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संपादकीय

सावधान! कयामत आने वाली है

छोटी-छोटी बातों पर भयंकर विवादों को जन्म देना आजकल की एक सामान्य सी बात होकर रह गयी है। अभी जनपद गौतमबुद्घ नगर के बिसाहड़ा गांव में कथित रूप से गाय काटने की घटना हुई है, जिस पर भारी जन आक्रोश का सामना शासन प्रशासन को झेलना पड़ रहा है। इसी प्रकार खुर्जा में भी एक मामूली सी बात पर दो वर्गों में हिंसक झड़पें हुई हैं।

अब प्रश्न है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि हम छोटी-छोटी बातों पर उग्र या आक्रामक हो जाते हैं? इसके लिए बड़े धैर्य से कुछ बातों पर विचार करने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम तो बात यह है यदि गाय काटने की घटना कहीं होती है तो यह इरादतन होती है, और एक वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से की जाती है। ऐसी भावनाओं को राजनीतिक और धार्मिक नेता दोनों ही मिलकर उभारते हैं। राजनीति सभी वर्गों को या दोनों पक्षों को यदि समान समझकर व्यवहार करने लगे तो यह सत्य है कि घटनाएं विकराल रूप धारण न करेंगी। जब शासन की नीतियों में पक्षपात झलकता है तो एक पक्ष उग्र हो जाता है, क्योंकि उस समय वह अपने साथ अन्याय हुआ अनुभव करता है। उस समय वह उग्र तो उस अन्याय के विरूद्घ होता है जो उसे अपने साथ होने वाले पक्षपात के रूप में दिखाई देता है, पर उसी समय उसकी उग्रता के कारण कानून उसका साथ छोड़ जाता है। जिस कानून के मुताबिक वह अपने लिए न्याय मांगने चला था, वही कानून उसके लिए हथकड़ी सजाकर ले आता है। इसी समय राजनीतिक और धार्मिक नेता अपनी-अपनी राजनीति करने लगते हैं। भावनाओं के उस दर्दनाक काल में भावनाओं का ही सौदा किया जाता है, भावनाएं ही तोड़ी जाती हैं और भावनाओं से ही खेला जाता है। ये सारी बातें लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत हैं। राजनीति में स्वच्छता की और पक्षपात रहित दृष्टिकोण की बात करने वाले लोगों को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

हम जब इस प्रकार की घटनाओं पर विचार करते हैं, और देखते हैं कि छोटी-छोटी बातों पर लोग सडक़ों पर उतर आते हैं तो राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की राजनीति को देखकर यही लगता है कि देश तेजी से ‘अनीष्ट’ की ओर बढ़ रहा है। हमारा ‘अभीष्ट’ तो था-देश में सर्व संप्रदाय समभाव की भावना को बलवती करना। पर हम इधर ना बढक़र कहीं दूसरी ओर बढ़ गये हैं। यह दूसरी ओर बढऩा ही हमारा ‘अनीष्ट’ है जो देश में गृहयुद्घ की सी परिस्थितियां निरंतर बनाता जा रहा है। देश के अमन पसंद लोगों का इन परिस्थितियों में जीना कठिन होता जा रहा है। ‘वोटों की राजनीति’ ने देश के सामाजिक परिवेश में इतना विष घोल दिया है कि लोगों का परस्पर विश्वास उठता जा रहा है।

इसके अतिरिक्त हमारा सामाजिक परिवेश इस समय भौतिकवाद में और विलासिता में डूबा पड़ा है। लोगों के पास किसी से बात करने का समय नही है, पैसा का पागलपन सब पर सवारी कर रहा है। यह सारी परिस्थितियां हर व्यक्ति को मानसिक रूप से अस्वस्थ कर रही हैं, फलस्वरूप सारा समाज बीमार सा है। कुंठा और तनाव के साथ लोग परस्पर मिलते हैं, और कुंठा तनाव के साथ ही लोगों की वात्र्ताएं समाप्त होती हैं। इसलिए दूरियां मिटने या घटने के स्थान पर निरंतर बढ़ रही हैं। बढ़ती हुई दूरियां रिश्तों की डोर को जिस दिन तोड़ देंगी उस दिन भयंकर विस्फोट में सारा समाज ही उड़ जाएगा।

इन परिस्थितियों पर सारे समाज को चिंतन करना होगा। आग लगाना तो सरल है, पर आग बुझाना उससे कठिन है, और ‘आग लगे ही नही’ यह कार्य करना और भी बड़ा है, साधनाशील समाज और साधनाशील लोग इस तीसरे मार्ग को ही अपनाया करते हैं। हमें इस तीसरे रास्ते को अपनाने के लिए विद्यालयों में समान शिक्षा लागू करनी होगी और वहां पर नैतिक शिक्षा अनिवार्य रूप से लागू करके व्यक्ति को मानव बनाने की दिशा में सारे पाठयक्रम में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा।

अभी समय है और हमें समय रहते ही सचेत हो जाना चाहिए। सडक़ों पर छोटी-2 बातों पर लोग झगड़ रहे हैं, और एक दूसरे के बाल नोंच रहे हैं, खाल खींच रहे हैं, या प्राण ले रहे हैं, और कोई भी छुड़ाने नही आ रहा है तो यह स्थिति ‘पाशविक समाज’ की स्थिति की ओर संकेत कर रही है। हम अराजकता में जी रहे हैं और अमानवीय आचरण करते हुए ‘जंगलराज’ स्थापित कर रहे हैं। इस स्थिति को देश और समाज के लिए उचित नही कहा जा सकता। ‘मंगल’ पर पहुंचा मानव धरती पर ‘दंगल’ कर रहा है, तो ‘मंगल’ ‘अमंगल’ भी कर सकता है। सावधान! कयामत आने वाली है।

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