शिक्षा का कुम्भकार “कृषि कर्म का पैरोकार” : राय बहादुर चौधरी अमर सिंह
राय बहादुर चौधरी अमर सिंह का जन्म १० अप्रैल १८७९ को उत्तर प्रदेश के जनपद बुलंदशहर (पूर्व नाम वरन नगर) के ग्राम पाली प्रतापपुर के एक बड़े जमींदार घराने में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री (डिप्टी) नारायण सिंह एवं माता का नाम श्रीमती लक्ष्मी था। जमींदार परिवार में पालन पोषण के उपरांत भी इस महापुरुष में अपने क्षेत्र में गरीब एवं पिछड़े अकिंचन लोगों के प्रति हमदर्दी एवं सहृदयता का बीज अंकुरित हुआ और अपनी अल्पायु में ही किसानों, मजदूरों और समाज के पिछड़े वंचित शोषित लोगों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रयास किया। जबकि उस कालखंड में जमीदारों, सामंतों के द्वारा जनता का अधिकाधिक शोषण किया जाता था। अधिकांश सामंत जमींदार अंग्रेजों के पिट्ठू एवं पिछलग्गू बनकर भोग विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहे थे। ऐसे ही काल में आर्य संस्कृति का प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा और वे शिक्षा से वंचित, शोषित, पीड़ितों के हितार्थ सर्वस्व न्यौछावर करने का संकल्प लिया जबकि अनेकानेक जमींदारों सामंतों ने उनका विरोध भी किया।
राय बहादुर चौधरी अमर सिंह का विचार था की आजादी के लिए प्रतीक्षा की जा सकती है परंतु शिक्षा के लिए नहीं, क्योंकि शिक्षित समाज ही अपने लक्ष्य को आसानी से पा सकता है। ग्रामीण क्षेत्र में उन दिनों शिक्षा का अभाव था क्योंकि लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के कारण राष्ट्र के ७३२००० (सात लाख बत्तीस हजार) गुरुकुल १८५७ के विप्लव से पूर्व ही ध्वस्त किए जा चुके थे। अब ग्रामीणों के कतिपय लोग ही शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूरस्थ शहरों में ही जाते थे। गरीब व्यक्ति धन एवं संसाधन के अभाव में अनपढ़ रह जाता था।
राय बहादुर चौधरी साहब भी स्वयं मिडिल पास थे जो उन्नीसवीं सदी में एक बड़ी शिक्षा मानी जाती थी। चौधरी अमर सिंह, अत्यंत पिछड़े ग्रामीण परिवेश में अपने जीवन की लंबी यात्रा करने वाले इस पुरोधा ने क्षेत्र के समस्त विकास के लिए संकल्प लिया और अपने व्रत को पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। अपने सपने को साकार करने के लिए इस महा विभूति ने बीसवीं सदी के प्रारंभ में सन् १९०५ ई• में अपने निवास स्थान (पाली) पर एक प्राथमिक पाठशाला के रूप में शिक्षण संस्था प्रारंभ की। सभी प्रवेशार्थी को निशुल्क शिक्षा देना आरंभ किया। छात्रों की बढ़ती संख्या को दृष्टिगत रखकर प्राथमिक पाठशाला को लखावटी गांव में स्थानांतरित किया जहां ब्रिटिश मिशनरियों द्वारा प्राथमिक विद्यालय चलाया जा रहा था। इस कारण ब्रितानी हुकूमत का भी भारी विरोध सहना पड़ा क्योंकि ब्रिटिश मिशनरी अपनी शिक्षा के साथ-साथ ईसाईयत का प्रचार प्रसार कर धर्म परिवर्तन भी कर रही थी। उस महान व्यक्ति ने जनता के सहयोग से सन् १९१० में किंग एडवर्ड मेमोरियल स्कूल की स्थापना की। साथ-साथ देश को आजाद करने के लिए जनता को जागरूक करने का भी प्रयास करते रहे। विद्यालय का नाम किंग एडवर्ड रखने के पीछे का कारण, उनके द्वारा ब्रिटिश मिशनरी के प्रचार प्रसार पर लगाम लगाना, ईसाईयत प्रचार व धर्म परिवर्तन को रोकना था।
चौधरी अमर सिंह के अथक प्रयासों से १९१३ में जूनियर हाई स्कूल एवं १९१६ में हाई स्कूल की मान्यता मिल गई। जबकि महामना मदन मोहन मालवीय के द्वारा १९१६ में ही हिंदू विश्वविद्यालय की नींव रखी गई अर्थात् महामना मालवीय से पहले ही शिक्षा के क्षेत्र में और विशेषकर ग्रामीणांचल में शिक्षा के लिए अद्भुत कदम था। क्योंकि गांव के लोग शिक्षा से ब्रिटिश सरकार द्वारा वंचित कर दिए गए थे। क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो राज करो नीति पर शहर और ग्राम को आपस में बांट दिया था, जिसे प्रथम पंक्ति के नेताओं ने बहुत बाद में समझा।
१९३१ में इसी प्रकार कालांतर में हाई स्कूल से इंटरमीडिएट में विद्यालय क्रमोन्नत हुआ। इंटर में कृषि एवं कला संकाय रूप में मान्यता प्राप्त की क्योंकि चौधरी साहब का कृषि शिक्षा की ओर अधिक रुझान था इसीलिए कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसी क्रम में ०१ अप्रैल १९३० को संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन गवर्नर सर विलियम मार्शल हैले ने हैले छात्रावास की नींव रखी जहां अल्पावधि में ही ५२ वृहद् कक्षों के निर्माण में क्षेत्र के जमींदारों ने अपना बहुमूल्य योगदान किया। चौधरी अमर सिंह के अथक प्रयासों से ही इंटर कॉलेज महाविद्यालय के रूप में परिणित हुआ। यही महाविद्यालय कृषि महाविद्यालय के रूप में सन् १९४१ में आगरा विश्वविद्यालय आगरा से सम्बद्ध हुआ। यही आगरा विश्वविद्यालय कालांतर में डॉ• भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है।
इस महाविद्यालय के भव्य विशाल मुख्य द्वार का निर्माण लॉर्ड मैंकेजी के नाम पर हुआ। यह कृषि महाविद्यालय का मुख्य द्वार अपने आप में एक कला का नमूना आज भी लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में प्रथम कृषि महाविद्यालय होने का गौरव प्राप्त हुआ। आज यह संस्था देश के अग्रणी कृषि संस्था के रूप में सुविख्यात है जिसका विस्तार प्रदेश से बढ़कर अन्य प्रदेशों में पहुंचा है।
विगत वर्षों में जम्मू कश्मीर से लेकर आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, बिहार, मणिपुर तक के छात्र-छात्राएं यहां अध्ययनरत हैं। और अनेक क्षेत्रों में छात्र-छात्राएं कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं।
इस युगपुरुष ने छ: सौ बीघा जमीन (भूमि) निशुल्क दान में देकर शिक्षा के क्षेत्र में हवि दी है। आज जिसका वर्तमान मूल्य एक अरब से भी कहीं अधिक है जबकि उनके कालखंड के तथाकथित सामंत जमींदार अपने वैभव का विस्तार करने में लगे हुए थे और आज के आधुनिक नेता भी इस घुड़दौड़ में अपने वैभव को बढ़ाने में लगे हुए हैं चाहे वह किसी भी दल के हो। आज सत्यनिष्ठ (ईमानदार) वही है जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिला अर्थात् हमाम में सभी नंगे हैं।
इसी महापुरुष ने जीवन पर्यंत संस्था का समस्त व्यय वहन किया। अपने निजी संसाधनों से जो आय प्राप्त होती थी उसी से संस्था का संचालन होता था। शहरों में तो भामाशाह थे पर ग्रामीणांचल में वे धन खर्च करना नहीं चाहते थे लेकिन इस युगपुरुष ने कभी भी धन को संस्था के विकास में आड़े नहीं आने दिया। यही कारण है कि सन् १९२० में हाईस्कूल में छात्रावास सुविधा सुलभ थी तथा इंटर होते-होते दो छात्रावास उन्होंने अपने निजी धन से बनवाए। जिससे छात्रों को किसी प्रकार असुविधा न हो। सन् १९२२ में विद्युत आपूर्ति हेतु जनरेटर की व्यवस्था थी जो उस कालखंड में बहुत बड़ी बात थी वह भी ग्रामीणांचल में। वह विद्यार्थियों के इतने हित चिंतक थे कि अच्छे से अच्छा शिक्षक विद्यालय में रखते और अच्छा शिक्षक कहीं अन्यत्र से भी किसी भी कीमत पर उपलब्ध हो उसे ढूंढ कर लाते थे ताकि विद्यालय में शिक्षा की गुणवत्ता बढ़े। इसी प्रकार क्षेत्र में घूम-घूम कर शिक्षा से वंचित योग्य छात्रों को प्रवेश हेतु लाया जाता और उन्हें भी प्राथमिकता दी जाती। इस पुरुषार्थ के कारण महाविद्यालय के अनेक
छात्र देश विदेश में शीर्ष पदों पर विराजमान हुए। शिक्षा के इस युग पुरुष ने संस्था का निर्माण इंग्लैंड से लाए एक मानचित्र के अनुसार कराया था और उनका संकल्प था कि यह महाविद्यालय एक दिन कृषि विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित हो और अपने मित्रों से, पुत्रों से कहा करते थे कि मेरे निधन के उपरांत मेरी अस्थियां एवं भस्मि को मुख्य द्वार पर सीमेंट के साथ चिपका दी जाए। मेरा मन मुझे इसी संकल्प को प्रेरित करता है और ऐसा हुआ। आज भी उनकी अस्थियां दानी दधीचि की भांति मुख्य द्वार की भव्यता और उनके पुरुषार्थ की कहानी कहती हैं लेकिन विश्वविद्यालय का सपना साकार करने वाले इस युगपुरुष का अचानक १८ जून १९३५ को आकस्मिक निधन मात्र छप्पन वर्ष की आयु में हो गया।
आज तो संस्थाएं अपने निजी लाभ के लिए खोली जा रही हैं जबकि रायबहादुर अपनी आय का बड़ा भाग संस्था पर
व्यय करते थे। चौधरी अमर सिंह अपनी संस्था के छात्रों को अपनी संतान के रूप में देखते थे। स्वयं के बागों के समस्त आम बच्चों में निशुल्क बांटे जाते थे।
रायबहादुर की उपाधि ब्रिटिश राज में सन् १९११ में किंग एडवर्ड के द्वारा दी गई और १९२२ में महारानी विक्टोरिया के निमंत्रण पर इंग्लैंड की यात्रा की। महारानी विक्टोरिया ने शिक्षा के क्षेत्र में किए कार्यों के प्रति उन्हें ओ• वी• ई• (रायबहादुर) की उपाधि से सम्मानित किया।
सन् १९२९ में दिसंबर के अंतिम दिनों में भरतपुर के लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत के विरोध में जन जागरण किया। इसमें दीनबंधु सर छोटू राम रोहतक, राय बहादुर चौधरी अमर सिंह पाली बुलंदशहर, ठा• झम्मन सिंह एडवोकेट अलीगढ़, कुंवर हुकम सिंह रईस आंगई (मथुरा) जैसे प्रसिद्ध नेताओं ने घर-घर जाकर, पैदल एक सप्ताह तक आजादी का जन जागरण ही नहीं किया वरन् स्वतंत्रता आंदोलन को राजस्थान एवं आसपास के समस्त लोगों को सक्रिय किया। अंत में भरतपुर के महाराजा के नेतृत्व में यह देशव्यापी एक विशाल जन अभियान के रूप में परिवर्तित हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति में इस आंदोलन का उल्लेखनीय योगदान माना जाता है।
चौधरी अमर सिंह ने शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के साथ कृषि सिंचाई योजना की नींव रखी जिससे कृषि को नलकूपों द्वारा आधुनिक ढंग से खेती की जाने लगी और किसानों को आर्थिक सहायता दी। शहरों और कस्बों को छोड़कर अस्पताल नहीं थे। गांव के लोगों का नीम हकीमों के कारण असामायिक निधन हो जाता था। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में डिस्पेंसरी खुलवायी। सरकारें जिस कार्य को आज कर रही हैं वह भी वोट बैंक के कारण। वहीं इस युगपुरुष ने अपने बुलंदशहर लखावटी क्षेत्र में निर्धन व्यक्तियों को अनाज बांटा जाता तथा साथ ही अत्यधिक निर्धनों की बेटी के विवाह में आर्थिक सहायता दी जाती। कोई व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौटता था। जाति धर्म की संकीर्णता से ऊपर थे। उनके परिवार का भोजन एक वाल्मीकि (हरिजन) रसोईया बनाता था। अल्पसंख्यक (मुस्लिम) भी उन्हें बहुत आदर देते थे। यह सब संस्कार उन्हें अपने पिता श्री (डिप्टी) नारायण सिंह से मिले थे। उन पर महर्षि दयानंद एवं आर्य समाज का प्रभाव था। यह कहना अतिशयोक्ति में नहीं है, चौधरी अमर सिंह ने शिक्षा के क्षेत्र में जो कार्य किया वह अदभुत है कम आयु में राष्ट्रीय स्तर की संस्था ग्रामीणांचल में खड़ा करना बहुत बड़े पुरुषार्थ का कार्य है।
पूर्व प्रधानमंत्री, महर्षि दयानंद के दीवाने चौधरी चरण सिंह कहा करते थे कि पुरुषार्थ एवं सचरित्र से ही पुरुष का ही नहीं राष्ट्र का भाग्य बदल जाता है। अतः यथा नाम तथा गुण के कारण चौधरी अमर सिंह सदैव को अमर हो गए।
सादर-
गजेंद्र सिंह आर्य
राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता, पूर्व प्राचार्य
जलालपुर (अनूपशहर), बुलंदशहर -२०३३९०
उत्तर प्रदेश
चल दूरभाष – ९७८३८९७५११
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