लेखक:- प्रशांत पोळ
किसी भी वस्तु की वारंटी अथवा गारंटी का अनुमान, हम सामान्य लोग कितना लगा सकते हैं? एक वर्ष… दो वर्ष… पांच वर्ष या दस वर्ष..? आजकल ‘लाइफ टाइम वारंटी’ बीस वर्ष की आती हैं. हमारी सोच इससे अधिक नहीं जाती. है ना? परन्तु निर्माण अथवा स्थापत्य क्षेत्र के प्राचीन भारतीय इंजीनियरों द्वारा तैयार की गई ईंटों की गारंटी है – ५००० वर्ष..! जी हां… पांच हजार वर्ष. और यह ईंटें हैं मोहन जो-दारो और हडप्पा की खुदाई में मिली हुई प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेषों में.
जिस समय भारत में १८५७ के, पहले स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियां चल रही थीं, उस कालखंड में भारत के उत्तर-पश्चिम दिशा में (अर्थात वर्तमान पाकिस्तान में) अंग्रेज अपनी रेलवे लाईन बिछाने की दिशा में कार्यरत थे. लाहौर से मुल्तान तक की रेलवे लाईन बिछाने का काम ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर से जारी था. इस काम के प्रमुख इंजीनियर थे ब्रुंटन बंधु. जॉन एवं विलियम ब्रुन्टन. इनके समक्ष एक बड़ी चुनौती यह थी कि रेलवे लाईन के नीचे बिछाने वाली गिट्टी कहां से लाएँ?
कुछ गांव वालों ने उन्हें बताया कि, ब्राम्हनाबाद के पास एक पुरातन शहर है, जो अब खंडहर अवस्था में है. वहां से कई मजबूत ईंटे आपको मिल सकती हैं.
दोनों अंग्रेज भाई रेलवे इंजीनियर थे. उन्होंने उन अवशेषों से ईंटें खोज निकालीं. उन्हें बड़ी संख्या में ईंटें मिलीं. लाहौर से कराची के बीच में बिछाई गई लगभग ९३ किलोमीटर की रेलवे लाईन इन्हीं ईंटों से बनाई गई है. इन दोनों अंग्रेज इंजीनियरों को पता ही नहीं चला कि वे अनायास ही एक प्राचीन एवं समृद्ध हडप्पा के अवशेषों को नष्ट करते जा रहे हैं.
आगे कई वर्षों तक इन ऐतिहासिक ईंटों ने लाहौर-मुल्तान रेलवे लाईन को सहारा दिया.
आधुनिक पद्धति की कार्बन डेटिंग से यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि मोहन जो-दारो, हडप्पा, लोथल इत्यादि स्थानों पर खुदाई में मिली प्राचीन संस्कृति लगभग साढ़े सात हजार वर्ष पुरानी होनी चाहिए. यदि इन ईंटों को थोड़ा नया भी माना जाए, तब भी ये कम से कम पांच हजार वर्ष पुरानी हैं. अर्थात लगभग ५००० वर्ष पुरानी ईंटें १८५७ में प्राप्त होती हैं, तब भी वे मजबूत होती हैं तथा अगले ८०-९० वर्षों तक रेलवे की पटरियों को संभालती भी हैं…!!
क्या ऐसी ईंटें आज बनाई जा सकती हैं?
हडप्पा से प्राप्त उपरोक्त ईंटें विशिष्टतापूर्ण हैं. इन्हें भट्टियों में तपाया गया है. साधारणतः १५ विभिन्न आकारों में यह ईंटें देखी जा सकती हैं. परन्तु इन सभी आकारों में एक समानता है – इन सभी ईंटों का अनुपात ४:२:१ ऐसा है. अर्थात चार भाग लम्बाई, २ भाग चौड़ाई तथा १ भाग ऊँचाई (मोटाई). इसी का अर्थ यह है कि इन ईंटों का निर्माण अत्यंत वैज्ञानिक पद्धति से किया गया होगा. फिर ऐसे में प्रश्न निर्माण होता है कि लगभग पांच हजार वर्ष पहले निर्माण कार्य से सम्बन्धित यह उन्नत ज्ञान भारतीयों के पास कहां से आया? या भारतीयों ने ही इसकी खोज की थी?
इसका उत्तर हमें अपने प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलता है. तंत्र शास्त्र के कुछ ग्रन्थ आज भी वाचिक परंपरा के कारण उपलब्ध है. इन्हीं में से कपिल वात्स्यायन का एक ग्रन्थ है “मयमतम कला-मुला शास्त्रं” नाम का. इस ग्रन्थ में निर्माण कार्यों के बारे में अनेक बातें स्पष्ट की गई हैं. इसमें एक श्लोक है –
‘चतुष्पश्चषडष्टाभिमत्रिस्तध्दिव्दिगुणायतः II
व्यासार्धार्धत्रिभागैकतीव्रा मध्ये परेsपरे I
इष्टका बहुशः शोष्याः समदग्धाः पुनश्च ताः II’
इसका अर्थ है – ‘इन ईटों की चौड़ाई चार, पांच, छः और आठ इन घटकों में रहेंगी, जबकि इनकी लम्बाई इसकी दोगुनी है. इनकी ऊंचाई (मोटाई) यह चौड़ाई से आधी अथवा एक तिहाई होनी चाहिए. इन ईंटों को पहले अच्छे से सुखाकर भट्टी में भून लेना चाहिए.’
यह श्लोक जिस ग्रन्थ में है, वह ग्रन्थ संभवतः सोलहवीं शताब्दी में लिखा गया है. अर्थात आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले. जबकि हडप्पा की खुदाई में मिली ईंटें हैं पांच से सात हजार वर्ष पुरानी.
इसका अर्थ स्पष्ट है. निर्माणकला का अत्यंत उन्नत एवं प्रगत ज्ञान, ज्ञात इतिहास के समय से ही भारत में मौजूद था और इसका बड़े ही शास्त्रीय और वैज्ञानिक पद्धति से उपयोग भी किया जाता था.
चलिए, अब हम एक थोड़ा नवीन उदाहरण देखें. विजयनगरम साम्राज्य के उत्तर कालखंड में अर्थात सन १५८३ में निर्माण किया गया ‘लेपाक्षी मंदिर’. ऐसा कहा जाता है कि जब रावण सीता का हरण करके ले जा रहा था, तब उसके साथ जटायु का संघर्ष हुआ. तब जटायु ने यहीं पर अपने प्राण त्यागे. बंगलौर से लगभग डेढ़ सौ किमी दूरी पर स्थित, परन्तु आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में स्थापित यह लेपाक्षी मंदिर अनेक अर्थों में विशिष्टताओं से भरा हुआ है. विजयनगर साम्राज्य के वीरन्ना और विरुपन्ना नाम के दो भाईयों ने इस मंदिर का निर्माण किया है. ये दोनों विजयनगर साम्राज्य के वीर सरदार थे. कूर्मशैल पठार अर्थात कछुए की पीठ जैसी पहाड़ी पर बनाया गया यह मंदिर, श्री वीरभद्र का है. लगभग सवा पांच सौ वर्ष पुराना यह मंदिर एक अनोखे कारण के लिए प्रसिद्ध है. सत्तर स्तंभों पर आधारित इस मंदिर में एक स्तंभ है, जो हवा में झूल रहा है…!
ज़ाहिर है कि वह प्रकट रूप में ऐसा दिखाई नहीं देता. दूर से देखने पर वह जमीन से टिका हुआ ही प्रतीत होता है. परन्तु उस पत्थर के खम्भे के नीचे से एक पतला कपड़ा आर-पार निकल जाता है. जब इस खम्भे को ऊपर से देखा, तो उसे पकड़कर रखने वाली कोई भी रचना वहां दिखाई नहीं देती है.
स्थापत्य शास्त्र के दिग्गजों एवं वैज्ञानिकों के लिए यह एक गूढ़ रहस्य ही है. यह स्तंभ बिना किसी आधार के झूलता हुआ कैसे टिका है, यह कोई भी नहीं बता पा रहा. जब अंग्रेजों का शासन था, तब एक अंग्रेज इंजीनियर ने इस खम्भे के साथ कई हरकतें करके देखीं, परन्तु वह भी इस अदभुत रचना का रहस्य खोज नही पाया.
अर्थात आज से लगभग सवा पांच सौ वर्ष पहले भी भारत का स्थापत्य शास्त्र अत्यंत उन्नत स्वरूप में उपलब्ध था. ऐसे ही कई निर्माण हमें भारत में अनेक स्थानों पर दिखाई देते हैं. प्रतापगढ़ और रायगढ़ किलों का निर्माण कार्य तो शिवाजी के कालखंड में हुआ था. अंग्रेजों द्वारा जानबूझकर इन किलों की दुर्गति करने के बावजूद, आज भी ये किले बुलंद स्वरूप में खड़े हैं.
आगे चलकर अंग्रेज अपनी सिविल इंजीनियरिंग लेकर भारत आए और स्थापत्य एवं निर्माण शास्त्र से सम्बन्धित जो भी बचे-खुचे थोड़े भारतीय ग्रन्थ थे वे उपेक्षित हो कर रद्दी में चलते बने.
भारतीय शिल्पशास्त्र (अथवा स्थापत्य शास्त्र) के मुख्य रूप से अठारह संहिताकार माने जाते हैं. वे हैं – भृगु, अत्री, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजीत, विशालाक्ष, पुरंदर, ब्रह्मा, कुमार, नंदिश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र एवं बृहस्पति. इन सभी के द्वारा शिल्पशास्त्र पर स्वतन्त्र संहिता लिखी गई. इनमें से आज की तारीख में मय, विश्वकर्मा, भृगु, नारद एवं कुमार, यह केवल पांच ही संहिताएं उपलब्ध हैं. यदि अन्य सभी प्रकार की संहिताएं मिल जाएँ, तो संभवतः लेपाक्षी मंदिर के झूलने वाले स्तंभ जैसे अनेक रहस्यों का खुलासा हो सकता है.
भारत में जिस समय उत्तर दिशा से मुसलमानों के आक्रमणों की तीव्रता बढ़ रही थी, उसी कालखंड में, अर्थात ग्यारहवीं शताब्दी में, मालवा के राजा भोज ने ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक ग्रन्थ संकलित किया था. इस ग्रन्थ में ८३ अध्याय हैं. इसमें स्थापत्य कला एवं निर्माण शास्त्र से लेकर यंत्रों के विज्ञान तक, अनेक बातों का विस्तृत विवरण दिया गया है. यहां तक कि हाइड्रोलिक टर्बाइन चलाने की विधि का भी इसमें उल्लेख किया गया है –
‘धारा च जलभारश्च पायसो भ्रमणम तथा I
यथोच्छ्रायो यथाधिक्यम यथा निरन्ध्रतापिच I
एवमादिनी भूजस्य जलजानी प्रचक्षते II’
– अध्याय ३१
अर्थात ‘जलधारा किसी भी वस्तु को घुमा सकती है. यदि जलधारा को ऊँचाई से गिराया जाए, तो उसका प्रभाव अधिक तीव्र होता है, तथा इसकी गति एवं वस्तु के भार के अनुपात में वह वस्तु घूमती है.’
‘समरांगण सूत्रधार’ ग्रन्थ पर यूरोप में काफी काम किया गया है. परन्तु हमारे देश में इस बारे में उदासीनता ही दिखाई देती है. लगभग अस्सी वर्ष आयु के डॉक्टर प्रभाकर पांडुरंग आपटे ने इस ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद किया, तब कहीं जाकर पश्चिमी देशों की नजरे इस ग्रन्थ की पर पड़ी.
कहने का तात्पर्य यह है कि स्थापत्य शास्त्र का यह प्रचंड ज्ञान आज रद्दी में पड़ा है. उसे बाहर लाना आवश्यक है. मंदिरों के स्थापत्य शास्त्र एवं मूर्तिकला जैसे विषयों पर हमारे पास रिस-रिसकर आने वाला साहित्य बड़े पैमाने पर उपलब्ध है. शिवशाहीर बाबासाहेब पुरंदरे के गुरु, प्रख्यात इतिहासविद ग. ह. खरे द्वारा लिखित ‘भारतीय मूर्तिविज्ञान’ नामक एक अदभुत पुस्तक है. परन्तु वर्तमान में इन विषयों पर बहुत सा काम किया जाना आवश्यक है.
संक्षेप में बात यह है कि हजारों वर्ष पहले हमारे पूर्वजों द्वारा ग्रंथों में लिखे गए ज्ञान के द्वार खोजना एवं उन्हें सर्व साधारण के लिए खोलना, यही हमारा प्रयास होना चाहिए.
-✍🏻 प्रशांत पोळ
मूषाओं के मकान – आश्चर्य का हेतु
श्री कृष्ण जुगनू
दस साल पहले जब मैं ‘समरांगण सूत्रधार’ ग्रंथ पर काम कर रहा था तो उसमें भवन में मूषाओं के प्रयोग के संबंध में कई निर्देश थे और मैं ‘मक्षिका स्थाने मक्षिकाम्’ की तरह की मूल शब्द का ही प्रयोग करके एक बार तो आगे से आगे अर्थ करता चला गया। बाद में जो अर्थ होना चाहिए था, वह पुनर्स्थापित किया किंतु उदयपुर जिले के जावर में तो मूषाअों [Retorts] के प्रयोग को देखकर फिर कोई नया अर्थ सामने आ गया। जरूर भोजराज के समय, 10वीं सदी तक जावर जैसा प्रयोग लुप्त हो गया होगा।
जावर दुनिया में सबसे पहले यशद देने वाली खदान के लिए ख्यात रहा है। यशद या जिंक का प्रयोग होने से पहले इस धातु को जिन लोगों ने खोजा और वाष्पीकृत हाेने से पहले ही धातुरूप में प्राप्त करने की विधि को खोजा- वे भारतीय थे और मेवाड़ के जाये जन्मे थे। सामान्य घरों में रहने वाले और जिस किसी तरह गुजारा करने वाले। जावर की खदान सबसे पहले चांदी के लिए जानी गई और ये पहाड़ाें में होने से इनको ‘गिरिकूप’ के रूप में शास्त्र में जाना गया। पर्वतीय खानों में उत्खनन के लिए पहले ऊपर से ही खोदते-खोदते ही भीतर उतरा जाता था। शायद इसी कारण यह नाम हुआ हो। यहां ‘मंगरियो कूड़ो’ या डूंगरियो खाड़ कहा भी जाता है।
तो, करीब ढाई हजार साल पहले यहां धातुओं के लिए खुदाई ही नहीं शुरू हुई बल्कि अयस्कों को निकालकर वहीं पर प्रदावण का कार्य भी आरंभ हुआ। जरूर यह समय मौर्यपूर्व रहा होगा तभी तो चाणक्य ने पर्वतीय खदानों की पहचान करने की विधि लिखी है और आबू देखने पहुंचे मेगास्थनीज ने भी ऐसी जगहों को पहचान कर लिखा था।
यहां प्रदावण का कार्य इतने विशाल स्तर पर हुआ कि यदि कोई जावर देख ले तो अांखें पलक झपकना भूल जाए। हर कदम पर रोमांच लगता है। कदम-दर-कदम मूषाओं का भंडार और उनमें भरा हुआ अयस्क चूर्ण जो जब पिघला होगा तो धातु की बूंद बनकर टपका होगा। धातु तत्काल हथिया लिया गया मगर मूषाओं का क्या करते ? एक मूषा एक ही बार काम में आती है। इसी कारण बड़े पैमाने पर यहां मूषाओं का निर्माण भी हुआ और उनका प्रदावण कार्य में उपयोग भी। प्राचीन भारतीय प्रौद्योगिकी का जीवंत साक्ष्य है जावर, जहां कितनी तरह की मूषाएं बनीं, यह तो उनका स्वरूप देखकर ही बताया जा सकता है मगर ‘रस रत्न समुच्चय’ आदि ग्रंथों में एक दर्जन प्रकार की मूषाएं बनाने और औषधि तैयार करने के जिक्र मिलते हैं। इनके लिए मिट्टी, धातु, पशुरोम आदि जमा करने की अपनी न्यारी और निराली विधियां हैं मगर, रोचक बात ये कि अयस्क का चूर्ण भरकर उनका मुख कुछ इस तरह के छिद्रित ढक्कन से बंद किया जाता था कि तपकर द्रव सीधे आग में न गिरे अपितु संग्रहपात्र में जमा होता जाए।
प्रदावण के बाद बची, अनुपयोगी मूषाओं का क्या उपयोग होता ? तब यूज़ एंड थ्रो की बजाय, यूज़ आफ्टर यूज़ का मन बना और मूषाओं का उपयोग कामगारों ने अपने लिए आवास तैयार करने में किया। कार्यस्थल पर ही आवास बनाने के लिए मूषाओं से बेहतर कोई वस्तु नहीं हो सकती थी। जिस मिट्टी से मूषाओं को बनाया जा रहा था, उसी मिट्टी के लौंदों से मूषाओं की दीवारें खड़ीकर चौकोर और वर्गाकार घर बना दिए गए। ये घर भी कोई एक मंजिल वाले नहीं बल्कि दो-तीन मंजिल वाले रहे होंगे। है न रोचक भवन विधान।
ये बात भी रोचक है कि हवा के भर जाने के कारण वे समताप वाले भवन रहे होंगे। अंधड़ के चलने पर और बारिश के होने पर उन घरों की सुरक्षा का क्या होता होगा, मालूम नहीं। उनमे रहने का अनुभव कैसा रहा होगा, हममें से शायद ही किसी को ऐसे हवादार घर में रहने का अनुभव हो।
मगर, जावर की पहाडि़यां ऐसे मूषामय घरों की धनी रही हैं। आज केवल उनके अवशेष नजर आते हैं। कोई देखना चाहे तो जावर उनको बुला रहा है।
अनुज श्रीनटवर चौहान को धन्यवाद कि वह इस नवरात्र में मुझे जावर ले गया और मैं पूरे दिन इन मूषाओं के स्वरूप और मूषाओं के मकानों को देख देखकर हक्का-बक्का रहा। हम सबके लिए अनेक आश्चर्य हो सकते हैं, मगर मेरे लिए जावर भी एक बड़ा आश्चर्य है जहां आंखें जो देखती है, जबान उसका जवाब नही दे सकती। हां, कुछ वर्णन जरूर मैंने अपनी ‘मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास’ में किया है।
-✍🏻 डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
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