आत्मा के तीन बंधन:भय, भ्रम और भोग
बिखरे मोती-भाग 111
बंधन जग में तीन हैं,
भय भ्रम और हैं भोग।
इनसे मुक्ति तब मिलै,
जब हरि से हो योग ।। 969।।
व्याख्या:-
इस परिवर्तनशील संसार में जीवात्मा तीन बंधनों भय, भ्रम और भोग में आबद्घ है। जीवात्मा के चारों तरफ ऐसी मोटी पर्तें हैं जो फौलाद से भी कई गुणा अधिक कठोर हैं। भय से अभिप्राय पांच क्लेशों (राग, द्वेष, अविद्या, अस्मिता, मृत्यु) से है। भ्रम से अभिप्राय मन के विकारों काम, क्रोध, ईष्र्या, मद, मोह, मत्सर, घृणा से है। भोग से अभिप्राय -भौतिक सुख साधनों से है। ये ऐसे अकाट्य बंधन हैं जिनके कारण आत्मा कर्म-भोग-चक्र के मकडज़ाल से जन्म-जन्मांतरों तक निकल नही पाती है। इस आवागमन के चक्र से मुक्ति केवल ऐसी आत्माओं को ही मिलती है जो अपने भाव शरीर पर किसी प्रकार का दाग नही लगने देती हैं। जो सर्वदा परमपिता परमात्मा से जुड़ी रहती हैं अर्थात उससे ऊर्जान्वित होती हैं, उसमें रमण करती हैं, सत्य में अवस्थित होती हैं। ऐसी विलक्षण आत्मा, ऐसी पुण्यात्मा तो विरला ही होती है। हे मनुष्य! विवेक के चक्षु खोल और तीनों बंधनों से मुक्त होने के अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास कर, क्योंकि ये तीनों बंधन मनुष्य योनि में ही कट सकते हैं अन्य योनि में संभव नही है।
जिसका मिलना बिछुडऩा,
दिल को देय मिठास।
पुण्यों का कोई पुंज है,
हरि-कृपा है खास ।। 970।।
व्याख्या :-
मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता हो रही है कि प्यारे प्रभु ने मुझे ऐसे दिव्य देश भारत के भूतल पर पैदा किया है, जहां वेद उपनिषद गीता का हृदयस्पर्शी संगीत सुनाई देता है। संगीत में वह अनुपम शक्ति होती है जो हृदय के तारों अर्थात भावों को पवित्र करती है। वेद, उपनिषद के मंत्र और गीता के श्लोकों से प्रतिध्वनित होती स्वरलहरियां अंत:करण को पवित्र करती हैं। इनके मंत्र और श्लोक ऊर्जा के अनमोलकण हैं, जो मानस में नया उत्साह एवं स्फूर्ति भरते हैं तथा जीवन को चर्मोत्कर्षी बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। ऋग्वेद का ऋषि प्रभु से प्रार्थना करता हुआ कहता है-”हे प्रभु! संसार में मेरा आना अर्थात जन्म तथा जाना अर्थात मृत्यु दोनों ही मधुरता से युक्त हो।” सरल शब्दों में इसे प्रसंगवश ऐसे कह सकते हैं-जिन दिव्य आत्माओं का मिलना और बिछुडऩा शीतलता देता है, मधुरता देता है, वे कोई सामान्य आत्मा नही होती हैं, अपितु वे दिव्यात्माएं होती हैं, जिनके आभामंडल पर पिछले जन्मों के पुण्यों का आध्यात्मिक तेज होता है और वे प्रभु कृपा की विशेष पात्र होती हैं।
भय चिंता से मुक्त हो,
दूर रहें उद्वेग।
वाणी ओजस्वी रहे,
सतत मधुरता का वेग।। 971।।
व्याख्या:
अथर्ववेद और ऋग्वेद में ऐसे अनेकों मंत्र हैं जिनमें वाणी की महिमा और गरिमा का बड़ा मार्मिक वर्णन है। ऋग्वेद का ऋषि प्रभु से प्रार्थना करता हुआ कहता है-हे प्रभु मेरी वाणी गण्या हो, भय, चिंता निराशा तथा वाणी के उद्वेगों से रहित हो, जिस प्रकार शहद की हर बूंद मधुरता से युक्त होती है ठीक इसी प्रकार मेरी वाणी अदम्य उत्साह एवं मधुरता से निरंतर ओतप्रोत रहे।
ऐसी वाणी ही टूटे दिलों को जोडऩे का काम करती है। समाज में शांति विकास और भाई चारे का निर्माण करती है। अत: वाणी के एक एक शब्द को सोच समझकर बोलें, वाक पटुता के साथ साथ वाक संयम का विशेष ध्यान रखें अन्यथा पायी हुई प्रभुता वापिस चली जाती है।
क्रमश: