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भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन अध्याय – 5 ( 1 ) अरबों से राजा की पहली भिड़ंत

 

अरबों से राजा की पहली भिड़ंत

 

चोरी, डकैती, हत्या और बलात्कार – भारत में अरब आयातित दुर्गुण रहे हैं । उससे पहले भारत में इन दुर्गुणों के बारे में कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था। जब अरब के लोगों का भारत के साथ सम्पर्क हुआ और कालांतर में अरब या अरबी धर्म को मानने वाले लोगों का यहाँ पर शासन स्थापित होना आरम्भ हुआ  तो भारत में यह दुर्गुण बड़ी तेजी से फैले। यद्यपि यह गर्व और गौरव का विषय है कि हिन्दू समाज ने इसके उपरान्त भी इन दुर्गुणों को अपनी आम सहमति प्रदान नहीं की। क्योंकि भारतवर्ष का सारा हिन्दू समाज मूल वैदिक धर्म को मानने वाला रहा है जो संसार का वैज्ञानिक और मानवीय धर्म है।वास्तविकता यह है कि भारत के वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं ने इन दुर्गुणों को अपनाने वाले शासकों के विरुद्ध अपना स्वाधीनता संग्राम आरम्भ कर दिया उन्होंने ऐसे प्रत्येक व्यक्ति से मुक्ति का संघर्ष किया जो इन दुर्गुणों में विश्वास रखता था। इस संग्राम के जारी करने का एक ही कारण था कि भारत का मूल वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू इन सभी दुर्गुणों को धर्म विरुद्ध, अनैतिक और अनाचार को प्रोत्साहित करने वाले मानता था। जिससे मानवता का और धर्म का अहित होना निश्चित था।

भारत का विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध

उन दिनों सिन्ध का समुद्री मार्ग पूरे विश्व के साथ व्यापार करने के लिए प्रयोग किया जाता था । जहाँ तक भारत की बात है तो भारत तो और भी प्राचीन काल से सम्पूर्ण भूमण्डल के देशों और देशवासियों के साथ अपने व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किए हुए था। भारत के व्यापारी अपनी ईमानदारी, सादगी, नैतिकता और धार्मिकता के लिए पूरे विश्व में जाने जाते थे। विश्व के जिस कोने में भी भारतीय व्यापारी गए उन्होंने वहाँ अपने इन मानवीय गुणों की छाप छोड़ी और मानवता को उन्नत करने में अपना हर प्रकार का सहयोग प्रदान किया । यही कारण था कि विश्व के सभी आँचलों में भारत के व्यापारियों का सम्मान होता था । उनके माल को लोग बड़े विश्वास के साथ खरीद लेते थे । क्योंकि उन्हें यह भरोसा होता था कि भारत के व्यापारी कुछ भी ऐसा नहीं करेंगे जो अनैतिकता और बेईमानी को प्रोत्साहित करने वाला हो ।

भारत के सामान से खुश रहते थे लोग ।
भारत से संबंध को मानै थे शुभ योग।।

चोर बाजारी, मिलावट या कोई भी ऐसा कार्य जो व्यापार के माध्यम से लोगों के लिए जानलेवा हो सकता है या उनके लिए कोई गम्भीर संकट खड़ा कर सकता है – ऐसी सोच भारतीय व्यापारियों को छू तक भी नहीं गई थी। वास्तव में मिलावट और चोर बाजारी का काम संसार को उन लोगों ने दिया है जो काफिरों के साथ जायज नाजायज कुछ भी करने को पूर्णतया उचित मानते रहे हैं।
बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच प्राचीन काल से ही गहरे व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे। पश्चिमी भारत में इस समय सोपारा तथा भृगुकच्छ अर्थात भड़ौच प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। इन बंदरगाहों से विदेशों के लिए व्यापार होता था। यहीं पर आकर विभिन्न देशों के व्यापारी अपना सामान जहाजों से उतारते थे और यहाँ से माल भरकर अपने देश ले जाते थे।
जातक ग्रन्थों में कई स्थानों पर व्यापारियों द्वारा समुद्री यात्रा करने तथा कभी-कभी जहाजों के दुर्घटनाग्रस्त होने के उल्लेख हैं।
ईसा पूर्व छठा शती के मध्य साइरस महान के नेतृत्व में ईरान में हखामनी साम्राज्य की स्थापना हुई । उसके उत्तराधिकारी दारा प्रथम (522-486 ई0 पू0) के समय भारत का पश्चिमी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ा।
पश्चिमोत्तर सीमा से कुछ ईरानी सिक्के मिलते हैं । इनसे भी ईरान के साथ भारतीय व्यापार की पुष्टि हो जाती है । भारतीय व्यापारी ईरान होते हुए मिस्र तथा यूनान तक जाते थे और व्यापार करते थे । सिकन्दर के आक्रमण के बाद भारत तथा यूनान के बीच व्यापारिक सम्बन्ध और भी अधिक मजबूत हुए।
क्लासिकल विवरणों से पता चलता है कि भारत में नौकाओं तथा पोतों का निर्माण प्रचुर रूप में होता था, जिनसे होकर व्यापारी पश्चिमी देशों को जाते थे । टालमी के अनुसार- भारत के पश्चिमी प्रदेशों से दो हजार नौकाओं में लादकर अश्व तथा अन्य पदार्थ नियार्कस भेजे गये थे । मौर्य काल की सुदृढ़ राजनीतिक परिस्थितियों ने व्यापार-वाणिज्य की प्रगति में महान् योगदान दिया । इस समय भारत का व्यापार सीरिया, मिस्र तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ स्थापित हुआ । यूनानी-रोमन लेखक भारत के समुद्री व्यापार का वर्णन करते है।
एरियन लिखता है कि भारतीय व्यापारी मुक्ता वेचने के लिये यूनान के बाजारों में जाते थे । व्यापारिक पोतों का निर्माण इस काल का एक प्रमुख उद्योग था ।  महामती चाणक्य के ‘अर्थशास्त्र’ से हमें पता चलता है कि इस समय व्यापारी विदेश जाते थे । नवाध्यक्ष तथा पण्याध्यक्ष नामक अधिकारी विदेश जाने वाले व्यापारियों की देख-रेख किया करते थे।
कहने का अभिप्राय है कि हमारे व्यापारियों के विषय में हमें यह तो जानकारी मिलती है कि उन्होंने कब – कब किस काल में किस प्रकार के व्यापारिक कीर्तिमान स्थापित किए ? परन्तु उन्होंने कहीं भारत के सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध जाकर दूसरे देशों के लोगों के साथ छल कपट किया हो या वहाँ की राजनीतिक सत्ता को हथियाने का प्रयास किया हो या वहाँ के लोगों पर अपना कब्जा कर उनके खून को निचोड़ने के अमानवीय कृत्य किए हों – ऐसा कोई भी उल्लेख में कहीं भी प्राप्त नहीं होता।
व्यापार में मानवता और विदेशों में जाकर उस देश के नियमों के प्रति समर्पण का भाव सीखना है तो भारतीयों से ही सीखा जा सकता है। क्योंकि इन लोगों ने प्राचीन काल से ही दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करना अनैतिक और अन्याय पूर्ण माना है।

मानवता और सादगी यही नियम व्यापार।
सच्चाई से ही निभै,  सत्य पूर्ण व्यवहार ।।

जबकि दूसरी सभ्यताओं व संस्कृतियों को अपनाने का दावा करने वाले लोगों ने विधर्मी लोगों के या परदेसियों के साथ अन्याय और अनीति करने को ही प्राथमिकता दी। उसी के कारण संसार में उपद्रव, उत्पाद और उग्रवाद फैले। यदि ये सब चीजें आज भी जारी हैं  तो इसके पीछे भी कारण केवल यही है कि लोग विधर्मी लोगों के साथ अनीतिपूर्वक व्यवहार करने को ही उचित मान रहे हैं। दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण कर दूसरे देशों पर जाकर जबरन अपना शासन थोपने वाले लोग आज हमें सभ्यता का पाठ पढ़ाते हैं और नीति क्या है ? न्याय क्या है? – इन सब पर हमें उपदेश देते हैं । जबकि हम इन्हें प्राचीन काल से जानते हैं । जो स्वयं पक्षपाती हैं, वर हमें निष्पक्ष व्यवहार करने की शिक्षा देते हैं। यदि ये अपने गिरेबान में झांकें तो पता चलेगा कि संसार में जितना भी अन्याय बढ़ा हुआ दिखाई देता है या अनीति पांव फैलाए हुए दिखाई देती है वह सब इन्हीं तथाकथित उपदेशकों के कारण ही है।
वास्तव में शान्तिपूर्वक लोकतांत्रिक ढंग से व्यापार किए जाने की प्रक्रिया भी यही है कि आप दूसरे देश में जाएं तो अवश्य परन्तु वहाँ के सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र में किसी प्रकार का हस्तक्षेप ना करें । व्यापारिक सम्बन्धों को राजनीतिक सम्बन्धों से अलग रखने की वैश्विक नेताओं की सोच आज भी यही होती है कि हमारे सामाजिक राजनीतिक सम्बन्ध अपने स्थान पर होंगे और व्यापारिक सम्बन्ध अपने स्थान पर होंगे। कहना न होगा कि भारत ने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के इस मूल्य को प्राचीन काल से अपने लोगों के चरित्र का एक आवश्यक अंग बनाने में सफलता प्राप्त की।

अरब के व्यापारियों का व्यवहार

इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि  भारत के  व्यापारियों के विपरीत अरब के व्यापारियों का धर्म नीचता की हर सीमा का उल्लंघन कर चुका था । लूटमार, हत्या, डकैती, बलात्कार और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरे देशों के लोगों के साथ  किसी भी प्रकार का छल – कपट करने के कार्य को वह अपने व्यापार का एक अनिवार्य अंग मानकर चलते थे। यह और भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि  अरब के इस्लामिक शासकों की  छत्रछाया भी अपने ऐसे व्यापारियों पर बनी रहती थी , क्योंकि ऐसे व्यापारी अपने लूट के माल में से एक निश्चित हिस्सा अपने खलीफाओं को भी जाकर दिया करते थे।
कहने के लिए तो खलीफा धर्मगुरु थे, किन्तु वास्तव में वह अधर्म के कार्यों को प्रोत्साहित करते थे। यदि उनके इस प्रकार के अनीतिपरक कार्यों पर दृष्टिपात किया जाए तो उन्हें ‘लूट गुरु’ कहने में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।क्योंकि उस समय जितने भी ‘लूट दल’ बनाकर दूसरे देशों में भेजे जाया करते थे उन सबके प्रमुख यह खलीफा ही हुआ करते थे। इन्हीं के दिशा निर्देश में संसार के विभिन्न देशों की संस्कृति और सभ्यता को लूटने व समाप्त करने का सारा खेल उस समय खेला जा रहा था। ‘लूट गुरु’ के प्रति पूरी श्रद्धा दिखाने का भाव हम आज भी  देखते हैं ।

बना बनाकर लूट दल करते थे अपराध।
मानवता भय मानती देख बेसुरी बात।।

इस प्रकार के कार्यों को भूमिगत होकर जो लोग अपने प्यादों के माध्यम से कराते हैं वे सारे प्यादे अपने ऐसे भूमिगत ‘लूट गुरु’ के प्रति बहुत ही अधिक श्रद्धा भक्ति वाले पाए जाते हैं। जो लोग यह कहते हैं कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ उनका यह भ्रम इन तथाकथित धर्म गुरुओं या खलीफाओं के इस प्रकार के आचरण को देखकर टूट सकता है।
अरब के व्यापारी जिन – जिन रास्तों से गुजरते थे, उन -उन रास्तों में पड़ने वाले शहरों व नगरों को उजाड़ने या वहाँ पर कोई भी हिंसक या अपराधिक कार्य करने को वे अपना मजहबी अधिकार मानते थे।
आतंक फैलाना और लोगों को आतंकित कर उनका धनमाल लूटना इन अरब व्यापारियों का प्रमुख व्यवसाय था।

सिन्ध और ‘सोने की चिड़िया’

सिंध उन दिनों अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए प्रसिद्ध था । संपूर्ण भारतवर्ष ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में अरब के व्यापारियों की नजरों में खटकता था।
उन्होंने इस देश की आर्थिक समृद्धि के बारे में बहुत सारे किस्से कहानी सुन रखे थे। इसलिए जब -जब भी ‘सोने की चिड़िया’ का ख्याल उनके मन – मस्तिष्क में आता था तब -तब ही वे इसे लूटने और अपने आधीन कर लेने के सपने देखा करते थे। इस्लाम के खलीफाओं के द्वारा जब उनसे यह कह दिया गया यदि वह ऐसा करने में सफल होते हैं तो उन्हें जन्नत मिलेगी और जन्नत में भी 72 -72 हूरों के साथ मौज मस्ती करने का अवसर मिलेगा तब तो मानो उनके लिए सोने पर सुहागा वाली बात हो गई, इसलिए वह अब ‘सोने की चिड़िया’ भारत को लूटने के लिए और भी अधिक व्याकुल हो उठे थे। वास्तव में जन्नत में 72 हूरों के मिलने के लालच ने संसार में उग्रवाद को प्रोत्साहित करने में बहुत अधिक सहयोग प्रदान किया है । लोगों ने इस लालच में फंसकर अनेकों लोगों के साथ अत्याचार और अन्याय भरे अमानवीय कृत्य किए हैं।

मिलें दर्जनों हूर भी और जन्नत की ठौर।
दुनिया भर में छा गया था दहशत का दौर।।

भारत किस प्रकार विश्व के लिए आर्थिक समृद्धि का केंद्र रहा है ? – इसकी जानकारी हमें  ‘दैनिक जागरण’ (24 जनवरी 2019 ) में छपे इस लेख से मिलती है :- “1000 वर्षों के मुगल / अन्य आक्रमणकारियों के शासन के बाद भी, विश्व की जीडीपी में भारत की अर्थव्यवस्था का योगदान 25% के बराबर था। इसी समय में अंग्रेजों ने भारत पर कब्ज़ा किया था लेकिन जब अंगेज भारत को छोड़कर गए तो भारत का विश्व अर्थव्यवस्था में योगदान मात्र 2 -3% रह गया था, लेकिन आज भारत विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है।
मुगलों के शासन शुरू करने से पहले, भारत 1 A.D. और 1000 A.D. के बीच दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। जब मुगलों ने 1526-1793 के बीच भारत पर शासन किया, इस समय भारत की आय (17.5 मिलियन पाउंड), ग्रेट ब्रिटेन की आय से अधिक थी. वर्ष 1600 AD में भारत की प्रति व्यक्ति GDP 1305 डॉलर थी जबकि इसी समय ब्रिटन की प्रति व्यक्ति GDP 1137 डॉलर, अमेरिका की प्रति व्यक्ति GDP 897 डॉलर और चीन की प्रति व्यक्ति GDP 940 डॉलर थी। इतिहास बताता है कि मीर जाफर ने 1757 में ईस्ट इंडिया कंपनी को 3.9 मिलियन पाउंड का भुगतान किया था। यह तथ्य भारत की सम्पन्नता को दर्शाने के लिए बड़ा सबूत है।”

 

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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