बीते सात साल में हमारी सरकार की विदेश नीति हरेक मोर्चे पर नाकाम सी रही है। हमने चीन को झूला झुलाया और उसने हमारे देश की जमीन हड़पने की कोशिश की। हमने पाकिस्तान को आंखें दिखाईं तो चीन ने पाकिस्तान के कंधे पर हाथ रख दिया। अब वही चीन तालिबान की सरकार को मान्यता देने के लिए उतावला बैठा है।
भारत के पास एक मौका था 15 अगस्त को तालिबानियों से अपने भावी रिश्तों के संकेत देने के, लेकिन इस मौके का इस्तेमाल सरकार ने जानबूझकर नहीं किया। मुमकिन है कि ऐसा किसी रणनीति के तहत किया गया हो, लेकिन विदेशनीति को लेकर हमेशा सतर्क रहने की जरूरत होती है। दुर्भाग्य से अब तक ऐसी सतर्कता कहीं नजर नहीं आ रही। यहां तक कि सरकार ने इस मसले पर अनौपचारिक विचार-विमर्श के लिए विपक्ष के साथ अब तक एक चाय मीटिंग भी नहीं रखी।