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अफगानिस्तान में जो कुछ हुआ है क्या उसके खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की पांच बड़ी शक्तियां एकता दिखा सकेंगी ?

 

अनुराग मिश्रा

अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत आ चुकी है। भारत के बनाए संसद भवन में जनप्रतिनिधियों के बैठने वाली कुर्सियों पर हथियार लिए आतंकियों की तस्वीरें अफगानिस्तान के कल का खतरनाक पूर्वानुमान लगाने पर मजबूर कर रही हैं। पहले की तरह अमेरिका और उसके मित्र देश पल्ला झाड़कर पलायन कर चुके हैं। सोचने-समझने की क्षमता रखने वाला दुनिया का हर शख्स इस समय अफगानिस्तान के हालात पर चिंतित है। उसके मन में एक ही सवाल कौंध रहा है- ऐसा क्यों? क्या इसे रोका नहीं जा सकता था? क्या लोकतांत्रिक सरकार को आतंकी हुकूमत के सामने घुटने टेकने से बचाया जा सकता था? जवाब में उंगली अमेरिका की तरफ उठती है। उसे जब सूट किया तो उसने अफगानिस्तान में आक्रमण कर सत्ता को कठपुतली की तरह नचाया और जब खर्चे उद्देश्यों पर भारी पड़ने लगे और अपना काम निपट गया तो देश को मझधार में छोड़कर उसके जहाज उड़ चले। वैसे, अमेरिका अपनी सफाई में भ्रष्टाचार और अन्य कारणों को अफगानिस्तान के मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार बता रहा है।

खैर, अगर अमेरिका नहीं तो और कौन? कैसे एक पूरा देश अफगानिस्तान से ‘आतंकिस्तान’ की राह पर चला गया? ऑस्ट्रेलिया से लेकर जापान, चीन, फ्रांस, यूके होते हुए कनाडा तक का मैप देख डालिए। फिर नजरें अमेरिका पर ही टिकेंगी। जी हां, यहीं न्यूयॉर्क में खामोश खड़ा है संयुक्त राष्ट्र। अगर इसके बनने का उद्देश्य देखें तो तीसरा विश्व युद्ध होने से रोकना और अंतरराष्ट्रीय शांति कायम करना था। पर आज यह पंगु कैसे हो गया?

वास्तव में यह पंगु तो उसी दिन हो गया था जब इसके पांच स्थायी सदस्य देशों को वीटो पावर मिल गया था। मतलब कहने को तो संयुक्त राष्ट्र है पर हकीकत में यह पांच देशों के स्वार्थों में पिस रहा है।
संयुक्त राष्ट्र अपने पांच पहियों के कारण अकेले अस्तित्व में ही नहीं रह सकता है। पांचों पहिए जिधर चलेंगे संयुक्त राष्ट्र उधर चलेगा। अब ऐसा कम ही संभव होगा कि पांचों एक दिशा में चलें, दुर्भाग्य से दुनिया के सबसे बड़े संगठन का हाल भी कुछ ऐसा ही है।
रूस, अमेरिका, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन ये पांच देश तय करते हैं और संयुक्त राष्ट्र को वही करना पड़ता है। इन पांच में से चीन और रूस ने तो तालिबानी शासन के समर्थन की बात भी कहनी शुरू कर दी है तो भला ऐक्शन कौन करेगा।
यही वजह है कि काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाई गई और उसके बाद संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का बयान आया तो वह सख्ती के संदेश की बजाय ‘अपील’ ही रहा। यह हास्यास्पद है कि बंदूक के दम पर सत्ता हथियाने वालों से दुनिया के सबसे बड़े संगठन का मुखिया अपील कर रहा है। उन्होंने कहा, ‘मैं सभी पक्षों विशेष रूप से तालिबान से आग्रह करता हूं कि वह मानवीय जीवन की रक्षा के लिए संयम बरते… मैं विश्व के सभी देशों से अफगानिस्तान से दूसरे देशों में जाने वाले शरणार्थियों को स्वीकार करने की अपील करता हूं।’
साफ है कि अफगानिस्तान से अमेरिका ही नहीं भागा, संयुक्त राष्ट्र भी अपनी जिम्मेदारियों से भाग खड़ा हुआ है। उसे पता है कि रूस और चीन की मंजूरी के बगैर वह सिर्फ आपात बैठक कर बयान ही जारी कर सकता है। सदस्य देशों की फंडिंग पर चलने वाला संयुक्त राष्ट्र वास्तव में कोई बड़ा मसला नहीं निपटा सकता। पांच पहिए एक दिशा में चलेंगे, यह दुर्लभ है।
दूसरी तरफ काबुल पर कब्जे के बाद तालिबान ने पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावी सब्जबाग भरपूर दिखाया। सबको माफ किया और महिलाओं को इस्लाम के आधार पर अधिकार देने की बात कह उसने अपनी छवि सुधारने की मंशा जाहिर कर दी है। यह उसकी कूटनीति है और इस लिहाज से वह दुनिया के ताकतवर मुल्कों से आगे निकल चुका है। ऐसा कर वह अफगानिस्तान के लोगों के दिलों में तालिबान हुकूमत को जायज ठहराकर दुनिया के देशों से मान्यता हासिल करना चाहता है। न चाहते हुए भी अब देशों को उसे स्वीकार करना होगा। तालिबान के प्रवक्ता ने कहा है कि वह सभी देशों के दूतावास की सुरक्षा करेगा और किसी भी देश को चिंतित होने की जरूरत नहीं है। तालिबान की यह बात खुद संयुक्त राष्ट्र को बौना बना दे रही है।
दशकों से संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुधार की बात की जा रही है। पर अब आम लोग भी सोचने लगे हैं कि यह कर क्या सकता है। वैसे, संयुक्त राष्ट्र मानवीय मिशन कई देशों में चला रहा है जिससे लाखों जिंदगियों को भोजन, पानी और सुरक्षा मिल रही है पर उससे सख्त फैसले की उम्मीद फिलहाल करना बेमानी होगी।
तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने कहा है कि आज का तालिबान 1990 के तालिबान से काफी अलग है। विचारधारा समान है क्योंकि वे मुस्लिम हैं, लेकिन अनुभव को लेकर एक बदलाव है – आज हम अधिक अनुभवी हैं और एक अलग दृष्टिकोण रखते हैं। तालिबान के प्रवक्ता ने कहा कि हम एक ऐसी सरकार बनाना चाहते हैं जिसमें सभी पक्ष शामिल हों।
शायद तालिबान की इस बात से संयुक्त राष्ट्र कुछ सीख ले और सुधारों की सिली परत खोली जाए। एक ऐसा संगठन नई दुनिया की मांग है जो पांच पहियों पर नहीं, अपने दम पर सख्त फैसले ले सके।

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