अशोक मधुप
अमेरिका ने सोचा था कि तालिबान को काबुल फतह करने में 90 दिन लगेंगे, लेकिन इतनी जल्दी कब्जा हो जाएगा, ये किसी को भी गुमान नहीं था। अमेरिका द्वारा ट्रेंड अफगानिस्तान की फ़ौज हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर देगी, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता।
अफगानिस्तान में अमेरिका सेना की मौजूदगी में तालिबान ने सत्ता कब्जा ली। जबकि अमेरिका सेनाओं को 31 अगस्त को अफगानिस्तान खाली करना था। अमेरिकी सेनाओं के पूरी तरह अफगानिस्तान खाली करने से पहले ही तालिबान ने अफगानिस्तान को अपने कब्जे में ले लिया। राष्ट्रपति निवास उनके अधिकार में आ गया। हालत बिगड़ते देख अफगानिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अपने परिवार और साथियों को लेकर अफगानिस्तान छोड़ गए। उनके जाते ही राष्ट्रपति भवन पर तालिबान पहुंच गए। यह भी सूचना है कि सत्ता का भी तालिबान को हस्तानांतरण हो गया। सूचना है कि अमेरिका का हथियारों का बड़ा जखीरा तालिबान के हाथ लगा है। वहां से आ रहे समाचार अच्छे नहीं हैं। ऐसे में काबुल में हर एक को अपनी जान बचाने की पड़ी है। अधिकांश विदेशी और अमेरिका का समर्थन करने वाले और सहयोग करने वाले अपनी जान बचाने के लिए चिंतित हैं। वे जानते हैं कि तालिबानी उन्हें बख्शेंगे नहीं। काबुल में अफरातफरी है। वहां भगदड़ का माहौल है। एयरपोर्ट का रास्ता पूरी तरह जाम है।
अमेरिका ने सोचा था कि तालिबान को काबुल फतह करने में 90 दिन लगेंगे, लेकिन इतनी जल्दी कब्जा हो जाएगा, ये किसी को भी गुमान नहीं था। अमेरिका द्वारा ट्रेंड अफगानिस्तान की फ़ौज हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर देगी, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता। दरअसल अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने की घोषणा के साथ वहां का शासन और सेना का मनोबल गिर गया। वह पूरी तरह से टूट गयी। अमेरिका की अफगानिस्तान छोड़ने की घोषणा के साथ ही वहां के सैनिकों का मनोबल गिर गया था। युद्ध में सबसे बड़ा हथियार आत्मविश्वास है। मनोबल है। जिस देश के शासक और सेना ने आत्मविश्वास खो दिया, वह कब तक वहां की विजेता रहती। उसे तो हथियार डालने ही थे।
सबसे बड़ी चीज है देखने में आ रही है कि अफगानिस्तान के अधिकांश प्रदेशों के राजनयिक और पुलिस बल अमेरिका के अफगानिस्तान से जाने की घोषणा करने के बाद तालिबान से मिल गए। ऐसा होने पर तालिबान को ना कुछ करना पड़ा ना उससे जाकर मिलने वाले अफगान के अधिकारियों और पुलिस जवानों को ही परेशानी उठानी पड़ेगी। एक भी गोली नहीं चली और तालिबान काबिज हो गया। सूचना है कि सेना खुद अपने हथियार तालिबान को सौंप रही है।
तालिबान युग लौट आया ऐसा सोचा भी नहीं गया था। अब क्या-क्या जुल्म वहां होंगे, इसकी कल्पना में ही रोंगटे कांपने लगते हैं। उसके पुराने आदिम युग से अफगानिस्तान के भविष्य की कल्पना ही की जा सकती है। इस पूरे प्रकरण में सबसे बड़ी किरकिरी अमेरिका की हुई है। जैसे वह अफगानिस्तान से भागा, ऐसे ही पीठ दिखाकर वियतनाम से भागा था। अफगानिस्तान में अकेले अमेरिका के साथ ऐसा नहीं हुआ, उससे पहले रूस के साथ भी ऐसा हुआ था। रूस को भी लंबी जंग लड़ने के बाद यहां से पीछे हटना पड़ा था। वह तो अपने हथियार और गोला बारूद भी छोड़कर भागा था। अब अमेरिका फ़ौज की मौजूदगी में कब्जा हुआ यह बहुत शर्म की बात है।
अफगानिस्तान की लड़ाई और उसके पतन में एक बात साफ निकल कर आयी कि संयुक्त राष्ट्र संघ एक हाथी के दांत की तरह दिखावटी है। उसकी कुछ क्षमता नहीं। कोई ताकत नहीं। शक्ति सम्पन्न बड़े देश उसे अपने पक्ष में मोड़ने में सक्षम हैं। जहां उनकी नहीं चलती, उसे रोकने के लिए उनके पास वीटो पावर है। अफगानिस्तान के पतन से आज संयुक्त राष्ट्र संघ के औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं। सँयुक्त राष्ट्र संघ कुछ कर नहीं सकता। उसमें विचार चलता रहा, दोहा में समस्या के हल पर बड़ी शक्तियां विचार करती रहीं और तालिबान का काबुल पर कब्जा हो गया। वीटो पावर का अधिकार रखने वाले सभी देश अफगानिस्तान में मानवाधिकारों का उल्लंघन होते देखते रहे और कुछ भी नहीं कर सके। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने सदस्य देशों में शांति कायम रखने, आपातकाल में वहां के प्रशासन से सहयोग करने के लिए बना है, लेकिन यहां वह फेल हो गया।
अफगानिस्तान की सीमा पर बैठी रूस, चीन जैसी महाशक्तियां तालिबान से भयभीत हो उनसे समझौते पर उतर आईं। पाक पहले ही तालिबान के पीछे खड़ा है। अमेरिका भी हाल में इसी रास्ते की ओर बढ़ रहा था। सब अपनी बचाने में लगे हैं। अफगानिस्तान और उसकी जनता को बचाने से किसी का लेना-देना नहीं।