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कविता

मां है शब्दातीत

मां है शब्दातीत
संजय पंकज


दुनिया भागमभाग है, दुनिया एक तनाव।
दुनिया में ही माँ मिली,दुनिया भर की छाँव।।

बिंब विशेषण व्यंजना, उपमाएँ लाचार।
शब्द अकेला माँ बहुत, क्या कोई दरकार?

गिरि जंगल सागर सड़क, सबका है सीमांत।
माँ तो जैसे जल-पवन, भीड़ लिए एकांत।।

एक देह में सिलसिला,देह देह बस देह।
देहों के माँ पार है ,प्रेरण ऊर्जा नेह।।

चढ़े गगन पर कूथते, जितने भी श्रीमंत।
माँ के तप के पुण्य ही, सारे संत महंत।।

मंदिर की हो घंटियाँ,कि मस्जिद की अजान।
पहले जगती माँ तभी, जगे सभी भगवान।।

हुए भयावह काल से, माँ करती मुठभेड़।
मारू-ध्वनि के बीच भी, माँ वंशी की टेर।।

घर भर में हिम बँट गया, माँ के हिस्से आग।
जल जलकर है बाँटती, माँ केवल अनुराग।।

अल्ला ईश्वर गॉड माँ, मंदिर मस्जिद चर्च।
औरों के हिस्से रही, माँ होती नित खर्च।।

सूरज तो सोया अभी, पंछी अपने नीड़।
सोकर भी है जागना, माँ की यह तकदीर।।

शब्दों में ब्रह्मांड बन्ध, बँधे गीत संगीत।
अपना अर्थ लगाइए, माँ है शब्दातीत।।

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