एकात्म मानववाद की बढ़ती प्रासंगिकता
डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
अर्थवादी यह समझते हैं कि ज्यादा भोग से ही ही सुख मिलता है, परंतु दीनदयाल जी ने उदाहरण देकर कहा कि सुख मन की स्थिति पर निर्भर करता है। इसलिए विकास की समग्र अवधारणा का समर्थन किया, जिसमें मन, बुद्धि और शरीर तीनों के विकास का समन्वय हो। आज जब भोगवादी विकास के सिद्धांतों से दुनिया भर में सुख क्षीण हो रहा है, संसाधनों के अनुचित प्रयोग से मानव के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है। तब दीनदयाल उपाध्याय की एकात्म मानववाद की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई हैज्दीनदयाल उपाध्याय जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। 1950 में जब भारतीय जनसंघ का गठन हुआ, तो वे जनसंघ का कार्य देखने लगे। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था, यदि मुझे दीनदयाल उपाध्याय जैसे चार कार्यकर्ता मिल जाएं तो मैं देश की राजनीति बदल सकता हूं। उपाध्याय जी जोडऩे की कला में माहिर थे। शायद यही कारण था कि जब जनसंघ की स्थापना के दो वर्ष के भीतर ही डा. मुखर्जी की श्रीनगर में संदिग्ध हालात में मृत्यु हो गई, तो बहुत लोगों को लगता था कि अब जनसंघ चल नहीं पाएगा, तो दीनदयाल जी ने इस आशंका को र्निमूल सिद्ध किया और जनसंघ प्रगति पथ पर बढऩे लगा। दीनदयाल उपाध्याय राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर देश की राष्ट्रवादी शक्तियों का एक मंच तैयार करना चाहते थे। परंतु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जनसंघ के केरल अधिवेशन के बाद उनकी भी मुगल सराय के पास हत्या कर दी गई। इसे दुर्योग ही कहना चाहिए कि न तो डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हत्या पर से पर्दा उठ पाया और न ही दीनदयाल उपाध्याय की हत्या से। लेकिन दीनदयाल जी ने राष्ट्रवादी शक्तियों के लिए जो आधार भूमि तैयार कर दी थी, उसी का सुफल था कि बीसवीं शताब्दी के अंत तक राष्ट्रवादी शक्तियां देश की राजनीति की धुरी में स्थापित हो गईं। दीनदयाल जी की प्रसिद्धि का एक और कारण भी रहा। जब उन्होंने एकात्म मानववाद की अवधारणा दी तो उस पर खूब चर्चा हुई। विश्वविद्यालयों में, बौद्धिक संस्थानों में यह गरमागर्म बहस का विषय बना। सहमत होना या न होना अलग बात थी, लेकिन एकात्म मानववाद की अवहेलना करना बौद्धिक जगत के लिए मुश्किल था। दीनदयाल उपाध्याय जी ने मानव व्यवहार, व्यक्ति और समाज, मानव विकास के मौलिक प्रश्नों पर चिंतन करके एकात्म मानववाद की अवधारणा स्थापित की थी।दरअसल मानव को लेकर विश्व भर के चिंतकों में आदि काल से चिंतन होता रहा है। सभी चिंतन मानव के विकास और उसके सुख के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं। लेकिन इस दिशा में चिंतन करने से पहले यह भी जरूरी है कि मानव के मन को समझ लिया जाए। यदि मानव के मन की ठीक समझ आ जाए तभी तो उसके सुख व विकास के लिए रास्ते तय किए जा सकते हैं। यह काम पश्चिम में भी होता रहा है और भारत में भी। पश्चिम ने मानव मन को समझने का दावा किया। ऐसे चिंतकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता। उसका सुख-दुख समाज के सुख-दुख से जुड़ा हुआ है। दूसरे चिंतकों ने इसे अमान्य किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य वास्तव में आर्थिक प्राणी है। उसकी समाजिकता भी तब तक ही है, जब तक इससे उसके आर्थिक हितों की पूर्ति होती है। जीवनयापन के लिए जो बुनियादी जरूरतें हैं, उन्हीं की प्राप्ति मनुष्य का लक्ष्य है और इसी से उसे सुख मिलता है। पश्चिम के कुछ चिंतकों ने इसे भी नकार दिया। उनके अनुसार मानव व्यवहार वस्तुत: काम से संचालित होता है। बाकी सब चीजें गौण हैं। पश्चिमी चिंतकों के ये निष्कर्ष ठीक हो सकते हैं, परंतु सब मिलकर ठीक हैं। एकांगी ठीक नहीं है, परंतु पश्चिमी चिंतक इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उन्होंने मानव शास्त्र के जितने सिद्धांत गढ़े, वे सभी किसी एक कारक को प्रमुख मान कर ही गढ़े। पूंजीवाद और साम्यवाद की अवधारणाएं वस्तुत: भौतिक कारकों को आधार बनाकर गढ़ी गई। इन अवधारणाओं और सिद्धांतों से जिस प्रकार का नुकसान हो सकता था, पश्चिम उसको भोग रहा है। दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की अवधारणा स्थापित की। यह अवधारणा भारत के युगयुगीन सांस्कृतिक चिंतन पर आधारित है।उपाध्याय जी मानते थे कि समाजवाद, पूंजीवाद या फिर साम्यवाद, एक शब्द में कहना हो तो अर्थवाद या भौतिकवाद मूलत: भटकाव ज्यादा पैदा करता है और समाधान कम देता है। पूंजीवाद या फिर साम्यवाद के निश्चित खांचों में फिट होने के लिए मानव नहीं है। मूल अवधारणा मानववाद की होनी चाहिए और बाकी सभी वाद या सिद्धांत मानव को केंद्र में रखकर ही रचे जाने चाहिए, लेकिन पश्चिम में इसके विपरीत हो रहा है। अर्थवाद के प्रणेताओं ने सिद्धांत गढ़ लिए हैं और अब मानव को विवश कर रहे हैं कि इन काल्पनिक सिद्धांतों के आधार पर स्वयं को ढालें। मानववाद या मानव के विकास को खंड-खंड करके नहीं देखा जा सकता, उसके लिए एकात्म दृष्टि चाहिए। मानव को सभी प्रकार की वस्तुओं की दरकार है।
उसे समाज भी चाहिए, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति भी चाहिए, काम के क्षेत्र में संगीत साहित्य कला भी चाहिए, परंतु ध्यान रखना चाहिए कि उसे ये सब एक साथ ही चाहिए। शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय जी ने मानव के विकास अथवा मानववाद के रास्ते को एकात्म कहा है। एकात्म मानववाद मानव के संपूर्ण विकास की बात करता है। दीनदयाल उपाध्याय इसे पुरुषार्थ चतुष्टय की पुरातन भारतीय अवधारणा से समझाते थे। भारतीय चिंतकों ने चार पुरुषार्थों की चर्चा की है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, परंतु ये चारों पुरुषार्थ अलग-अलग नहीं हैं। परस्पर गुंफित हैं। अर्थ और काम की साधना तो मनुष्य करेगा ही, लेकिन इन दोनों क्षेत्रों में कर्म करने के लिए धर्म की सीमा रेखा निश्चित है। एक बात और ध्यान में रखनी होगी कि सभी प्रकार के पुरुषार्थों की साधना करते हुए मानव जीवन का कोई न कोई लक्ष्य भी होना चाहिए। भारतीय चिंतकों ने इसी लक्ष्य को मोक्ष कहा है। एकात्म की अवधारणा को समझाने के लिए दीनदयाल जी संबधों का एक और उदाहरण दिया करते थे। एक ही व्यक्ति एक साथ कई संबंधों को निभाता है। वह एक साथ ही पिता है, भाई है, बेटा है। ये सभी संबंध एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। यही मानव प्रकृति की एकात्मता है। मनुष्य शिशु होता है, फिर जवान होता है और अंत में बूढ़ा होता है, लेकिन मनुष्य की ये तीनों अवस्थाएं एक संपूर्ण इकाई बनती हैं। पश्चिम ने शायद मानव की इस संपूर्णता को अनदेखा किया और उसे खंडित नजरिए से देखकर विकास के मॉडल तैयार किए।