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संपादकीय

1965 का नायक ‘लाल बहादुर’

देश इस समय 1965 के भारत-पाक युद्घ की 50वीं वर्षगांठ मना रहा है। स्पष्ट है कि 1965 का जिक्र आये तो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का पावन स्मरण भी लोगों को अवश्य ही आता है। यह वह व्यक्तित्व था जिसने 1962 के युद्घ में लज्जास्पद ढंग से पिटे एक राष्ट्र के ऊपर मात्र तीन वर्ष पश्चात ही थोपे गये युद्घ में उसका नेतृत्व किया था, और वह नेतृत्व भी सफलतापूर्वक किया गया था।

1962 तक हमारा नेतृत्व सपनों के संसार में जी रहा था। एक अव्यावहारिक और बचकानी कल्पना कर ली थी हमने कि युद्घ तो अब बीते समय की बातें हो गयी हैं। इसका कारण यह था कि ‘अहिंसा परमोधर्म:’ का जाप हमने इतनी बार किया था कि हमें दुष्ट और देवता में, दानव और मानव में कोई अंतर ही नही दिखाई दे रहा था। हम यह भूल गये थे कि भारत की स्वाधीनता लाखों नही करोड़ों लोगों के बलिदानों से मिली है और इसके लिए हमने खून के नाले नही नदियां बहायी हैं। पर जब देश को 1962 ई. में चीन ने पराजित किया तो सपनों के संसार में जीने वाला हमारा भारतीय नेतृत्व यथार्थ के संसार में आकर आंखें खोलकर देखने के लिए विवश हो गया।

सन 1962 में परास्त हुए भारत की स्थिति पर पाकिस्तान को लगा कि इस अहिंसक राष्ट्र को तो तू भी पीट सकता है। इसलिए उसने भारत पर सितंबर 1965 में आक्रमण कर दिया। पर भारत में नेहरू के ‘गुलाब’ का स्थान शास्त्री के ‘गीताज्ञान’ ने ले लिया था जो कि गुलाब के स्थान पर अधिक ठोस और शाश्वत था। ‘गीताज्ञान’ के कर्मयोगी ने राष्ट्र का नेतृत्व किया और सारे देशवासियों से कहा कि धर्मक्षेत्र से भागना नही है, ठीक है कि 1962 में हम परास्त हुए पर अब 1962 की कटु स्मृतियों को छोड़ो, अब 1965 है, और हम शत्रु का सामना करने का साहस रखते हैं। शास्त्री जी ने पाकिस्तान को स्पष्ट कर दिया था कि यदि उसने कश्मीर पर आक्रमण किया तो भारत उसे अपनी राष्ट्रीय अखण्डता और संप्रभुता पर किया गया आक्रमण मानेगा। सारा देश पाकिस्तान को उसकी करतूत का करारा जवाब देगा। शास्त्री जी ने बिना समय गंवाये 2 से 5 अगस्त के बीच कश्मीर क्षेत्र में घुस आयी पाक सेना को सबक सिखाने की तैयारियां आरंभ कर दीं। एक सितंबर को पाक ने छम्ब क्षेत्र में तोपों से बमबारी करनी आरंभ की। 4-6 सितंबर को उसकी ओर से क्रमश: जौडिय़ां तथा 28 ब्रिगेड पर हमला किया गया। उसी दिन भारतीय सेना ने छम्ब में पाकिस्तानी सेना पर जोरदार प्रहार किया और उसे आगे बढऩे से रोक दिया।

शास्त्री जी की युद्घ योजना ऐसी थी कि आम आदमी को उससे कोई कष्ट नही हो रहा था। यहां तक कि भारत पाक सीमा के पास एक खेत में उन्होंने देखा कि एक ओर हमारा किसान टै्रक्टर से जुताई कर रहा था, अर्थात एक सच्चे कर्मयोगी की तरह अपने काम में मग्न था और उसी के खेत के पास खड़े होकर हमारे कुछ जवान अपनी तोप से शत्रु पर प्रहार कर रहे थे। वह अपने कार्य में मग्न थे। शास्त्री जी ने दो कर्मयोगियों को अपनी-अपनी राष्ट्रभक्ति का निर्वाह करते देखा तो उनके मुख से अनायास ही निकल गया,- ‘जय जवान, जय किसान।’ हमारी ओर से विधिवत आक्रमण 8 सितंबर से प्रारंभ किये गये। इसके पश्चात 11, 13, 14, 17, 21 सितंबर को भी भारतीय सेना ने शत्रु पर भारी प्रहार किया। लालबहादुर शास्त्री अपने सैनिकों के साथ पूरी तन्मयता से खड़े थे। वह दिल्ली में रहकर भी उनके साथ थे, यहां तक कि सीमा पर और पाक के भीतर घुस गयी भारतीय सेना के साथ भी शास्त्री जी प्रकट हुए।

अपने साहसी प्रधानमंत्री को अचानक अपने बीच पाकर हमारे सैनिक और अधिकारी स्तब्ध रह गये। शास्त्रीजी ने टैंक पर खड़े होकर लाहौर में जाकर अपने सैनिकों का उत्साह वर्धन किया। शत्रु की भूमि पर खडे होकर शत्रु को ललकारा और अपने सैनिकों का उत्साहवर्धन कर स्वदेश लौट आये। सारा देश शास्त्रीमय हो चुका था। सारा देश ऊंचे मनोबल से भर गया था। देश के इसी प्रधानमंत्री ने विश्व समुदाय से यह भी स्पष्ट कर दिया था कि भारत युद्घ विराम के लिए तैयार तो है, पर बिना किसी शर्त के। 22 सितंबर को सुरक्षा परिषद ने युद्घ विराम का प्रस्ताव पारित कर दिया। 23 सितंबर दोपहर 3.30 से युद्घ विराम आरंभ हो गया। युद्घ विराम के समय 1528 वर्ग किमी पाकिस्तानी भू-भाग पर तथा पाकिस्तान का भारतीय भूभाग पर 554 वर्गकिमी क्षेत्र पर कब्जा था। भारत ने पाकिस्तान के 11705 सैनिकों को हताहत किया था जबकि भारत के 2902 सैनिक हताहत हुए थे।

शास्त्री जी को कोसिगिन (रूसी प्रधानमंत्री) के आग्रह पर 4 जनवरी 1966 को रूस जाना पड़ा। यहां पर भारतीय प्रधानमंत्री की अनिच्छा से उन पर दबाव बनाकर उस भूभाग को खाली कराने पर उनकी सहमति प्राप्त कर ली गयी जो भारतीय सैनिकों ने अपने बलिदान देकर पाकिस्तान से प्राप्त किया था। यहीं शास्त्री का 11 जनवरी 1966 को निधन हो गया। उनकी मृत्यु को भी हत्या बताने का आरोप उनके परिजनों ने लगाया है। इससे पूर्व भी ऐसी शंकाएं व्यक्त की जाती रही हैं। क्या 1965 की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर हमें शास्त्री जी के निधन के रहस्य का कहीं से पर्दा उठने की अपेक्षा करनी चाहिए? सारा देश चाहता है कि आगामी 11 जनवरी 2016 से पूर्व मोदी इस रहस्य को भी सुलझा दें,  कि शास्त्रीजी मरे थे या मारे गये थे? जिससे कि उनकी 50वीं पुण्यतिथि के अवसर पर राष्ट्र उन्हें सही और सच्ची श्रद्घांजलि दे सके।

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