सृष्टि में मनुष्यों का प्रथम उत्पत्ति स्थान और आर्यों का मूल निवास
हमारा यह संसार वैदिक मान्यता के अनुसार आज से 1 अरब 96 करोड़ 08 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व बनकर आरम्भ है। इस समय मानव सृष्टि संवत् 1,96,08,53,116 हवां चल रहा है। यह वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ हुआ है। इस सृष्टि सम्वत् के प्रथम दिन ईश्वर ने मनुष्यों को किस स्थान पर उत्पन्न किय था, इस प्रश्न पर संसार के लोग एकमत नहीं हैं। महर्षि दयानन्द ने इस विषय का शंका समाधान कर अपना शास्त्रीय, तर्क व युक्ति से सिद्ध मत अपने प्रमुख ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में दिया है। इस प्रश्न के महर्षि दयानन्द द्वारा दिए गए उत्तर को प्रस्तुत करने से पूर्व हम यह बताना चाहते हैं कि 12 फरवरी, सन् 1825 को गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर जन्में महर्षि दयानन्द ने अपनी आयु के बाईसवें वर्ष के आरम्भ में अपने मातृ-पितृ गृह का त्याग किया था। उन्होंने सन् 1863 तक निरन्तर देश का भ्रमण किया और जहां जो विद्वान मिला, उससे उन्होंने अध्ययन किया। संस्कृत व गुजराती भाषा का अध्ययन वह अपने माता-पिता के साथ रहते हुए ही कर चुके थे। विद्वानों से ज्ञान ग्रहण करने के साथ उन्होंने अपनी यात्रा में मिलने वाले बड़ी संख्या में दुर्लभ मूल ग्रन्थों व अनेक पाण्डुलिपियों का अध्ययन भी किया था। योगाभ्यास में उनकी गहरी रूचि थी और अनेक गुरूओं से उन्होंने समय समय पर योग सम्बन्धी ज्ञान व उसके रहस्यों को जाना व समझा तथा उन्हें अभ्यास द्वारा प्रत्यक्ष भी किया था। उनका अध्ययन सन् 1863 में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन करने पर पूर्ण हुआ। उसके बाद भी उनका देश का भ्रमण जारी रहा। जिज्ञासु वृत्ति उनको जन्म से प्राप्त थी। अतः उन्होंने एक मनुष्य में जितने अधिक से अधिक प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं और वह उनका ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वह सब जिज्ञासायें उनमें हुईं व उनके उत्तर भी उन्होंने प्राप्त किये। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ उनकी इस जिज्ञासु वृत्ति और उन्होंने जो विद्यायें अर्जित कीं, उनका जीता जागता प्रमाण है। अतः महषि दयानन्द ने सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति स्थान के बारे में जो उत्तर व समाधान प्रस्तुत किया है, वह प्रमाणिक, तथ्यपूर्ण एवं यथार्थ है, इसका पाठकों को विश्वास करना चाहिये। उनका कथन इसलिए भी प्रमाणिक है कि वह एक धर्मात्मा और महात्मा थे, पूर्णतया निष्पक्ष थे और धर्म एवं संस्कृति सहित वेदादि शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। वह धर्मात्मा आप्त कोटि के अपूर्व पुरुष थे जो अपने जीवन में कभी असत्य कथन नहीं करता। इस कारण भी उनका इस विषय का समाधान स्वीकार्य, माननीय व किसी प्रकार के सन्देह से परे है।
महर्षि दयानन्द का प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश है। इसके आठवें समुल्लास में वह प्रश्न करते हैं कि मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई? इसका उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि त्रिविष्टिप् अर्थात् जिस को “तिब्बत” कहते हैं (वहां हुई थी)। (प्रश्न) आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक? (उत्तर) एक मनुष्य जाति थी, पश्चात् ‘‘विजानीह्यार्यांये च दस्यवः” यह ऋग्वेद का वचन है। श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान, देव और दुष्टों के दस्यु, डाकू व मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। ‘‘उत शूद्र उतार्ये” यह अथर्ववेद का वचन है। आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चार भेद हुए। द्विज विद्वानों का नाम आर्य और मूर्खों का नाम शूद्र और अनार्य अर्थात् अनाड़ी नाम हुआ। (प्रश्न) फिर वे यहां कैसे आये? (उत्तर) जब आर्य और दस्युओं में अर्थात् विद्वान् जो देव तथा अविद्वान् जो असुर, उन में परस्पर लड़ाई, बखेड़ा व बहुत उपद्रव आदि होने लगा, तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जान कर यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का (प्रथम) नाम ‘‘आर्यावर्त्त” हुआ। (प्रश्न) आर्यावर्त्त की अवधि कहां तक है? (उत्तर) आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।। तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्त विदुर्बुधाः।। 1।। सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्वदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशमार्यावत्र्त प्रचक्षते।।2।। उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र तक।।1।। तथा सरस्वती पश्चिम में, अटक नदी पूर्व में, द्वषद्वती जो नेपाल के पूर्वभाग पहाड़ से निकल के बंगाल के आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम ओर हो कर दक्षिण के समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्र कहते हैं, और अटक जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आकर मिली है। हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वरम् पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं, उन सब को आर्यावर्त्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावत्र्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त्त कहाया है। (प्रश्न) प्रथम इस देश का नाम क्या था, और इसमें कौन बसते थे? (उत्तर) इस (आर्यावर्त्त नाम) के पूर्व इस देश का अन्य कोई भी नाम नहीं था, और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे, क्योंकि आर्य लोग सृष्टि की आदि में (सृष्टि उत्पत्ति के) कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सीघे इसी देश में आकर बसे थे। (प्रश्न) कोई कहते हैं कि ये (आर्य) लोग ईरान से आये, इसी से इन लोगों का नाम आर्य हुआ है। इनके पूर्व यहां जंगली लोग वसते थे कि जिन को असुर और राक्षस कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उन का जब संग्राम हुआ, उस का नाम देवावसुर संग्राम कथाओं में ठहराया। (उत्तर) यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि ‘‘विजानीह्यार्यान्ये च दस्यवो बर्हिष्मते रंधया शासद व्रतान्।” यह ऋग्वेद का मंत्र 1/51/8 है तथा ‘उत शूद्र उतार्ये।’ यह अथर्ववेद का प्रमाण है। यह लिख चुके हैं कि आर्य नाम धार्मिक, विद्वान, आप्त पुरुषों का और इन से विपरीत जनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकु, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विजों का नाम आर्य और शूद्र का नाम अनार्य अर्थात् अनाड़ी है। जब वेद ऐसे कहता है, तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर संग्राम में आर्यावर्तीय अर्जुन तथा महाराजा दशरथ आदि, हिमालय पहाड़ में आर्य और दस्यु-मलेच्छ-असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें देव अर्थात् आर्यों की रक्षा और असुरों के पराजय करने को सहायक हुए थे। (अर्जुन व दशरथ के काल अलग अलग होने से यह भी सम्भावना लगती है कि यह देवासुर संग्राम अनेक बार हुआ)। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्यावर्त्त के बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, देश में मनुष्य रहते हैं, उन्हीं का नाम असुर सिद्ध होता है। क्योंकि जब जब हिमालय प्रदेशस्थ आर्यों पर (विदेशी दस्यु व असुर) लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब तब यहां के राजा-महाराजा लोग उन्हीं उत्तर आदि देशों में आर्यों के सहायक होते। और जो श्री रामचन्द्र जी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उसका नाम देवासुर संग्राम नहीं है, किन्तु उस को राम-रावण अथवा आर्य और राक्षसों का संग्राम कहते हैं। किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा है कि आर्य लोग ईरान से आये और वहां के जंगलियों को लड़कर, विजय पा के, निकाल के, इस देश के राजा हुए। पुनः विदेशियों का (पक्षपात से पूर्ण) लेख माननीय कैसे हो सकता है? (अर्थात् नहीं हो सकता)।
महर्षि दयानन्द ने अपने वचनों में सृष्टि की आदि में मनुष्य की उत्पत्ति के स्थान को तिब्बत बताया है। अन्य प्राचीन प्रमाणों से भी यही स्थान सिद्ध होता है। इसके लिए विख्यात विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी की पुस्तक ‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता’ पठनीय है। महर्षि दयानन्द जी ने अंग्रेजों की इस मिथ्या मान्यता का भी सप्रमाण प्रतिवाद कर दिया है कि आर्य इस आर्यावर्त्त के मूल निवासी नहीं हैं। उनके अनुसार आर्य किसी अन्य देश में आकर यहां आर्यावर्त्त भारत में नहीं बसे अपितु सृष्टि की आदि में, जब पूरा भूलोक व पृथिवी खाली पड़ी थी, तिब्बत से सीधे यहां आकर बसे व इसको उन्होंने ही बसाया था। अंग्रेजों ने जो आर्यों के ईरान व अन्य किसी देश से आने की मान्यता प्रचलित थी, उसके पीछे उनका निजी स्वार्थ था। वह यह प्रचारित करना चाहते थे कि जिस प्रकार हम विदेशी हैं उसी प्रकार से वर्ण व आश्रम धर्म-व्यवस्था को मानने वाले आर्य भी हैं। महर्षि दयानन्द का अंग्रेजों की इस स्वार्थपूर्ण मान्यता का सप्रमाण खण्डन उनकी ऐतिहासिक तथ्यों पर सूक्ष्म तथ्यात्मक दृष्टि व दूरदर्शिता सहित देशहितैषी होने का प्रमाण है। हम आशा करते हैं कि लेख के पाठक महर्षि दयानन्द के दोनों ही निष्कर्षों से सहमत होंगे। आवश्यकता इस बात की है कि महर्षि दयानन्द की मान्यता का डिन्डिम घोष से प्रचार व प्रसार हो और भारत सरकार इस तथ्यात्मक मान्यता को स्केूली पाठ्यक्रम में शामिल कर न्याय करे।