भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन अध्याय – 5 ( 2 ) अरब वालों के लिए भारत की आर्थिक समृद्धि थी ईर्ष्या का कारण
वास्तव में उन दिनों भारत की आर्थिक समृद्धि अरब के खलीफाओं और उनके सैनिकों के लिए बहुत ही अधिक ईर्ष्या का कारण बन चुकी थी। वह किसी न किसी प्रकार से भारत पर आक्रमण कर यहाँ की अकूत सम्पदा को लूटने की योजनाएं बनाने लगे थे।
उन दिनों महाराजा दाहिर सेन की राजधानी अलोर थी। वह अपनी राजधानी में बैठे रह कर भी अरब की गतिविधियों पर पूरी सावधानी से नजर रखे हुए थे। वैसे भी पिछले लगभग 70 वर्ष से अधिक के काल में भारत पर अरब आक्रमणकारियों के अनेकों आक्रमण हो चुके थे। जिनमें यह तथ्य स्पष्ट हो चुका था कि इन लोगों का प्रमुख उद्देश्य दूसरे देशों का इस्लामीकरण करना और वहाँ के धनमाल को लूटना ही होता है। ऐसे में राजा दाहिर सेन जैसे देशभक्त राजा से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह निश्चिंत होकर बैठे होंगे, अपितु यही माना जा सकता है कि वह पूरी तैयारी के साथ दुश्मन की हर गतिविधि पर नजर रखे हुए थे।
अलोर शहर भी उन दिनों विश्व राजनीति में अपना विशेष स्थान रखता था। राजा दाहिर ने अपने शासन को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए अलग-अलग प्रांतों में विभक्त किया हुआ था। उन्होंने यह भली-भांति अनुमान लगा लिया था कि अरब के व्यापारी देवल बंदरगाह पर कभी भी हमला कर सकते हैं । यही कारण था कि किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना को टालने के दृष्टिकोण से राजा ने देवल बन्दरगााह पर प्रशासन की दृष्टि से अलग सूबेदार नियुक्त किया हुआ था।
सावधान राजा भला और प्रजा रहे सचेत।
जागते हुए किसान का उजड़ न पावै खेत।।
राजा की इस प्रकार की सोच बताती है कि वह अरब आक्रमणकारियों के आक्रमण के प्रति पूर्णतया सावधान थे । उन्हें अरब वालों की सोच और कार्यशैली का पूर्ण ज्ञान था। यही कारण था कि वह किसी भी प्रकार से प्रशासनिक शिथिलता को अपनाने के पक्षधर नहीं थे । उन्होंने तूफान आने से पहले तैयारी करने में ही अपना और देश का भला समझा। राजा ने अरब के व्यापारियों और वहाँ के खलीफा के आचरण, व्यवहार और कार्यशैली का भली प्रकार पता लगा लिया था । यही कारण था कि उन्होंने देवल को प्रशासन की दृष्टि से एक अलग इकाई के रूप में स्थापित किया।
अरब का सैन्य दल पहुँचा देवल बंदरगाह
उधर अरब के लालची, स्वार्थी और दूसरे के द्रव्य पर दृष्टि रखने वाले खलीफाओं और उनके सेनापतियों की गुप्त योजनाएं देवल बन्दरगाह पर आक्रमण करने के सम्बन्ध में षड़यन्त्रपूर्ण ढंग से बनती जा रही थीं।
वह चाहते थे कि देवल बन्दरगाह पर यदि एक बार उनका अधिकार हो गया तो मानो भारत के प्रवेश द्वार पर उनका एकाधिकार स्थापित हो जाएगा।जिससे ‘सोने की चिड़िया’ भारत को लूटने में उन्हें सुविधा होगी। इसके अतिरिक्त यहाँ पर अपने इस्लामिक धर्म को फैलाने में भी उन्हें सहायता मिलेगी। अपनी इसी प्रकार की योजनाओं को सिरे चढ़ाने के उद्देश्य से अरब के व्यापारियों ने भारत की ओर एक दिन प्रस्थान कर ही दिया । यद्यपि इससे पूर्व भी उनके भारत पर आक्रमण करने के ऐसे प्रस्थानों का आयोजन हो चुका था, पर इस बार के प्रस्थान की कुछ विशेषताएं अलग थीं। इन अरब आक्रमणकारियों का यह तथाकथित सैन्य दल जब भारत की ओर बढ़ा तो उसने एक दिन अचानक देवल बन्दरगाह पर आकर दस्तक दे ही दी। अरबी जहाज में बैठे यात्रियों ने देवल बन्दरगाह पर आकर विश्राम के लिए स्थान मांगा। स्थान मांगने के पीछे उनकी चालाकी थी। छल – बल अरब आक्रमणकारियों की रणनीति का एक हिस्सा रहा है । उन्होंने इसको कभी अपराध नहीं माना। युद्ध में भी धर्म को अपनाकर चलने वाले भारतीय क्षत्रियों को राक्षस वृत्ति के इन लोगों ने अपने छल-बल से कई बार पराजित किया।
भारतीय लोग कई बार इनके छल-बल को प्रारंभिक अवस्था में समझ नहीं पाए, समझे तो उस समय समझे जब सब कुछ लुट चुका था। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ।
छल बल और षड़यंत्र को लाये भारत देश।
नीच, पातकी, म्लेच्छ से जाने गए हमेश।।
भारत की ओर से नियुक्त अधिकारियों ने ‘अतिथि देवो भव:’ – की परम्परा का निर्वाह करते हुए उन्हें विश्राम के लिए स्थान उपलब्ध करा दिया। तब उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि उन्होंने अतिथि के रूप में किसी दुर्दांत आतंकवादी को अपने यहाँ पर शरण दे दी है।
जो भारत में शरण लेने के दृष्टिकोण से नहीं आया है बल्कि भारत का हरण करने के लिए आया है। जिसकी सोच अतिथि वाली नहीं है बल्कि बगुला भक्ति वाली है।
वास्तव में भरत ऐसी ही ‘सद्गुण विकृति’ का शिकार हर काल में हुआ है। उसने शत्रु के भीतर के छुपे भाव को पढ़ने में चूक की। जिसका परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर विनाश के रूप में आर्य जाति को भोगना पड़ा। हमारे लोगों ने इन विदेशी अरब आक्रमणकारियों को म्लेच्छ या किसी ऐसे ही अपशब्द से इसीलिए पुकारा कि वह इनकी नीतियों व रीतियों से कभी सहमत नहीं रहे। इनके छल कपट और दुष्ट आचरण को देखकर हमारे लोगों ने इनका सामाजिक बहिष्कार किया। इस सामाजिक बहिष्कार के बारे में अनेकों मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा है। इस बहिष्कार के बारे में हमें यह भी पता होना चाहिए कि यह 10 – 20 वर्ष नहीं चला था बल्कि सैकड़ों वर्ष तक और उसके पश्चात आज तक भी चला हुआ है। इनके पास बैठना या इनसे किसी भी प्रकार का संपर्क या सम्बन्ध बनाना हमारे पूर्वजों ने कभी उचित नहीं माना।
हमारे पूर्वजों की रही प्रतिबंधात्मक सोच
इतिहास को पढ़ते समय हमारे पूर्वजों की इस प्रकार की सोच और इन अरब आक्रमणकारियों और इनके पश्चात इनके ही मजहब वाले आतंकवादियों या आक्रमणकारियों के प्रति अपनाए जाने वाले प्रतिबंधात्मक दृष्टिकोण को भी समझना चाहिए। केवल अपने पूर्वजों को कायर व कमजोर कहकर अपने आपको गाली देने से काम नहीं चलता बल्कि यह देखना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने उस समय इन राक्षसों के प्रति कैसी-कैसी नीतियां अपनाई थीं ? और उनके आचरण तथा व्यवहार को देखकर इन्हें कैसे कैसे नामों से पुकारा था ? इस संदर्भ में हमारा यह कहना है कि अपने इतिहास का अवलोकन करते समय हमें अपने पूर्वजों के इस प्रकार के आचरण को भी इतिहास का एक आवश्यक अंग मानना चाहिए और यह समझना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने किस- किस प्रकार के सुरक्षा प्रबन्ध उस समय अपने आपको और अपने धर्म व संस्कृति को बचाने के लिए किए थे ?
पूर्वजों के पुरुषार्थ को भूल गया जो देश।
ढूंढे से भी ना मिलें उसके कहीं अवशेष।।
देवल बन्दरगाह पर जो लोग पहुँचे थे वह अतिथि नहीं थे, अपितु अतिथि के रूप में छुपे हुए शत्रु थे। जो भारत की धरती पर शत्रु भाव को लेकर उतरे थे। उनमें अतिथि का भाव तो दूर-दूर तक भी नहीं था । यद्यपि हमारे देश में कुछ लेखकों व इतिहासकारों ने विदेशी आक्रमणकारियों के शत्रु स्वरूप को अपनी लेखनी की दृष्टि से उपेक्षित कर उन्हें भी अतिथि की संज्ञा दी है, जिसे संसार का कोई भी संवेदनशील और राष्ट्रभक्त व्यक्ति अतिथि नहीं मान सकता । हमारे बीच ही उपस्थित रहने वाले बहुत से इतिहास लेखक और सेकुलर नाम के कीड़े अतिथि शब्द की परिभाषा तक नहीं जानते । इसके उपरांत भी वे हमें ‘अतिथि देवो भव:’ का पाठ पढ़ाते हैं। यदि इन सेकुलर कीड़ों के नजरिए से हम देखें तो इनका उद्देश्य इन अतिथियों पर हमारे पूर्वजों के द्वारा किए जा रहे आक्रमणों को अनुचित ठहराना है। इनकी सोच है कि आधुनिकता और प्रगतिशीलता का संदेश लेकर आ रहे इन विदेशी आक्रमणकारियों को भारत के रूढ़िवादी लोगों की ओर से सम्मान किया जाना चाहिए था। यदि उन्होंने इनका सामना तलवारों से किया तो यह उनकी गलती थी।
यही कारण है कि उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों और ऐसे लोगों को भी अतिथि मान लिया जो भारत विनाश का सपना लेकर या उद्देश्य लेकर भारत की ओर आए थे । इन मूर्खों को यह ज्ञान नहीं है कि अतिथि वह होता है जो जिसके घर पर जा रहा है उसके अभीष्ट और कल्याण की कामना से भरा हुआ होता है। पर यह जो अतिथि इस समय देवल बन्दरगाह पर टिका हुआ था, उसके मन में लूट, हत्या, डकैती ,बलात्कार की बहुत ही विनाशकारी योजनाएं थीं। जिनका भारत के लोगों के कल्याण और अभीष्ट से दूर-दूर का भी सम्बन्ध नहीं था। निश्चय ही उस समय इन तथाकथित अतिथियों के अंतर्भाव को भारत के अधिकारियों ने पढ़ने में असावधानी का प्रदर्शन किया।
प्रशासक वर्ग को हुआ गलती का आभास
भारत के शासक- प्रशासक वर्ग के लोगों को अपनी गलती का आभास उस समय हुआ जब इस शत्रु व्यापारी दल ने अचानक देवल के शहर पर बिना कारण हमला कर दिया। उन्होंने इस हमले के समय अपने जिस पाशविक व्यवहार की होली खेली, उसे देखकर भारत के सीधे-साधे लोग दंग रह गए। क्योंकि उन्होंने अबसे पहले ऐसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के दल को नहीं देखा था जो इस प्रकार के अमानवीय कृत्य या अत्याचार करता है। वास्तव में यह मानव दल नहीं था अपितु दानव दल था जो इस समय गिद्धों का रूप ले चुका था।
इन विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत के लोगों को अपने ऐसे पाशविक अत्याचार दिखाए जिन्हें भारत के लोगों ने अबसे पहले कभी नहीं देखा था। उन्होंने अनेकों महिलाओं ,बच्चों और पुरुषों को गिरफ्तार कर अपने जहाज में कैद कर लिया। जब इस दु:खद समाचार को हमारे सम्बन्धित सूबेदार ने सुना तो उसने अपना राष्ट्रधर्म निभाते हुए तुरन्त कार्यवाही की और जितने लोग अरब आक्रमणकारियों के द्वारा कैद कर जहाज में बैठा लिए गए थे, उन सबको उसने मुक्त करा लिया। बताया जाता है कि भारत के सूबेदार के द्वारा किया गया यह प्रतिशोधात्मक हमला इतना अधिक भयानक था कि अरब आक्रमणकारियों को अपना जहाज छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ गया था।
देख हमारी वीरता और वतन से प्रेम।
ठौर ठिकाना छोड़कै भाग लिए निज देश।।
उन्हें अपनी करनी का फल मिल गया और उन्होंने साथ ही साथ यह भी समझ लिया कि भारत का पौरुष कितना भयानक है ? भारत को छेड़ने का अभिप्राय है कि वह फिर किसी को छोड़ता नहीं है। निश्चित रूप से जब यह समाचार अरब पहुँचा होगा तो अरब के नेताओं को भी यह पता चल गया होगा कि भारत का शौर्य और प्रताप कितना सजग और सावधान है ? तथाकथित अतिथि को अपने आतंकवादी होने का परिणाम भोगना पड़ा।अरब आक्रमणकारियों से भारत के राजा दाहिर सेन के इस सैन्य दल की यह पहली भिड़ंत थी। जिसमें उसे पूर्ण सफलता प्राप्त हुई।
‘विश्व गुरु’ भारत की महानता
भारत के शौर्य और पराक्रम पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले तथाकथित विद्वानों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि भारत ने प्रत्येक क्षेत्र में संसार का मार्गदर्शन किया है। इसीलिए भारत को प्राचीन काल में ‘विश्वगुरु’ का सम्मानित स्थान प्राप्त था । अपने इसी सम्मान को बनाने के लिए भारत में विश्व का सबसे प्रथम विश्वविद्यालय 700 बी सी में तक्षशिला में स्थापित किया गया था। इसमें सारे संसार से 60 से अधिक विषयों में 10,500 से अधिक छात्र आकर अध्ययन करते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय चौथी शताब्दी में स्थापित किया गया था जो शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की महानतम उपलब्धियों में से एक है। इन सभी शैक्षणिक संस्थानों में या विश्वविद्यालयों में मानव निर्माण की योजना पर काम किया जाता था। इनमें आतंकवादी या दूसरे के धन माल को लूटने वाले राक्षस पैदा नहीं किए जाते थे।
भारत ने ही विश्व को स्वस्थ रखने के लिए आयुर्वेद की खोज की। आयुर्वेद विश्व की सबसे पहली चिकित्सा शाखा है । चरक ने हजारों वर्ष पहले आयुर्वेद का समेकन किया था। भारत ने सम्पूर्ण विश्व के साथ अपने व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्राचीन काल में अनेकों समुद्री मार्गों को भी खोजा था। इसलिए भारत के बारे में यह कहना कि इसकी खोज कोलंबस या किसी वास्कोडिगामा या किसी अन्य व्यक्ति ने की थी, गलत है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि भारत में नौवहन की कला और नौवहन का जन्म 6000 वर्ष पहले सिंध नदी में हुआ था। हमको ऐसे लोगों की मान्यता पर आपत्ति है। क्योंकि भारत के वैदिक साहित्य में नाव, नाविक जैसे शब्द प्रयोग किए गए हैं। जिनसे स्पष्ट होता है कि भारत लाखों – करोड़ों वर्ष से नाव, नाविक और नौसेना आदि शब्दों से परिचित रहा है और इस विज्ञान को उसने सबसे पहले खोज लिया था। इस प्रकार के ज्ञान विज्ञान के लिए भी हमें विदेशों की ओर देखने की बजाय अपने वैदिक साहित्य की ओर देखना चाहिए। हमें अपने वैदिक साहित्य से जुड़ना चाहिए , विदेशी भाषा और विदेशी भाषा के साहित्य नहीं। क्योंकि अपनी संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी है और सारा ज्ञान विज्ञान उसी में समाविष्ट है।
सर्वत्र भारतवर्ष की उत्कृष्टता का बोध था,
उसके यहाँ विज्ञान का शोध था प्रतिबोध था।
दी व्यवस्था विश्व को अपने अनोखे ज्ञान से,
‘विश्वगुरु’ की दृष्टि में ना क्रोध था ना विरोध था।।
भास्कराचार्य ने खगोल शास्त्र के क्षेत्र में ऐसे कीर्तिमान स्थापित किए कि जिन्हें आज तक कोई लांघ नहीं पाया है। भारत के सबसे पहले आचार्य यही थे, जिन्होंने पृथ्वी द्वारा सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में लगने वाले सही समय की गणना की थी। उनकी गणना के अनुसार सूर्य की परिक्रमा में पृथ्वी को 365.258756484 दिन का समय लगता है।
विद्वानों ने अपनी शोधों के आधार पर यह भी सिद्ध कर दिया है कि भारतीय गणितज्ञ बुधायन द्वारा ‘पाई’ का मूल्य ज्ञात किया गया था और उन्होंने जिस संकल्पना को समझाया उसे पाइथागोरस का प्रमेय कहते हैं। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि उन्होंने इसकी खोज छठवीं शताब्दी में की, जो यूरोपीय गणितज्ञों से काफी पहले की गई थी।
भारत के विषय में जानकारी रखने वाले विद्वानों का निष्कर्ष है कि ”बीज गणित, त्रिकोणमिति और कलन का उद्भव भी भारत में हुआ था। चतुष्पद समीकरण का उपयोग 11वीं शताब्दी में श्रीधराचार्य द्वारा किया गया था। ग्रीक तथा रोमनों द्वारा उपयोग की गई की सबसे बड़ी संख्या 106 थी जबकि हिन्दुओं ने 10 की घात 53 जितने बड़े अंको का उपयोग विशिष्ट नाम 5000 बीसी के दौरान किया। आज भी उपयोग की जाने वाली सबसे बड़ी संख्या टेरा: 10 की घात12 है।
सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता है। जिन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर अबसे हजारों वर्ष पहले मोतियाबिंद, कृत्रिम अंगों को लगाना, शल्य क्रिया द्वारा प्रसव, अस्थिभंग जोड़ना, मूत्राशय की पथरी, प्लास्टिक सर्जरी और मस्तिष्क की शल्य क्रियाएं आदि कीं।
निश्चेतक का उपयोग भारतीय प्राचीन चिकित्सा विज्ञान में भली भांति ज्ञात था। शारीरिकी, भ्रूण विज्ञान, पाचन, चयापचय, शरीर क्रिया विज्ञान, इटियोलॉजी, आनुवांशिकी और प्रतिरक्षा विज्ञान आदि विषय भी प्राचीन भारतीय ग्रंथों में पाए जाते हैं।
भारत कैसे कर सकता था आत्मसमर्पण ?
कहने का अभिप्राय है कि जिस भारत में प्राचीन काल से प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के कीर्तिमान स्थापित किए जा रहे थे वह भारत अचानक ही किसी विदेशी आक्रमणकारी के सामने आत्मसमर्पण करने वाला नहीं था । क्योंकि उसे इस बात का घमंड था कि वह संसार पर शासन के माध्यम से धर्म की मर्यादाओं को स्थापित करना जानता है। भारत प्राचीन काल से ही यह भी जानता और मानता रहा है कि ईश्वर ने यह भूमि आर्यों को प्रदान की है। क्योंकि आर्य लोग संसार में वैदिक और धार्मिक मर्यादाओं की स्थापना करने वाले होते हैं।
मर्यादाओं को तोड़ने या भंग करने वाले लोगों को ईश्वर ने यह भूमि कदापि नहीं दी। इस प्रकार ईश्वर की आज्ञाओं और वैदिक मर्यादाओं को तोड़ने वालों का संहार करना या उनका विनाश करना भारत के क्षत्रियों ने अपना सबसे बड़ा धर्म माना। वेद ने स्वयं ऐसा वचन मनुष्य मात्र को दिया है कि वह यह भूमि आर्यों को देता है। अतः जब राजा दाहिर सेन या उनके अधिकारी आर्य धर्म की रक्षा के लिए अर्थात भारतीय संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए अपना कर्तव्य निर्वाह करते हुए विदेशी शत्रुओं का संहार कर रहे थे तो वह अपना सबसे पवित्र कार्य कर रहे थे।
उनके इस प्रकार के कार्यों पर प्रश्नचिन्ह लगाना या उन्हें कम करके आंकना इतिहास के साथ किया जाने वाला क्रूर उपहास नहीं तो क्या है?
जिसे अपने पूर्वजों के मान का गुमान हो,
जिसे अपनी वीरता का बोध और अभिमान हो।
वह झुक नहीं सकता कभी संकटों के सामने,
जिसके यहाँ विकल्प का ना कभी स्थान हो।।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत